Thursday, March 28, 2024

जयंती पर विशेष: हिंदू राष्ट्र के बारे में क्या सोचते थे डॉ. आंबेडकर

आज जब हम भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद के प्रश्न पर विचार कर रहे हैं, तो यह कोई अमूर्त अकादिमक विमर्श का प्रश्न नहीं, बल्कि बर्बर हिंदू राष्ट्रवाद अपने खूंख़ार नख-दंत के साथ हमारे सामने है। हिंदू राष्ट्र का ख़तरा आज भारत के दरवाज़े पर पुरज़ोर तरीके़ से दस्तक दे रहा है। भले ही भारत का संविधान न बदला गया हो, हां बदलने की बात की जा रही है और अभी भी औपचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष हो, लेकिन वास्तविक जीवन में हिंदुत्ववादी शक्तियां समाज-संस्कृति के साथ राजसत्ता और सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रभावी नियंत्रण कर चुकी हैं। संघ, भाजपा और संघ के अन्य आनुषंगिक संगठन ही आज देश की दिशा तय कर रहे हैं।

आज हर भारतवासी से राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का समर्थन करने और उसके सामने सिर नवाने की मांग की जा रही है और इस राष्ट्रवाद को देशभक्ति का पर्याय बना दिया गया है। गऊ माता, भारत माता और वंदेमातरम् इसके प्रतीक चिन्ह बन गये हैं। जो कोई राष्ट्रवाद के इस हिंदुत्ववादी स्वरूप को स्वीकार करने से इंकार कर रहा है, उसे देशद्रोही ठहराया जा रहा है। देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की परियोजना में संघ को काफ़ी सफलता मिल चुकी है और हिंदू राष्ट्रवाद अपने उफान पर है। 

भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना कोई आज का नया सपना नहीं हैं, भले ही आज वह परवान चढ़ता दिख रहा हो। इस्लाम-आधारित अलग राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र दोनों की मांग जुड़वा भाई की तरह पैदा हुई थी, दोनों ने एक दूसरे को संबल प्रदान किया था, सच तो यह है कि हिंदू बहुमत के शासन के भय की ज़मीन पर ही पाकिस्तान की मांग फली-फूली थी। डॉ. आंबेडकर ने 1940 में ही धर्म-आधारित राष्ट्र ‘पाकिस्तान’ की मांग पर अपनी किताब, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग के गंभीर ख़तरे से आगाह करते हुए कहा था कि ‘पर अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जायेगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक ख़तरा है।

इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए’। आज से लगभग 78 वर्ष पहले जिस ख़तरे के प्रति आंबेडकर ने आगाह किया था, वह ख़तरा आज भारत के दरवाज़े पर पुरज़ोर तरीक़े से दस्तक दे रहा है। 

प्रश्न यह है कि आख़िर क्यों आंबेडकर हिंदू राष्ट्र को इस देश के लिए भारी ख़तरा मानते थे, क्यों हिदू राज को किसी भी क़ीमत पर रोकने की अपील कर रहे थे?  क्या इसका कारण सिर्फ़ यह था कि हिंदू राष्ट्रवादी मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों से घृणा करते हैं? नहीं इसके अलावा अन्य वजहें भी थीं।

किसी भी चीज़ के आकलन की आंबेडकर की कसौटी स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा और लोकतंत्र था। वे किसी भी विचारधारा, समाजिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, यहां तक कि आर्थिक व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, जो इस कसौटी पर खरी न उतरती हो। अपनी प्रसिद्ध किताब, जाति का उच्छेद में उन्होंने अपने आदर्श समाज की रूपरेखा इन शब्दों में रखी थी, ‘मेरा आदर्श एक ऐसा समाज है, जो आज़ादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो।

