Friday, March 29, 2024

पुण्यतिथि पर विशेष: वर्गीय शोषण और जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष के बड़े नायकों में शामिल थे लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे

अण्णा भाऊ साठे की पहचान पूरे देश में एक लोकशाहीर के तौर पर है। खास तौर पर दलित, वंचित, शोषितों के बीच उनकी छवि एक लोकप्रिय जनकवि की है। उन्होंने अपने लेखन से हाशिये के समाज को आक्रामक जबान दी। उनमें जन चेतना फैलाई। उन्हें अपने हक के लिए जागरूक किया। सोये हुए समाज में सामाजिक क्रांति का अलख जगाया। देश के स्वतंत्रता आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और गोवा मुक्ति आंदोलन इन सभी आंदोलनों में अण्णा भाऊ साठे की सक्रिय भागीदारी थी। देशवासियों के अधिकारों और न्याय के वास्ते एक कलाकार के तौर पर वे हर आंदोलन में हमेशा आगे-आगे रहे। उनके लिखे पावड़े, लावणियां मुक्ति आंदोलनों को एक नई ऊर्जा और जोश पैदा करते थे।

महाराष्ट्र में दलित साहित्य की शुरूआत करने वालों में भी अण्णा भाऊ साठे का नाम अहमियत के साथ आता है। वे दलित साहित्य संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। इसके अलावा भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने उन्हें जो जिम्मेदारियां सौंपी, उन्होंने उनका अच्छी तरह से निर्वहन किया। लोकनाट्य ‘तमाशा’ के मार्फत अण्णा भाऊ ने दलित आंदोलन के संघर्षों को अपनी आवाज दी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने लाल झंडे के गीत, मजदूरों के गीत लिखे, तो दलित आंदोलन के संघर्षों को भी अपनी आवाज दी। पावड़े और लावणियों में वे गरीबों और वंचितों की कहानी कहते थे। जिसका जनमानस पर गहरा असर होता था। 

1 अगस्त, 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले की वालवा तहसील के वाटेगांव के मांगबाड़ा में एक दलित परिवार में जन्मे, अण्णा भाऊ साठे का पूरा नाम तुकाराम भाऊ साठे था। वे ‘मांग’ (मातंग) जाति से थे और अंग्रेज हुकूमत की नजर में यह अपराधी जाति थी। औपनिवेशिक सरकार ने पूरी ‘मांग’ जाति को ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट, 1871’ के अंतर्गत अपराधी घोषित किया हुआ था। उस दौर में ‘मांग’ जाति के लोगों का मुख्य काम गांव की पहरेदारी करना होता था। जाहिर है कि अण्णा भाऊ को बचपन से ही समाज में छुआछूत, असमानता और भेदभाव का सामना करना पड़ा। जातिगत भेदभाव की वजह से वे स्कूल में पढ़ाई नहीं कर पाये। जिसका उनके दिलो दिमाग पर गहरा असर पड़ा।

उन्होंने जो भी सीखा, वह जीवन की पाठशाला से सीखा। अण्णा का दिमाग तेज था और याददाश्त गजब की। बचपन से ही उन्हें अनेक लोकगीत कंठस्थ थे। ‘भगवान विठ्ठल’ की सेवा में वे अभंग गाया करते थे। जिनमें जातीय ऊंच-नीच को धिक्कारा गया था और बराबरी का पैगाम था। आजादी के पहले महाराष्ट्र में जब भयंकर सूखा पडा, तो रोजगार की तलाश में उनके पिता भाऊराव साठे मुंबई पहुंच गए। पिता के साथ अण्णा भाऊ ने भी जीवन के संघर्ष के लिए कई छोटे-मोटे कार्य किए। जीवन-संघर्ष के बीच पढ़ना-लिखना सीखा। 

