Friday, March 29, 2024

एक रूह जो फना हो गयी गंगा-जमुनी तहजीब का बीज बो कर

सालों पहले की बात है। हमारी दोस्त अर्चना हजरत निजामुद्दीन की दरगाह जाना चाहती थीं। सो, एक दोपहर हम वहां पहुंच गए। हजरत की दरगाह पर दुआ करने की चाहत तो होती ही है। हम अमीर खुसरो की मजार को लेकर खासा खुश थे। उनकी मजार पर भी दुआ करना चाहते थे हम। खुसरो साहब की मजार के बाहर लगी तख्ती से अर्चना मायूस हुईं। औरतें वहां दुआ नहीं कर सकती थीं। थोड़ा उखड़ने के बाद उसने मुझसे कहा कि तुम ही दुआ कर लो। कुछ चढ़ा दो। खैर, मैंने उनकी मजार पर दुआ की, चढ़ावा चढ़ाया। उस शख्स की मजार पर औरतें नहीं जा सकतीं, जिसने उनके दुखदर्द को गजब आवाज दी थी। खुसरो साहब की मजार पर जितनी देर मैं रुकना चाहता था। दुआ और ध्यान करना चाहता था। उस पर असर पड़ा। खैर…।

खुसरो हमारे लिए एक रोमांस हैं। वह हमारे दिलोदिमाग पर छाए रहते हैं। हमारी खड़ी बोली के आदि कवि हैं। खुसरो ने हमारे समाज को बहुत कुछ दिया है। हम जिसे गंगा जमुनी तहजीब कहते हैं, उसके सबसे बड़े रचनाकार हैं वह। उस तहजीब को इतने सलीके से लिखा है उन्होंने। उनका लिखा उस तहजीब की मिसाल बन गया। वह तहजीब पर लिख रहे थे और उसे गढ़ भी रहे थे। हमारा समाज, रीति रिवाज, त्योहार, शादी ब्याह उनके लेखन में गजब का उभर कर आए हैं। खुसरो ने दोहे लिखे। गजल लिखीं। मसनवी लिखीं। कव्वाली के लिए उन्हें याद किया ही जाता है। ख्याल गायकी को उनसे जोड़ा जाता है। सितार उनकी देने कही जाती है। क्या-क्या किया खुसरो ने। वह तो अपने आप में समाज हैं। 

बहुत कुछ दिया खुसरो ने लेकिन अपना लोक तो उन्हें बाबुल गीतों के लिए याद रखता है। वह गीत तो लोक का हिस्सा हो गए हैं। उनके बाबुल गीत सचमुच लाजवाब हैं। बेटी का दर्द उसमें बखूबी उभर कर आया है। खासतौर से शादी के बाद की बिटिया को शायद ही उनसे बेहतर किसी ने समझा हो। काहे को ब्याही बिदेस तो ऐसा विदाई गीत है जो जन जन की जुबान पर रहा है। कई औरतों को मैंने देखा है जो उस गीत को सुन ही नहीं पातीं। इतनी भावुक हो जाती हैं वह। अब बेटी विदा ले रही है। और खुसरो लिख रहे हैं- 

बहोत रही बाबुल घर दुल्हिन, चल तोरे पिए ने बुलाई।

बहोत खेल खेली सखियन से, अंत करी लरिकाई।

अंत में 

खुसरो चली ससुरारी सजनी, संग नहीं कोई आई।

बेटी ससुराल आ गई है। काफी दिन हुए मायके नहीं गई। ऐसे में सावन भी आ गया। खुसरो एक और महान गीत लिखते हैं- अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया।

एक औरत के दुख दर्द को क्या बयां किया है खुसरो ने। यह कहने की जरूरत नहीं कि एक समाज को समझने के लिए उसकी औरतों को समझना कितना जरूरी है। वह आधी दुनिया को समझ लेने जैसा है।

खुसरो ने कमाल की दुनियावी जिंदगी जी थी। कई बादशाहों के दरबार में वह रहे थे। कहते हैं उन्होंने सात सल्तनत देखी थी। लेकिन आखिरकार उन्हें सुकून और मकसद हजरत के पास आ कर मिला। रुहानी जिंदगी में वह रम गए। दरबारों में ही रहने के बावजूद खुसरो कैसे अपने समाज को देख समझ पाए। इतनी नजदीकी से उनके सुख-दुख को देख पाए। फिर उसे उतनी ही खूबी से कह भी पाए। हजरत का असर उन पर रहा। शायद वही असर था कि वह अपने समाज को पूरी संजीदगी से देख पाए।