मैं किसी अन्य समाज की कल्पना नहीं कर सकता।’ उनका स्पष्ट मानना था कि ऐसा समाज लोकतांत्रिक ही होगा। अपनी हर कसौटी पर वे हिंदू राष्ट्र को अनुपयुक्त और ख़तरनाक मानते थे। हिंदू राष्ट्र की आंबेडकर की आलोचना और इसके संदर्भ में 78 वर्ष पहले दी गयी चेतावनी का संबंध आंबेडकर की राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देश की उनकी सैद्धांतिक और व्यवहारिक अवधारणा से जुड़ा हुआ है। 

डॉ. आंबेडकर सतत तौर पर हिंदुत्व के किसी भी तत्व को समाहित करने वाली राष्ट्र की आवधारणा को ख़ारिज करते रहे हैं, इस संदर्भ में उनकी तकरार न केवल हिंदुत्ववादियों से रही है, बल्कि कांग्रेस और गांधी से भी रही है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान और विधि मंत्री के रूप में हिंदू कोड बिल पेश करते हुए भी उन्हें न केवल संविधान सभा के अंदर और संविधान सभा से बाहर हिंदुत्ववादियों से टकराना पड़ा, बल्कि उनकी तीखी तकरार कांग्रेस के भीतर के हिंदुत्ववादियों से भी हुई।

शायद ही, आज़ादी के इतिहास और आज़ादी के बाद के इतिहास का कोई मर्मज्ञ इस बात से इंकार कर पाए कि भारत के विभाजन और विभाजित आज़ाद भारत में हिंदुत्व के पैर पसारने और आज सत्ता और समाज पर नियंत्रण क़ायम करने में कांग्रेस के नरम हिंदुत्व की कम भूमिका रही हो। आंबेडकर कट्टर हिंदुत्व हो या नरम हिंदुत्व, दोनों में किसी पर आधारित राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उनका मानना था कि ‘हिदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबंधों की भीड़ है। हिंदू धर्म वेदों, स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों की खिचड़ी मात्र है।

हिंदुओं का धर्म बस आदेशों व निषेधों की संहिता के रूप में मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धांतों का विवेचन हो, जो वास्तव में सार्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों में हर काम के लिए उपयोगी हो, हिंदुओं में पाया ही नहीं जाता।’ ( जाति का विनाश) आंबेडकर का कहना था कि हिंदू धर्म मूलतः एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका प्राण तत्व जाति है, वे लिखते हैं, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि जाति आधारभूत रूप से हिंदुओं का प्राण है’। जाति का प्राण तत्व जातिवादी पितृसत्ता है। उन्होंने लिखा, ‘अपनी ही जाति में विवाह करना, जाति संस्था का प्राण है’। ( वही) जातीय श्रेणी क्रम को बनाये रखने की अनिवार्य शर्त है कि स्त्रियों को अंतर्जातीय विवाह करने से रोका जाये। इसी स्थिति को तोड़ने के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल पेश किया था।

आंबेडकर लिखते हैं कि ‘ब्राह्मणवाद ने नृशंसता पूर्वक विभिन्न वर्णों के बीच अंतर्विवाह को रोक देने का क्रम जारी रखा, मनु जितना शूद्रों के प्रति कठोर है, स्त्रियों के प्रति वह उससे तनिक भी कम, कठोर नहीं है।’  उन्होंने कहा था कि, ‘आठ करोड़ अस्पृश्यों को गुलामी में रखने वाला, करोड़ों की संख्या वाले बहुजन को अज्ञान, दरिद्रता, रूढ़िवादिता के अंधकार में धकेलने वाला, अनगिनत महिलाओं को मानवता से विमुख रखने वाला, यह हिंदू धर्म ही है’। वे हिंदू धर्म के अन्यायपूर्ण चरित्र से किस क़दर घृणा करते थे, जनविरोधी मानते थे, इसका प्रमाण उनके इस संकल्प में भी सामने आता है कि, ‘यद्यपि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ हूं, यह मेरे वश में नहीं था, लेकिन मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि हिंदू धर्म में कदापि मरूंगा नहीं’।