अण्णा भाऊ साठे, लोकनाट्य ‘तमाशा’ से कैसे जुड़े ?, इसका किस्सा कुछ इस तरह से है, उनके निकट के रिश्तेदार बापू साठे एक ‘तमाशा’ मंडली चलाते थे। गाने-बजाने का शौक, अण्णा को उन तक ले गया और वे भी ‘तमाशा’ से जुड़ गए। इस बीच एक ऐसा वाकया हुआ, जिससे अण्णा भाऊ के सोचने और जिंदगी के प्रति उनका पूरा नजरिया ही बदल गया। ‘तमाशा’ मंडली को एक गांव में कार्यक्रम करना था। ‘तमाशा’ शुरू होने से पहले मंच पर महाराष्ट्र में ‘क्रांति सिंह’ के नाम वाले मशहूर क्रांतिकारी नाना पाटिल पहुंचे। उन्होंने इस मंच से ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों का खुलासा करने वाला जोरदार भाषण दिया।

मिलों-कारखानों में मजदूरों-कामगारों के शोषण पर बात की। सरमाएदारों की पूंजीवादी नीतियों की भर्त्सना की। जाहिर है कि इस भाषण का अण्णा भाऊ साठे के मन पर काफी प्रभाव पड़ा। भाषण से जैसे उन्हें भविष्य के लिए, एक नई दिशा मिल गई। कला का उद्देश्य, समझ में आ गया। कला से सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, समाज को बदला भी जा सकता है। इससे उन्हें एक तालीम दी जा सकती है। जब एक बार अण्णा भाऊ साठे की यह सोच बनी, तो उनका जीवन भी बदल गया। यह अण्णा के ‘लोकशाहीर’ (लोककवि) बनने की दिशा में पहला कदम था। 

अण्णा भाऊ साठे की बुलंद आवाज, याद करने की अद्भुत क्षमता, सभी वाद्य यंत्रों मसलन हारमोनियम, तबला, ढोलकी, बुलबुल को बजाने की कुशलता, किसी भी तरह का रोल करने की योग्यता और निरंतर सीखने, नए-नए प्रयोग करने की सलाहियत ने उन्हें कुछ समय में ही ‘तमाशा’ नाट्य मंडली का नायक बना दिया। साल 1944 में अण्णा भाऊ ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर ‘लाल बावटा कलापथक’ (लाल क्रांति कलामंच) नामक नई तमाशा मंडली की शुरुआत की। जिसके बैनर पर उन्होंने सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि पूरे देश में घूम-घूकर क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश किए। उस समय देश में आजादी का संघर्ष चरम पर था।

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों में गुस्सा और एक आग थी। जिसे ‘लाल बावटा कलापथक’ ने हवा देने का काम किया। ‘तमाशा’ जनता से संवाद करने का सीधा माध्यम था। ‘लाल बावटा’ के माध्यम से अण्णा भाऊ साठे किसानों, मजदूरों के दुख-दर्द को सामने लाने का काम करते थे। लोगों को आजादी की अहमियत समझाते। उनमें आजादी का सोया हुआ जज्बा जगाते। अधिकारों के लिए संघर्ष को आवाज देते। यही वजह है कि किसानों, मजदूरों और कामगारों में अण्णा भाऊ साठे की लोकप्रियता बढ़ती चली गई। लोग उन्हें ‘शाहीर अन्ना भाऊ साठे’ और ‘लोकशाहीर’ कहकर पुकारने लगे।

इस बीच अण्णा भाऊ साठे मुंबई की एक मिल में काम करने लगे। जहां मजदूरों की समस्याओं से उनका सीधा परिचय हुआ। मिल में मजदूरी करते हुए, वे कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और उसके सक्रिय सदस्य बन गए। बाद में पार्टी के आनुषंगिक संगठन इप्टा के भी सरगर्म मेंबर बन गए। वामपंथी विचारों और जीवन शैली से उनकी सोच में बहुत बड़ा बदलाव आया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समतावादी विचारों से उनकी एक नई शख्सियत बनी। अण्णा भाऊ के जिम्मे पार्टी और उसकी विचारधारा को अवाम तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य था। ‘तमाशा’ जो महाराष्ट्र का पारम्परिक लोक नाट्य था, इसके वे शानदार कलाकार और प्रस्तुतकर्ता थे। तमाशे में अन्ना भाऊ अकेले गाते थे।

