Friday, March 29, 2024

जन्मदिन पर विशेष: अमीर ख़ान; राह चलता फकीर जिसका जहान संगीत में ही बनता, खुलता और बंद होता था!

अमीर ख़ान का गाना सुनते हुए आप सबसे पहले क्या राय बनाते हैं उनके बारे में? क्या बना सकते हैं? मुझे प्रमोद कौंसवाल भाईसाब से सबसे पहले उनका नाम पता चला और गायन भी। फिर दिल्ली में मंगलेश जी के पास रहकर संगीत को सुना, डूबा, समझने का प्रयत्न किया और निकला। 

ये इंसान इतनी आसमानी तल्लीनता से गा रहा है, इसका गाया समझ नहीं आ रहा है फिर भी ये ऐसा क्यों लग रहा है कि हमें कुछ बता रहा है। अमीर ख़ान बताते हुए गाते हैं। वे जैसे कविता पाठ करते हैं। उनका गायन ही उनकी कविता है। या उनकी कविता ही उनका गायन है। अमीर ख़ान आलंकारिक नहीं हैं। न शब्दों में न गायन में।

आप आख़िर क्या कह रहे हैं अमीर ख़ान साब? आप क्यों इतनी तानें लेते हुए जैसे हमें जगा ही देना चाहते हैं। हम क्या करें। 

अमीर ख़ान क्या करें की छूट को न मानने वाले और इससे निजात दिलाने वाले गायक हैं। वे चाहते हैं कि ऐसी नौबत हम अपने पास न ही रखें तो अच्छा। वो किसी रूमानियत या अध्यात्म के हवाले कर देने वाली गायकी नहीं है, वो एक कठिन श्रम की पुकार है। वो आपको मेहनत और धीरज और इम्तहान और संघर्ष और संयम और उदारता के बारे में बताती है। वो कपट पर झपटती नहीं है, ख़ुद ब ख़ुद वो गिर जाता है जैसे सूखी हुई नष्ट हुई त्वचा। अमीर ख़ान को सुनते हुए आप एक नये मनुष्य बन सकते हैं। 

वो तो जैसे राह चलता कोई फ़कीर है जिसका तमाम जहान संगीत में ही बनता खुलता और बंद होता है। राह चलते ही तो वो इस दुनिया से फ़नां हुए। इतनी पास होकर भी इतनी अपनी होती हुई भी वो आवाज़ दूर क्यों थी हमसे। क्यों उसमें एक अलगाव था सबसे। क्या हमने उस आवाज़ को ठीक से नहीं जाना था। क्या हम मूर्खता के शिकार थे जो हमसे एक आवाज़ को सिर नवाना गंवारा न होता था।

अमीर ख़ान साब की गायकी बहुत तड़पाती है। मेरे सारे गुन अवगुन आ जाते हैं। मैं परेशान हो जाता हूं। मैं इधर से उधर घूमता हूं। वो मुझसे सवाल मांगने लगती है। अचानक मुझे लगने लगता है कि मैंने कभी कुछ ग़लत किया होगा। क्या किसी का दिल दुखाया होगा। मुझे न जाने क्यों अपने बहुत सारे गुनाह याद आने लगते हैं। जो मैंने नहीं किए होते है। मैं इस संगीत को बंद भी नहीं करना चाहता। मैं चाहता हूं एक एक कर वो सब याद करूं कि कब मैंने क्या किया। किसी से कुछ ग़लत कहा किसी के साथ कुछ ग़लत किया।

अमीर ख़ान जैसे जंगल में भटक गए राहगीर की तरह पेश आते हैं। डर, आशंका और उधेड़बुन, विकलता और निकलने की छटपटाहट। घेरा तोड़ देने की कोशिश। अमीर ख़ान तानों के घेरे बनाते हैं और उन्हें ही फिर पायदान बनाकर दूसरी तरफ़ उतर जाते हैं। नयी तानों, नये मैदानों, नयी गहराइयों की ओर। इस तरह इतना आना जाना इतना चढ़ना उतरना इतनी शांत बेसब्री और इतने घेराव और इतने वृत्त हैं उनके गायन में कि हवाओं की सरसराहटें भी आप वहां सुन सकते हैं, अमीर ख़ान के भीतर से निकलती एक और अमीर ख़ान की कुछ आवाज़ें आती हैं, वो एक बहुत मद्धम आवाज़ है जैसे कोई संत ध्यान में कुछ बुदबुदा रहा है। उसे किसी ख़लल की परवाह नहीं रहती। 