आंबेडकर हर हालत में भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से रोकना चाहते थे, इसकी वजह केवल हिंदुओं का मुसलमानों के प्रति विद्वेष तक सीमित नहीं थी। सच तो यह है कि वे हिंदू राष्ट्र को मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं के लिए ज़्यादा ख़तरनाक मानते थे। वे हिंदू राष्ट्र को शूद्रों-अतिशूद्रों और स्त्रियों के पूर्णतया ख़िलाफ़ मानते थे, जो भारत की आबादी का बहुलांश है। वे हिंदू राष्ट्र को द्विज पुरुषों के राष्ट्र से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे। उनके लिए हिंदू राष्ट्र में न केवल अन्य धर्मानुयायियों की स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जायेगी, साथ ही गैर-द्विजों की स्वतंत्रता और समता का अधिकार भी छीन लिया जायेगा। जाति श्रेणीक्रम और जातिवादी पितृसत्ता से पैदा हुई असमानता और पराधीनता ही, जो स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व और लोकतंत्र का निषेध करती है, वह मुख्य कारण थी, जिसके चलते आंबेडकर हिंदू राष्ट्र को भारी ख़तरा मानते थे और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के अभियान को हर क़ीमत पर रोकना चाहते थे। 

हिंदू धर्म-आधारित राष्ट्र और राष्ट्रवाद आंबेडकर द्वारा तीखा विरोध करने का क़तई यह अर्थ नहीं है कि वे इस्लाम या क्रिश्चियन धर्म पर आधारित किसी राष्ट्र या राष्ट्रवाद के प्रति रियायत बरतते थे। आंबेडकर वोट या बहुमत जुटाने के जोड़-तोड़ में लगे रहने वाले राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि तथ्य और सत्य के साथ खड़े होने वाले चिंतक और नायक थे। उन्होंने साफ़ शब्दों में इस्लाम धर्म के भाईचारे की सीमाओं को उजागर करते हुए कहा है, ‘इस्लाम जिस भाईचारे की चर्चा करता है, वह मनुष्य का सार्वभौम भ्रातृत्व नहीं है। यह तो केवल मुसलमानों के लिए है। ग़ैर-मुसलमानों के लिए उसमें केवल तिरस्कार और शत्रुता के अलावा कुछ नहीं है।’ आंबेडकर हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म के साथ ही क्रिश्चियन धर्म को भी लोकतंत्र के अनुपयुक्त मानते थे। इसका स्पष्ट उल्लेख उन्होंने ‘बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य’ नामक अपने आलेख में किया है। 

हिंदू राष्ट्र या राष्ट्रवाद की आंबेडकर की मुख़ालफ़त को केवल संघ-भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना तक सीमित रखना भारतीय द्विज हिंदू बुर्जुवा राष्ट्र और राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ आंबेडकर के ऐतिहासिक संघर्ष की अनदेखी करना होगा, जो आज भी भारत के नियंत्रक हैं, मालिक हैं। हम सभी इस इस बात से परिचित हैं कि दुनिया में राष्ट्रवाद की अवधारणा दो रूपों मे सामने आयी। पहली सामंतवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान यूरोपीय देशों में विकसित बुर्जुवा उदारवादी राष्ट्रवाद, दूसरा उपनिवेशवाद के शिकार देशों में उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ संघर्ष के दौरान पैदा हुआ राष्ट्रवाद। इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा जाता है कि यूरोपियन राष्ट्रवाद एक देशज ऐतिहासिक प्रक्रिया से निकलने के कारण कहीं अधिक सांस्कृतिक है, जबकि पूर्वी राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक आंदोलनों के हाथों गढ़े जाने के कारण मूलतः राजनीतिक है।

आंबेडकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को सारतः द्विज हिंदू बुर्जुवा राष्ट्र की स्थापना का संघर्ष मानते थे। उन्होंने पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन नामक अपनी किताब में हिंदू महासभा और कांग्रेस की तुलना करते हुए दो टूक शब्दों में कहा, ‘यह कहने का कोई लाभ नहीं है कि कांग्रेस हिंदू संगठन नहीं है। यह एक ऐसा संगठन है, जो अपने गठन में हिंदू ही है, वह हिंदू मानस की ही अभिव्यक्ति करेगा और हिंदू आकांक्षाओं का ही समर्थन करेगा। कांग्रेस और हिंदू महासभा में बस इतना ही अंतर है कि जहां हिंदू महासभा अपने कथनों में अधिक अभद्र है और अपने कृत्यों में भी कठोर है, वहीं कांग्रेस नीति-निपुण और शिष्ट है। इस तथ्यगत अंतर के अलावा कांग्रेस और हिंदू महासभा के बीच कोई अंतर नहीं है’। इतना ही नहीं उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि भारतीय राष्ट्रवाद अपने अंतर्य और स्वरूप में उच्च जातीय-उच्च वर्गीय है।

अपने समय के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों के बारे में उन्होंने कहा, ‘बुद्धिजीवी वर्ग भारतीय समाज में अत्यावश्यक है और अति महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो भारतीय समाज के उच्च वर्ग से बोल रहा है। यद्यपि वह देश के नाम पर बोल रहा है, राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है, फिर भी जिस वर्ग का वह है, उस वर्ग की संकुचित विशिष्टता का उसने त्याग नहीं किया है।’ इन स्थितियों में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध में होते हुए भी, वे आज़ादी की किसी भी ऐसी लड़ाई के साथ नहीं खड़ा होना चाहते थे, जिसका परिणाम उच्च जातीय हिंदुओं का शासन हो। क्योंकि उन्हें अच्छी तरह इस बात का अहसास था कि इसका अर्थ होगा, बहुलांश शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की हज़ारों वर्षों की गुलामी का जारी रहना। वे देश की आज़ादी के साथ ही शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की आज़ादी भी हासिल कर लेना चाहते थे, भले ही इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। 

भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष अपनी अंतर्वस्तु में द्विज हिंदू राष्ट्र की स्थापना का संघर्ष है, इसे बहुत पहले ही आंबेडकर ने पहचान लिया था। भारत माता की अवधारणा या भारत सभी भारतीयों का है, इस भावात्मक कथन में वे बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। उनका मानना था कि भारत के भीतर एक बहिष्कृत भारत है। इसी के चलते उन्होंने भारत माता या भारतीय मातृभूमि के बरक्स बहिष्कृत भारत की अवधारणा रखी। उन्होंने अपने जीवन के उद्देश्य की घोषणा इन शब्दों में की, ‘युगों से दबे हुए दरिद्र बहिष्कृतों को बंधन मुक्त करना है।’ वे यहां तक कहते थे कि बहिष्कृत भारत के लोगों की कोई मातृभूमि नहीं है।

जब द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन के बाद गांधी और आंबेडकर की पहली मुलाक़ात हुई, तो गांधी ने आंबेडकर से कहा कि ‘डॉ. आंबेडकर, भारत आपकी मातृभूमि है’, तो इसके जवाब में आंबेडकर ने कहा कि ‘आप कहते हैं कि यह मेरी मातृभूमि है, लेकिन मैं फिर भी कहता हूं कि मेरी कोई मातृभूमि नहीं है। जिस  देश में कुत्ते-बिल्ली के समान भी हमें जीने नहीं दिया जाता, उन्हें जो सुविधाएं मिल रही हैं, वे भी हमें नसीब नहीं। अस्पृश्यों को मानवता की चेतना और स्वाभिमान दोनों से वंचित कर दिया गया है। इस देश ने हमारे साथ इतना अक्षम्य अपराध किया है कि हम उसके विरोध में कितना बड़ा द्रोह का कार्य करें, फिर भी उसके पाप की ज़िम्मेदारी हमारे सिर पर नहीं आयेगी।