वे जनता से उसी भाषा में संवाद करते। जिसका असर यह होता कि ये लोकगीत जन-जन की जबान पर आ जाते। अपने इन लोकगीतों में वे मुंबई में बसे कामगारों की जिंदगानी की परेशानियों और दुःख का जीवंत चित्रण करते, जो लोगों को अपना सा लगता और वे इन गीतों से उनके साथ जुड़ जाते। इप्टा में खास तौर से फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के संपर्क में आकर, अण्णा भाऊ साठे की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों पर एक अच्छी समझ बनी। जिसका इस्तेमाल आगे चलकर उन्होंने अपने लोकनाट्य ‘तमाशा’ और ‘पौवाड़ा’ में किया। वामपंथी लीडर पीसी जोशी ने बलराज साहनी और अण्णा भाऊ साठे के आपसी रिश्तों के बारे में अपने एक लेख में लिखा है,‘‘अण्णा भाऊ, बलराज की हर बात को उत्सुकता से ग्रहण करते थे और अन्य महाराष्ट्रीय साथियों, बुद्धिजीवियों, कामगारों के साथ भी विचार विमर्श करते थे।

दिमाग में नये-नये विचार लेकर वह एक के बाद एक ‘तमाशा’ रचने लगे।’’ एक वक्त ऐसा भी आया कि अण्णा भाऊ साठे की सांस्कृतिक टोली में कई प्रतिभाशाली कलाकार अमर शेख, गावनकार आदि साथ-साथ थे। इस ग्रुप की प्रस्तुतियां मजदूर वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक को प्रभावित करती थीं। अण्णा भाऊ ने इप्टा के लिए अनेक मानीखेज गीत भी लिखे। कोई भी परिस्थिति हो, वे हर परिस्थिति के लिए गीत लिखने में माहिर थे। लोकगीतों के माध्यम से उन्होंने समतावादी विचारों का प्रचार-प्रसार किया।  

मराठी जबान में एक लंबे अरसे से ‘पवाड़ा’ प्रचलित रहा है, जो एक तरह से लंबी कविता या शौर्यगीत होता है। जिसे कई आदमी एक साथ मिलकर त्योहारों और दीगर दूसरे बड़े मौकों पर गाया करते हैं। पहले इनके विषय ऐतिहासिक या धार्मिक होते थे। अण्णा भाऊ साठे ने इन पवाडे़ के विषयों में आधारभूत बदलाव किया और इनमें देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को समाहित किया। उनमें मजदूरों की हालत, उनकी सियासत और जद्दोजहद, अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन और रूस की साम्यवादी हुकूमत के कारनामे शब्दबद्ध किए।

प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद जहीर ने अपनी किताब ‘रौशनाई : तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में अण्णा भाऊ साठे के कारनामों को याद करते हुए लिखा है,‘‘अण्णा भाऊ साठे ने इस जमाने में कई पवाड़े लिखे। ये मजदूरों के हजारों के मजमे में गाए जाते थे और बेहद मकबूल थे। स्तालिनग्राद की जंग और उसमें हिटलरी फौजों की हार पर जो पवाड़ा था, उसे खास तौर पर मकबूलियत हासिल हुई।’’ अण्णा भाऊ ने यह पवाड़ा साल 1943 के आसपास लिखा था। जिसका अनुवाद रूसी भाषा में भी हुआ। इस पवाड़े के लिखने के बाद उनकी प्रसिद्धि दुनिया भर में फैल गई। 