मुझे बार-बार वो तस्वीर याद आती है, अमीर ख़ान के तान पुरे के नीचे उनका बेटा लेटा हुआ है। गहरी नींद में। और वो गा रहे हैं।

अमीर ख़ान की गायकी की छाया में हम लोगों ने प्रेम किया और तड़पे। सवाल ढूंढे, सवाल पूछे। रुके, दौड़े, सहमे, संकोच किया। हम पर जब बदक़िस्मती या नाइंसाफ़ी की मार पड़ी तो हमने अमीर ख़ान को सुना। हमने अपने बहुत ख़ुशी भरे क्षण में और बहुत निराशा और पराजय के मौक़ों पर उस आवाज़ की स्थिरता और अविचलता में अपनी डगमगाहटें गिरा दीं। 

टीवीआई चैनल के दिनों में अक़्सर सोचता था कि राजीव मित्तल का चेहरा अमीर ख़ान से कितना मिलता है। वरिष्ठ पत्रकार, संगीत के अटूट प्रेमी और दोस्ती के सरताज। सोचता था कि कोई फ़िल्म अगर अमीर ख़ान पर बने तो राजीव कितना सही क़िरदार होते। एक दिन मैंने रियाज़ करते अपने बेटे के चेहरे पर अमीर ख़ान का चेहरा उभरते देखा। क्या ये मेरी लालसा थी, या ये अमीर ख़ान से जुड़ा अटूट ख़्याल कि हर कहीं वो उभरते हुए दिख ही जाते हैं।

हिंदी में पहली बार, वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी के संपादन में जलसा पत्रिका का अमीर ख़ान साब पर विशेष अंक निकाला गया था। पत्रिका के मुखपृष्ठ कवर में जो तस्वीर है उसमें वे सब चीज़ें मानो पहले ही नुमायां हैं जो यहां लिखी गयी हैं। या आगे कभी लिखी जाएंगी। 

सही तो है.. अमीर ख़ान ने जो गाया। जग बावरा। जग बावरा ही तो है। वरना ऐसी कमदिली, ऐसी मूर्खताएं कहां नज़र आतीं। ऐसी हिंसाएं। ऐसा कपट ऐसी बेईमानियां। 

जयपुर में एक बार एक कला सेमिनार में समकालीन कला पर अपना पर्चा पढ़ने गया था। लंच के बाद मेरी बारी थी। लंच के दौरान बगल की मेज पर बैठे देश के दूसरे हिस्सों से दो कलाकारों की बातें सुनने को मिलीं, कान तब खड़े हुए जब एक सज्जन अमीर ख़ान की गायकी के बारे में बताते हुए कह रहे थे कि वो साब बड़े घमंडी और तुनकमिज़ाज भी थे। गा रहे हैं, और बीच में रुककर कुछ कह पड़ रहे हैं। ये क्या बात हुई। समझाने लगते हैं, उनकी रिकॉर्डिंग सुन लीजिए आदि आदि।

लंच के बाद कम रह गये श्रोताओं में वे दो सज्जन भी थे और मेरे पर्चे में एक जगह अमीर ख़ान का ज़िक्र आया तो इस दफ़ा उनके कान खड़े हुए और वे मेरी ओर गौर से देखने लगे। मैंने भी उन्हें भरपूर घूरा। मेरा कहना था कि अमीर ख़ान के संगीत का अमूर्तन कला के अमूर्तन से न सिर्फ़ जुड़ता है बल्कि कोई कलाकार ऐसी कोशिश क्यों नहीं करता कि उनकी गायकी को कैनवास पर उतारने का जोखिम मोल ले सके। क्या ये संभव है या एक खामख्याली है। 