अतः कोई मुझे ‘अराष्ट्रीय’ कह दे तो भी मैं बुरा नहीं मानूंगा, क्योंकि मेरे अराष्ट्रवाद के लिए ज़िम्मेदार ही मुझे अराष्ट्रीय कहते हैं। मेरे पाप के वे ही उत्तरदायी हैं। मेरा कोई दोष नहीं है। लेकिन मेरे पास सद्विवेक बुद्धि है। मैं राष्ट्र या राष्ट्र धर्म का उपासक नहीं हूं, किंतु अपनी विवेक बुद्धि का उपासक हूं। जैसा आप कहते हैं कि मेरे द्वारा राष्ट्र की सेवा की जा रही है। उसका श्रेय मेरी राष्ट्र भक्ति को नहीं, बल्कि मेरी विवेक बुद्धि से पैदा प्रेम को है। जिस राष्ट्र में मेरी अछूत जनता की मानवता धूल के समान पैरों तले रौंदी जा रही है, उस मानवता को प्राप्त करने के लिए, इस राष्ट्र को यदि मैंने कोई हानि भी पहुंचायी है तो पाप नहीं पुण्य कहलायेगा।…इस राष्ट्र को हानि पहुंचाए बिना अपनी अछूत जनता का कैसे कल्याण किया जा सकता है, इसी चिंता में मैं हूं।’ 

आंबेडकर अच्छी तरह जानते थे कि राष्ट्रवाद का अक्सर इस्तेमाल एक राजनीतिक हथियार के रूप में वर्चस्वशाली तबके़ करते हैं जिसमें कोई एक वर्ग या समुदाय इसके नाम पर दूसरे वर्ग या समुदाय पर वर्चस्व की स्थापना करता है। वह इस सिद्धांत में विश्वास करते थे कि राष्ट्रवाद प्रभुत्वशाली वर्गों को एकजुट करके एक राजनीतिक समुदाय की एक भ्रांत अनुभूति पैदा करता है। जबकि सच्चाई यह होती है कि एक राजनीतिक समुदाय के नाम पर कुछ समुदाय शेष समुदायों पर अपना वर्चस्व क़ायम करते हैं। इसी सिद्धांत के आलोक में वे भारत के आज़ादी के संघर्ष को भी सबकी आज़ादी के नाम पर द्विज हिंदू उच्च वर्ग के वर्चस्व की स्थापना का प्रयास मानते थे।

उनका मानना था कि ऊंच-नीच के श्रेणीक्रम पर आधारित हिंदू समाज हिंदुत्व के आधार पर कभी भी एक ऐसे राष्ट्र के रूप में एकजुट नहीं हो सकता, जिसमें सबकी समान सहभागिता हो, जिसमें सभी लोग ऐक्य की भावना महसूस करें। सामूहिक ऐक्य की भावना की अनिवार्य शर्त है कि जाति और जातिवादी पितृसत्ता का समूल नाश हो। इसी अर्थ में वे भारत के एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होने की समस्या को राजनीतिक कम, सामाजिक और आर्थिक अधिक मानते थे। उनके लिए राष्ट्रवाद ज़्यादा लोगों के समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। इन्हीं बंधनों के कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्हें आत्मनिर्णय के आधार पर अपने संप्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात् ‘राष्ट्र’ की स्थापना करने का अधिकार है। लेकिन ये सारे तत्व ही हिंदुत्व आधारित राष्ट्र और राष्ट्रवाद में ग़ायब है। इसी कारण से उन्होंने चेतावनी दी थी कि ‘सामाजिक एकजुटता के बग़ैर राजनीतिक एकता हासिल करना मुश्किल होगा।