साल 1945 में अण्णा भाऊ साठे साप्ताहिक अखबार ‘लोकयुद्ध’ से जुड़ गए। यह अखबार साम्यवादी विचारधारा को समर्पित था। अखबार से जुड़कर, उन्होंने आम आदमी की समस्याओं और सवालों को प्रमुखता से उठाया। अखबार में काम करने के दौरान ही उन्होंने ‘अक्लेची गोष्ट’, ‘खार्प्या चोर’, ‘मजही मुंबई’ जैसे नाटक लिखे। अण्णा भाऊ साठे ने अपनी बात, विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य की सभी विधाओं का सहारा लिया। उन्होंने 40 के ऊपर उपन्यास लिखे जिनमें ‘वैजयंता’, ‘माक्दिचा माल’, ‘चिखालातिल कमल’, ‘वार्नेछा वाघा’, ‘वारण का शेर’, ‘अलगुज’, ‘केवड़े का भुट्टा’, ‘कुरूप’, ‘चंदन’, ‘अहंकार’, ‘आघात’, ‘वारणा नदी के किनारे’, ‘रानगंगा’ और ‘फकीरा’ शामिल हैं तो 300 के आस-पास कहानियां लिखीं।

‘चिराग नगर के भूत’, ‘कृष्णा किनारे की कथा’, ‘जेल में’, ‘पागल मनुष्य की फरारी’, ‘निखारा’, ‘भानामती’, और ‘आबी’ समेत अण्णा भाऊ के कुल 14 कहानी संग्रह हैं। वहीं ‘इनामदार’, ‘पेग्यां की शादी’ और ‘सुलतान’ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। अण्णा भाऊ साठे ने ‘तमाशा’ के लिए कई लोकनाट्य भी लिखे मसलन ‘दिमाग की काहणी’, ‘देशभक्ते घोटाले’, ‘नेता मिल गया’, ‘बिलंदर पैसे खाने वाले’, ‘मेरी मुंबई’ और ‘मौन मोर्चा’ आदि। उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। लगभग 250 लावणियां उन्होंने लिखीं। यात्रा वृतांत लिखा। यहां तक कि उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं, जिनमें ‘फकीरा’, ‘सातरा की करामात’, ‘तिलक लागती हूं रक्त से’, ‘पहाड़ों की मैना’, ‘मुरली मल्हारी रायाणी’, ‘वारणे का बाघ’ और ‘वारा गांव का पाणी’ प्रमुख हैं। 

साल 1959 में आया उपन्यास ‘फकीरा’ अण्णा भाऊ साठे की प्रमुख किताब है। यह किताब साल 1910 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले ‘मांग’ जाति के क्रांतिवीर ‘फकीरा’ के संघर्ष पर आधारित है। इस उपन्यास में अण्णा भाऊ ने ‘फकीरा’ के किरदार को शानदार ढंग से लिखा है। ‘फकीरा’ अपने समुदाय को भुखमरी से बचाने के लिए ग्रामीण रूढ़िवादी प्रणाली से तो संघर्ष करता ही है, ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी, विभेदकारी नीतियों का भी विरोध करता है। अवाम को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इकट्ठा कर, उन्हें संघर्ष के लिए आवाज देता है।

उस दौर में भारतीय ग्रामीण समाज के अंदर सामाजिक असमानता, छुआछूत और भेदभाव चरम पर था। सामाजिक रूढ़ियां, इंसान की तरक्की में बाधा थीं। उपन्यास, इन सब इंसानियत विरोधी प्रवृतियों पर प्रहार करता है। इस उपन्यास में अण्णा भाऊ, अछूत जातियों की एकता पर भी जोर देते हैं। ‘फकीरा’ मराठी भाषा में तो लोकप्रिय हुआ ही, आगे चलकर इस उपन्यास का 27 देशी-विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ। साल 1961 में महाराष्ट्र सरकार ने इस उपन्यास को अपने शीर्ष पुरस्कार से सम्मानित किया। अण्णा भाऊ साठे के लेखन की शोहरत जब चारों और फैली, तो उनकी रचनाओं का अनुवाद अनेक भारतीय भाषाओं मसलन हिंदी, गुजराती, बंगाली, तमिल, मलयालम, उड़िया आदि में तो हुआ ही अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, चेक, जर्मन आदि कई विदेशी भाषाओं में भी उनका साहित्य पहुंचा। 