हम जैसे संगीत प्रेमी तो उनके रिकॉर्डिंग सुनते हुए ही बड़े हुए हैं, अपने वरिष्ठों के कुछ अनुभवों संस्मरणों या उन्हें उनके वरिष्ठों से मिली सूचनाओं के आधार पर अमीर ख़ान की शख्सियत का कुछ पता चल पाता है। लेकिन अपना एक अनुभव तो आप उन्हें धीरता पूर्वक सुनकर ही बना सकते हैं। यही हमने किया। 

अत्यधिक निराशा में अमीर ख़ान संबल बनकर आते हैं। कैसे सुख सोवे….बिहाग में ये बंदिश उनकी आवाज़ में एक नयी विकलता से भर देती है। अपनी निराशा कमतर और फ़िजूल और अपनी बनायी हुई लगती है। आत्मदया का पर्दाफ़ाश हो जाता है। हमारी तमाम कलाओं में आख़िर कहां वे औजार छिपे हैं जो हमें आत्मदया से निकाल लें। और हमें मनुष्यता की सामर्थ्य से भर दें। ख़ुद पर दया करने से रुको, डरो मत, मेहनत करो, सपने देखो, प्रेम करो, प्रतिरोध में रहो, नाइंसाफ़ी से लड़ो, लिखो और पढ़ो और सोचो और सुनो। मनुष्य हो और मनुष्य बनो।

जग बावरा सुनते हुए मुझे अहसास हुआ कि अरे अमीर ख़ान तो सदियों का हिसाब लिखने बैठ गए। और लिखते ही चले जाते हैं। धीरे-धीरे। चुपके-चुपके। ऐसा इतिहासकार विरल ही है। गाता संगीत है लेकिन सोचता समय है। अमीर ख़ान का मारवा समकालीन इतिहास का एक अलग ही स्वरूप हमारे सामने पेश करता है। ये एक नया मुज़ाहिरा है। है तो कुछ पुराना लेकिन ये सुने जाते हुए नया ही हो उठता है। समीचीन। समसामयिक। जैसे समकालीन साधारण इंसान का आर्तनाद। 

अमीर ख़ान का मारवा जैसे एक-एक कर सारे हिसाब बताता है। हमारी बुनियाद बताता है। हमारी करुणा। फिर हमारी नालायकी और बदमाशी के क़िस्से वहां फंसे हुए हैं। सारी अश्लीलताएं जैसे गिरती हैं और फिर आप सामने होते हैं। सच्चे हैं तो सच्चे, झूठे हैं तो झूठे। सोचिए क्या किसी के गा भर देने से ये संभव है। 

लेकिन असल में ये गायन सिर्फ़ सांगीतिक दुर्लभता या विशिष्टता की मिसाल नहीं है, ये जीवन और कर्म और समाज के दूसरे पैमानों पर भी उतना ही खरा उतरता हुआ है। वो स्थिर आवाज़, विचलित होती हुई, दाद से बेपरवाह लेकिन टिप्पणी करती हुई, अपने रास्ते के धुंधलेपन को आप ही साफ़ करती हुई, एक निर्भीक स्पष्टता के हवाले से, एक निस्वार्थ मारवा। 

आज के दौर में, जब बहुसंख्यक हिंसाएं हम पर आमादा हैं, लोग टूटे पड़ रहे हैं या धकेले जा रहे हैं या बदहवास हो चुके हैं, सूचना क्रांति के बाद ज्ञान का विस्फोट दिलोदिमाग उड़ाए दे रहा है, और महाकवि निराला के शब्दों में गहन है अंधकारा तब ऐसे विषम में अमीर ख़ान जैसी महान आत्माओं की रचनाएं ही हिफ़ाज़त करेंगी और तैयार करेंगी। अपना ख़याल दुरुस्त रखने की बात है बस।

(शिव प्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार, कवि और गद्यकार हैं मूल रूप से उत्तराखंड के रहने वाले जोशी आजकल जयपुर में रह रहे हैं।)

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