अगर वह हासिल कर भी ली जाती है तो उसका बच पाना उतना ही अनिश्चित होगा, जितना कि गर्मी में लगाए गए एक छोटे-से पौधे का, जिसे प्रतिकूल दुनिया की हवा का एक झोंका कभी भी उखाड़ देगा। महज राजनीतिक एकता से भारत एक राज्य बन सकता है लेकिन राज्य होने का मतलब राष्ट्र होना नहीं है और जो राज्य, राष्ट्र नहीं होता, उसका अस्तित्व में बने रहने की संभावना कम ही होती है। यह विशेष तौर पर आज सही है जब सब जगह राष्ट्रवाद, जो आधुनिक काल की सबसे गतिशील शक्ति है, मिश्रित राज्यों को नष्ट कर रहा है। मिश्रित और साझा संस्कृति वाले राज्यों को बाहरी आक्रमण से उतना ख़तरा नहीं है, जितना कि जबरन लादे जाने वाले, दमित और खंडित राष्ट्रीयताओं के पुनरुत्थान से।’ आंबेडकर भारतीय राष्ट्र की समस्या को राजनीतिक समस्या कम सामाजिक समस्या अधिक मानते थे।

कमोवेश यही सोच रवींद्रनाथ टैगोर की भी थी, उनका मानना था, ‘भारत की समस्या राजनीतिक नहीं, सामाजिक है। यहां राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है। हक़ीक़त तो यह है कि यहां पर पश्चिमी देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद का प्रचार करेंगे, तो यह काम होगा कैसे।’ रवींद्रनाथ टैगोर की इस बात को और भी मूर्त रूप में आंबेडकर ने इन शब्दों में अभिव्यक्त किया, ‘इस भूमि को मातृभूमि या पितृभूमि कहने या हिंदू बंधु का नारा लगाने से कुछ नहीं होगा। भारत को राष्ट्र बनाने के लिए उसके सामाजिक ढांचे और सामाजिक मूल्यों में आमूलचूल परिवर्तन ज़रूरी है।’

भारत के हिंदुत्ववादी ढांचे को सिद्धांततः और औपचारिक तौर पर ही सही बदलने का एक अवसर आंबेडकर को संविधान सभा के एक सदस्य और प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में प्राप्त हुआ। हज़ारों वर्षों बाद यह संविधान एक ऐसे दस्तावेज़ के रूप में सामने आया, जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि यह देश किसी धर्म या धर्मशास्त्र के आधार पर नहीं, बल्कि आधुनिक मूल्यों पर आधारित संविधान के अनुसार चलेगा। साथ ही यह भी घोषणा की गयी कि राज्य संचालन में धर्म की कोई भूमिका नहीं होगी, धार्मिक अल्पसंख्यकों को इस देश में बराबरी का हक़ प्राप्त होगा, कुछ मामलों में विशेषाधिकार भी। यह दीगर बात है कि यह एक औपचारिक घोषणा थी, भारतीय समाज असल में मध्यकालीन मूल्यों से ही संचालित होता रहा जिसमें जाति, पितृसत्ता और गै़र हिंदुओं से नफ़रत बुनियादी बात थी। न केवल समाज, बल्कि जिन लोगों के हाथ में सत्ता आयी थी, उनका एक बड़ा हिस्सा उच्च जातीय, उच्च वर्गीय हिंदू मानसिकता से ग्रस्त था।

इसकी सबसे ठोस अभिव्यक्ति तब हुई, जब हिंदू महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाने और इसके माध्यम से जात-पात का बंधन तोड़ने की एक कोशिश के तहत आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया, ताकि संविधान में कही गयी सैद्धांतिक बातों को क़ानूनी स्वरूप दिया जा सके। यह बिल पेश होते ही हाय-तौबा मच गयी, ऐसा करने वालों में सिर्फ़ आरएसएस या हिंदूवादी संगठनों के लोग नहीं थे, बल्कि राजेंद्र प्रसाद और सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे कांग्रेस के महारथी भी थे। फिर एक बार आंबेडकर को कट्टरतावादी हिंदुओं और कांग्रेस के नरम हिंदुत्व के बीच की एकता से रूबरू होना पड़ा। फिर भी संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के माध्यम से राजनीतिक तौर पर सबको समान तो घोषित ही कर दिया। एक हद तक राजनीतिक समानता क़ायम हो गयी। लेकिन जैसा कि पहले आंबेडकर को उद्धृत करते हुए यह कहा जा चुका है कि राजनीतिक समानता के आधार पर भीतरी तौर पर एकताबद्ध राष्ट्र या देश नहीं बनता है, इसकी आवश्यक शर्त होती है कि वास्तविक जीवन में राजनीतिक समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा क़ायम हो।