अण्णा भाऊ साठे ने अपने सपनों के देश सोवियत रूस की यात्रा भी की थी। ’इंडो-सोवियत कल्चर सोसायटी’ के रूस बुलावे पर उन्होंने इस साम्यवादी देश की यात्रा की। यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने एक सफरनामा ’माझा रशियाचा प्रवास’ लिखा। जिसमें इस यात्रा का तफ्सील से ब्यौरा मिलता है। ’माझा रशियाचा प्रवास’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत होने का गौरव प्राप्त है। अण्णा भाऊ को रूस यात्रा की बड़ी चाहत थी और उनकी यह चाहत क्यों थी ? इस बात का खुलासा उन्होंने अपने इस सफरनामे में किया है,‘‘मेरी अंतःप्रेरणा थी कि अपने जीवन में मैं एक दिन सोवियत संघ की अवश्य यात्रा करूंगा।

यह इच्छा लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मेरा मस्तिष्क यह कल्पना करते हुए सिहर उठता था कि मजदूर क्रांति के बाद का रूस कैसा होगा ? लेनिन की क्रांति और उनके द्वारा मार्क्स के सपने को जमीन पर उतारने की हकीकत कैसी होगी ! कैसी होगी वहां की नई दुनिया, संस्कृति और समाज की चमक-दमक ! मैं 1935 में ही कई जब्तशुदा पुस्तकें पढ़ चुका था। उनमें से ‘रूसी क्रांति का इतिहास’ और ‘लेनिन की जीवनी’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था। इसलिए मैं रूस के दर्शन को उतावला था।’’ जाहिर है कि साम्यवाद, रूस में किस तरह से जमीन पर उतरा ? समाजवाद में इंसान-इंसान के बीच किस तरह से बराबरी आई ? यह सब देखने के लिए ही वे एक बार रूस जाना चाहते थे।

अण्णा भाऊ साठे रूस में बहुत लोकप्रिय थे। उनके जाने से पहले उनकी रचनाएं जिसमें उपन्यास ‘फकीरा’, ‘चित्रा’ और अनेक कहानियां ‘सुलतान’ आदि, नाटक ‘स्तालिनग्राद’ रूसी भाषा में अनूदित होकर रूस पहुंचकर चर्चित हो चुकी थीं। लिहाजा रूस में उनका भरपूर स्वागत हुआ। रूसी अवाम ने उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। अण्णा भाऊ की 40 दिनों की रूस यात्रा अनेक तजुर्बों से भरी थी। समानता पर आधारित समाज का सपना, जो सालों से उनके दिलो दिमाग पर छाया हुआ था, रूस में उन्होंने इस विचार को हकीकत में बदलते हुए देखा।

15 अगस्त, 1947 को देश को आजादी मिली। लेकिन आजादी के बाद भी अण्णा भाऊ साठे का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। जिस समतावादी समाज का उन्होंने ख्वाब देखा था, वह पूरा नहीं हुआ। लिहाजा उन्होंने लाल बावटा (वामपंथी कला मंच) के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम जारी रखा। जिसके एवज में सरकार ने उनके इस संगठन और ‘तमाशा’ पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगा दी। सरकार की इस पाबंदी से वे बिल्कुल नहीं घबराए और उन्होंने अपनी इस कला को लोगों तक पहुंचाने के लिए ‘तमाशा’ को लोक गीत में ढाल दिया। अण्णा भाऊ ने ‘लाल बावटा’ के लिए लिखे गए नाटकों को आगे चलकर लावणियों और पावड़ा जैसे लोकगीतों में बदल दिया।

