आजादी के बाद से ही बड़े बदलाव के लिये बेचैन बिहार के ‘दो बड़े गुनहगारों’ की सूची बनाई जाय तो इसमें राज्य में सामंती दमन-उत्पीड़न और यथास्थिति को बरकरार या बढ़ाकर रखने वाले कांग्रेसी या भाजपाई नेता नहीं होंगे! इस सूची में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार, दो बड़े नाम होंगे, जिनसे लोगों ने बदलाव की अपेक्षा की थी और जिनमें संभावनाएं भी थीं। पहले लालू ने बिहार को निराश किया, फिर नीतीश ने। और अंत में नीतीश ने वह सब किया, जो उनकी लोकदली-जनतादली धारा के किसी नेता ने कभी नहीं किया था। उन्होंने सामाजिक न्याय की मुरझाती धारा को सहेजने की बजाय सामंती और सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों को अपने कंधे पर चढ़ाकर सत्ता तक पहुंचाया और इस तरह अंततः राजनीति की जनपक्षी धारा की जड़ों में मट्ठा डाल दिया।
लालू प्रसाद यादव का ‘गुनाह’
लेकिन इस मामले में लालू प्रसाद यादव कत्तई निर्दोष नहीं। भ्रष्टाचार के मामले में वह जितने बड़े गुनहगार हैं, उससे कहीं बड़े गुनहगार सामंतवाद-विरोधी सामाजिक न्याय धारा के हैं। उन्होंने इस धारा को पथभ्रष्ट किया। मार्च,1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद बिहार की राजनीति में किसी सितारे की तरह उभरे। उनके किसी समर्थक ने भी शायद ही कभी सोचा हो कि मुख्यमंत्री बनने के बाद वह इस कदर लोकप्रिय हो जाएंगे। इसके पहले वह विधायक, सांसद और विधानसभा में विपक्ष के नेता रह चुके थे। पर उनकी छवि एक हंसोड़ किस्म के युवा नेता की थी। उन्हें बड़े राजनीतिज्ञों के बीच बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लिया जाता था। यही कारण है कि जब उन्होंने सन 90 के चुनाव के बाद अपनी पार्टी के विधायक दल के नेता (मुख्यमंत्री बनने के लिए) पद का चुनाव लड़ने का फैसला किया तो शुरू में लोगों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। दूसरों के समर्थन से सियासत में जगह बनाने वाले वही लालू महज एक साल में इस कदर उभरे कि बिहार में उनके आकर्षण के आगे बड़े-बड़े फिल्मी सितारे भी फीके पड़ने लगे।
यह उनके वायदों और संकल्पों का चमत्कार था। सवर्ण-सामंती उत्पीड़न से त्रस्त बिहार की दो तिहाई से अधिक आबादी को व्यवस्था में आकर सामंती वर्चस्व को इस तरह चुनौती देने वाला नेता पंसद आया। शुरू में उन्होंने कुछ करके दिखाया भी। हिन्दी भाषी राज्यों में सांप्रदायिकता के जहरीले उफान के दौर में अयोध्या में मंदिर-निर्माण रथयात्रा पर निकले भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को उन्होंने 23 सितम्बर, 90 को समस्तीपुर में गिरफ्तार कराया। लोकप्रियता की लहरों पर सवार लालू ने 91 के संसदीय चुनाव में बिहार में लोकसभा की 54 में 31 सीटों पर अपनी पार्टी को विजय दिलाई। लेकिन समय बहुत निर्मम होता है, महज सात सालों में ही उनका आकर्षण फीका पड़ने लगा। उनके ‘शब्द’ और ‘कर्म’ में लोगों को फर्क नजर आने लगा।
अछूते रहे सामाजिक न्याय के बड़े एजेंडे
सन 97 में भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तारी का वारंट जारी होने के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा और 2013 के 30 सितम्बर को अदालत ने उन्हें उस मामले में कसूरवार साबित किया। उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही, उनका तदर्थवादी और टीम-वर्क विहीन होना। इसीलिए वह प्रशासनिक रूप से विजनरी नहीं हो पाए। उनके पास जमात तो रही, जनपक्षधर लोगों की टीम नहीं। लगभग सात साल के अपने शासन-काल