भारत को एकताबद्ध राष्ट्र या देश बनाने के लिए बहिष्कृत भारत के लोगों और बहिष्कृत करने वाले भारत के लोगों के बीच के हर प्रकार के बंटवारे को तोड़ना और हर प्रकार की खाईं को पाटना ज़रूरी था। आंबेडकर इस बंटवारे और खाई का कारण सामाजिक और आर्थिक दोनों मानते थे। उन्होंने संविधान सभा में चेतावनी देते हुए कहा कि, ‘हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। हमें यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए कि सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र जीवित नहीं रहा सकता…भारत का समाज एक सोपानिक असमानता की भित्ति पर खड़ा है, जिसमें कुछ लोगों को ऊंचा समझा जाता है और दूसरे को हीन मान लिया जाता है।

आर्थिक दृष्टि से यह एक ऐसा समाज है जिसमें कुछ लोगों के पास बेपनाह संपत्ति है जबकि बाक़ी लोग बेतहाशा ग़रीबी का जीवन गुज़ारते हैं, …26 जनवरी 1950 को जब हमने एक लोकतांत्रिक संविधान को अंगीकार किया, तो यह अंतर्विरोधी क़दम था…इससे राजनीतिक जीवन में तो समानता क़ायम हो जायेगी, परंतु सामाजिक और आर्थिक जीवन में गै़र-बराबरी रहेगी। राजनीति में तो हम एक वोट-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देते रहेंगे, लेकिन सामाजिक-आर्थिक संरचना की बाध्यता के कारण हम इन क्षेत्रों में व्यक्ति की गरिमा को नकारते रहेंगे। आख़िर अंतर्विरोधों से भरे इस जीवन को हम कब तक खीचेंगे? अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में हम कब तक समानता से कन्नी काटते रहेंगे? अगर हम लंबे समय तक यह रवैया अपनाये रहे, तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र निस्संदेह ख़तरे में पड़ जायेगा।’

दुर्भाग्य है, लेकिन ठोस तथ्य है कि आज़ादी के बाद से निरंतर यह देश सामाजिक और आर्थिक समानता से कन्नी काटता रहा, आंबेडकर की चेतावनी सही साबित हो रही है, हमारा राजनीतिक लोकतंत्र भी ख़तरे में पड़ गया है। एक ऐसा संगठन और पार्टी भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति की नियंता बन चुकी है, जो अपने सामाजिक-सांस्कृतिक विचार और मूल्य के तौर पर मध्यकालीन बर्बर मूल्यों की हिमायती है और आर्थिक तौर पर देश को देशी-विदेशी कारपोरेट को सौंपे दे रही है। 

हिंदू राष्ट्र की परियोजना में देश के कार्पोटाइजे़शन, जाति, पितृसत्ता और अन्य धर्मावलंबियों के प्रति घृणा का एक  ज़हरीला मेल तैयार हुआ है। विकास के नाम पर कार्पेटाइज़ेशन और हिंदुत्व के नाम पर मुसलमानों के प्रति घृणा इसके बाहरी तत्व हैं, तो उच्च जातीय द्विज विचारधारा और मूल्य तथा जातिवादी पितृसत्ता इसके अंतर्निहित आंतरिक तत्व हैं। हिंदू राष्ट्र और हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का मतलब है, इन सभी तत्वों के ख़िलाफ़ संघर्ष। इनमें किसी को स्वीकार करके या किसी से समझौता करने से हिंदू राष्ट्र की परियोजना के ख़िलाफ़ संघर्ष को मुकम्मल शक्ल नहीं दी जा सकती।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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