गरीब-मजदूरों का दुख-दर्द देख अण्णा भाऊ का संवेदनशील मन परेशान हो उठता था। अपनी रचनाओं के माध्यम से वे इन्हें आवाज देते। उनका समूचा लेखन वंचितों, शोषितों की आवाज है। उन्होंने अपनी जिंदगी में जो देखा-भोगा, उसे ही अपनी आवाज दी। उसे लिपिबद्ध किया। अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं,‘‘जो जीवन मैंने जिया, जीवन में जो भी भोगा, वही मैंने लिखा। मैं कोई पक्षी नहीं हूं, जो कल्पना के पंखों पर उड़ान भर सकूं। मैं तो मेढ़क की तरह हूं, जमीन से चिपका हुआ है।’’ वे जितने अपने लेखन में बेबाक और स्पष्टवादी थे, उतने ही सार्वजनिक जीवन में भी।

वे उस वर्णवादी व्यवस्था और पूंजीवाद के घोर विरोधी थे, जो इंसान को इंसान समझने से इंकार करती है। साल 1958 में मुंबई में आयोजित पहले ‘दलित साहित्य शिखर सम्मेलन’ में उद्घाटन भाषण में जब उन्होंने यह बात कही ‘‘यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मजदूरों के हाथों में सुरक्षित है।’’ तो कई यथास्थिति वादियों की भृकुटी उनके प्रति टेढ़ी हो गई। लेकिन वे कभी अपने विचारों से नहीं डिगे। जो उनकी सोच थी, उस पर अटल रहे। उनका सरोकार हमेशा आम आदमी से रहा।

अण्णा भाऊ साठे का समूचा लेखन यदि देखें, तो यह यथार्थवादी लेखन है। उनके लेखन में कल्पना, फैंटेसी सिर्फ उतनी है, जितनी जरूरी। वे रूसी लेखक गोर्की से बेहद प्रभावित थे। गोर्की की तरह ही उन्होंने भी अपने साहित्य में हाशिये के पात्रों को जगह दी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे, उन्हें अपने साहित्य का नायक बनाया। वे खुद कहते थे, ‘‘मेरे सभी पात्र, जीते-जागते समाज का हिस्सा हैं।’’ उनके साहित्य में महार, मांग, रामोशी, बालुतेदार और चमड़े का काम करने वाली निम्न जातियों के किरदार बार-बार आते हैं। इन अछूत जातियों की समस्याओं और उनके संघर्ष को वे अपनी आवाज देते हैं। उनकी एक मशहूर कहानी ‘खुलांवादी’ का एक किरदार बगावती अंदाज में कहता है,‘‘ये मुरदा नहीं, हाड़-मांस के जिंदा इंसान हैं। बिगडै़ल घोड़े पर सवारी करने की कूवत इनमें है। इन्हें तलवार से जीत पाना नामुमकिन है।’’

ऐसे विद्रोही किरदारों से अण्णा भाऊ का साहित्य भरा पड़ा है। अफसोस की बात यह है कि अण्णा भाऊ के निधन के पांच दशक बाद भी, उनका साहित्य हिंदी में उपलब्ध नहीं है। अण्णा भाऊ साठे, मार्क्सवादी विचारधारा से तो प्रेरित थे ही, दलित समाज के दीगर लेखक, कवि और नाटककारों की तरह वे आम्बेडकर और उनकी विचारधारा को भी पसंद करते थे। उनका विश्वास दोनों ही विचारधाराओं में था। वे इन विचारधाराओं को एक-दूसरे की पूरक समझते थे। जो आज भी वक्त की मांग है। 18 जुलाई, 1969 को 49 वर्ष की छोटी सी उम्र में जन-जन का यह लाडला लोक शाहीर, क्रांतिकारी जनकवि हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया। साल 2020, अण्णा भाऊ साठे का जन्मशती साल है, उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि भारत को उनके विचारों का देश बनाएं। जहां इंसान-इंसान के बीच समानता हो और शोषण, उत्पीड़न, गैर बराबरी के लिए कोई जगह न हो।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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