हजरत अक्सर कहते थे कि ख़ुदा से इश्क तभी हो सकता है, जब उसके बंदों से भी हो। हजरत अक्सर शेख जुनैद की बात दोहराते थे। जुनैद का कहना था, ‘मुझे खुदा मदीना की गलियों में गरीबों के बीच मिला है।‘ अपने समाज को समझने के लिए हमें उससे प्यार करना होता है। खुसरो अपने समाज और अपने लोक से प्यार कर रहे थे। तभी वह ऐसा कुछ लिख सके, जिसे हम आज तक गुनगुनाते हैं।

वह समझते थे कि यह जिंदगी क्या है? और जिस जिंदगी की चाह रखते थे, उसकी डगर बड़ी कठिन है। हबीब पेंटर कव्वाल याद आ जाते हैं। क्या कव्वाल थे वह। ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की।‘ कठिन डगर की बात करने के बाद खुसरो प्रेम के दरिया की बात करते हैं। क्या उलटबांसी है-

खुसरो दरिया प्रेम का, सो उलटी वाकी धार।

जो उबरो सो डूब गया, जो डूबा हुवा पार।

खुसरो सचमुच उस प्रेम के दरिया में डूब गए थे। उसकी उलटी धार को समझ लिया था उन्होंने। डूब गए थे सो पार भी हो गए। हजरत ने उन्हें प्रेम के दरिया में डुबो दिया था। रुहानी रास्ता दिखा दिया था। खुसरो उस रुहानी दरिया में डूबे भी और धीरे-धीरे अपनी तमाम जिस्मानी पहचान को मिटाते चले गए। ‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाएके।‘

अब हजरत ने उनसे सब छीन लिया है। उनका वजूद या अस्तित्व ही नहीं रह गया है। एक रुहानी शख्सियत से मिलने के बाद हम फिर हम कहां रह जाते हैं? वह हमारे अपने भीतर से रूबरू होने का पल होता है। और हम जब भीतर की रास्ते पर चल पड़ते हैं तो फिर बाहरी किसी चीज की जरूरत नहीं रह जाती। आखिर उस पहचान की जरूरत ही क्या है? वह तो बाहरी पहचान है। एक अलग मायने में माया है। हम जब अपने भीतर से भटकते हैं, तब बाहर ही बाहर देखते हैं। बाहर को ही जीने लगते हैं।

आजकल अमीर खुसरो का उर्स चल रहा है। उर्स यानी पुण्यतिथि। इधर कोरोना के चलते उनकी मजार पर कोई जश्न नहीं हो रहा है। लेकिन लोग अपनी तरह से उन्हें याद कर ही रहे हैं। उर्स का मतलब होता है ब्याह। यह क्या बात हुई? आप दुनिया से जा रहे हैं और ब्याह का माहौल है। यह सूफी फलसफा है। आप अपने पिया से मिलने जा रहे हैं? उसकी बिछुड़न अब जाकर दूर हो रही है। अपने पिया में मिल जाना ही तो जिंदगी की मंजिल है। जिंदगी भर उसकी बिछुड़न का दर्द झेला है। कबीर भी तो कहते हैं ‘हरि मेरा पिउ मैं हरि की बहुरिया।‘ सारा साज सिंगार उसी पिया के लिए है। पूरी जिंदगी उससे मिलन की चाह रही है। अब जब उससे मिलने जा रहे हैं तो फिर दिक्कत क्या है? दुख काहे बात का है। यह तो मातम का नहीं जश्न का वक्त है। दरिया समंदर से मिलने जा रहा है। पिंड ब्रह्मांड में मिल रहा है। यही तो अद्वैत है। वहदत है।

खुसरो ने अपने हजरत की मौत को महसूस किया था। उनके जाने की खबर सुन कर वह दौड़े-दौड़ आए थे।

गोरी सोए सेज पर मुख पर डारे केस।

चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।

और खुसरो सब छोड़ कर अपने घर यानी हजरत की खानकाह में चले आए। सब छोड़ दिया उन्होंने। वह फिर कहीं नहीं गए। उसके बाद छह महीने ही वह जिए। अपने महबूब ए इलाही से मिलने चले गए। अपने पिया के हो गए। हजरत के बिना वह जीना नहीं चाहते थे। हजरत के साथ ही उनकी मजार है। इससे बेहतर रिश्ता मुर्शिद और शागिर्द का नहीं हो सकता।

(राजीव कटारा कादंबिनी में एसोसिएट एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक वाल से साभार लिया गया है।)

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