मे वह चाहते तो बिहार और वहां के समाज को काफी कुछ बदल सकते थे। लेकिन पिछड़ों-दलितों-अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न-चक्र पर कुछ अंकुश लगाने के अलावा वह कोई और बड़ा काम नहीं कर सके। अगर उन्होंने बिहार में सिर्फ भूमि-सुधार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का एजेंडा हाथ में लिया होता तो वह अपराजेय बन जाते। पर उन्होंने इन एजेंडों को हाथ में नहीं लिया। वह जिस चारे घोटाले में फंसे, उसके पीछे भी उनके इर्दगिर्द रहने वाले मूर्ख, जनविरोधी और अहंकारी चाटुकारों का ज्यादा योगदान रहा। जनता के काम की चिंता करने के बजाय दलालों और चाटुकारों के काम की चिंता करता हुआ एक नेता भ्रष्टाचार के दलदल में फंसता गया।
विध्वंसक की भूमिका में नीतीश
नीतीश कुमार का मामला इससे बिल्कुल लेकिन इससे भी ज्यादा विध्वंसक है। वह अपनी निजी छवि को लेकर इतने चिंतित रहे कि लोग उन्हें ‘छवि कुमार’ कहने लगे। लालू से निराश होकर उन्होंने नया संगठन बनाया-समता पार्टी। समता पार्टी ने सन 1995 से भाकपा(माले) जैसे धुर वामपंथी संगठन से राजनीतिक गठबंधन किया। वह चाहते तो इस गठबंधन को विस्तार देते हुए बिहार के तमाम वाम-लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय के पक्षधर संगठनों और लोगों को अपने झंडे के नीचे ला सकते थे। लालू की पार्टी से बड़ी संख्या में लोग उनके साथ आ जाते। पर सन् 95 के चुनाव में अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने से वह इस कदर निराश हुए कि सबसे रेडिकल पार्टी को छोड़कर सबसे राइटिस्ट पार्टी यानी हिन्दुत्वा की पैरोकार भाजपा से जा मिले।
उस वक्त बिहार मे कांग्रेस ढलान पर थी। इसलिये बिहार की सामंती-सवर्णवादी शक्तियों ने सामाजिक न्याय और समता के लिये संघर्षरत शक्तियों को रोकने के लिए ढलती कांग्रेस का दामन छोड़ भाजपा को अपना लिया। और भाजपा से गठबंधन कर चुके नीतीश ने इस नये उभरते दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक गठबंधन को खारिज करने के बजाय इसे भरपूर सहयोग और संरक्षण दिया।
बीजेपी को सत्ता में लाने का श्रेय
सामंती शक्तियों ने उन्हें पुरस्कृत किया। वे राबड़ी देवी के बाद सूबे के मुख्यमंत्री बने। तब से मुख्यमंत्री पद की छह बार शपथ ले चुके हैं लेकिन अपने लंबे कार्यकाल में उन्होंने भूमि सुधार, शिक्षा सुधार, स्वास्थ सेवा सुधार या औद्योगिक विकास के लिये कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। उनका सबसे उल्लेखनीय योगदान है कि उन्होंने एक समय की सात-आठ या ग्यारह-बारह विधायकों की छोटी दक्षिणपंथी पार्टी-भाजपा को प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी बना दिया! अब नीतीश अपने राजनीतिक जीवन की ढलान पर हैं। गठबंधन-पलट के जरिये उन्होंने जुलाई सन् 2017 में बिहार का जनादेश ही पलट दिया। पता नहीं, सन् 2019 के संसदीय चुनाव के बाद भाजपा उनका क्या करेगी या उनकी अपनी पार्टी किस हालत में होगी। कहीं उनकी पार्टी की बिहार में वही हालत तो नहीं होगी, जो आज गोवा की महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की है, जिसके कंधे पर चढ़कर भाजपा अब से कुछ बरस पहले इस खूबसूरत तटीय राज्य में दाखिल हुई थी। बहरहाल, पार्टियां और नेता कुछ भी करें, बिहार के इतिहास में नीतीश समता और सामाजिक न्याय आंदोलन के बड़े गुनहगार के रूप में दर्ज होंगे!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा चैनल के कार्यकारी प्रमुख रहे हैं। आजकल दिल्ली में रहते हैं।)