Saturday, April 27, 2024

फ़ैज़ की जयंतीः ‘अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं’

उर्दू अदब में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का मुकाम एक अजीमतर शायर के तौर पर है। वे न सिर्फ उर्दू भाषियों के पसंदीदा शायर हैं, बल्कि हिंदी और पंजाबी भाषी लोग भी उन्हें उतनी ही शिद्दत से मोहब्बत करते हैं। गोया कि फ़ैज़ भाषा और क्षेत्रीयता की सभी हदें पार करते हैं। एक पूरा दौर गुजर गया, लेकिन फ़ैज़ की शायरी आज भी हिंद उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर छाई हुई है। उनकी नज़्मों-गज़लों के मिसरे और अशआर लोगों की जुबान पर मुहावरों और कहावतों की तरह चढ़े हुए हैं। सच मायने में कहें, तो फ़ैज़ अवाम के महबूब शायर हैं और उनकी शायरी हरदिल अजीज है।

गतिशील लेखक संघ के बानी सज्जाद जहीर, फ़ैज़ की मकबूलियत का सबब इस बात में मानते हैं, ‘‘मैं समझता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान बल्कि इन मुल्कों के बाहर भी जहां फ़ैज़ के बारे में लोगों को जानकारी है, फ़ैज़ की असाधारण लोकप्रियता और लोगों को उनसे गहरी मुहब्बत का एक कारण उनके काव्य की खूबियों के अलावा यह भी है कि लोग फ़ैज़ की जिंदगी और उनके अमल, उनके दावों और उनकी कथनी में टकराव नहीं देखते।’’

फ़ैज़ सच्चे वतनपरस्त और सच्चे अंतरराष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जन संघर्षों के साथ उन्होंने हमेशा एकजुटता व्यक्त की। जहां-जहां साम्राज्यवादी ताकतों ने दीगर मुल्कों को अपनी साम्राज्यवादी नीतियों का निशाना बनाया, फ़ैज़ ने उन मुल्कों की हिमायत में अपनी आवाज उठाई।

प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद फ़ैज़ की शायरी में बड़ा बदलाव आया। उनकी शायरी की अंतरवस्तु का कैनवास व्यापक होता चला गया। इश्क, प्यार-मोहब्बत की रूमानियत से निकलकर, फ़ैज़ अपनी शायरी में हकीकतनिगारी पर जोर देने लगे। वे इश्क से इंकलाब, रूमान से हकीकत और गम-ए-यार से गम-ए-रोजगार की तरफ आए। उनकी नज्में इश्किया तौर पर शुरू होकर इंसान के दुनियावी सरोकार से जाकर मिलने लगीं। इसके बाद ही उनकी यह मशहूर गजल सामने आई,
और भी दुख हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरी महबूब न मांग


फ़ैज़ की शायरी में ये प्रगतिशील, जनवादी चेतना आखिर तक कायम रही। कमोबेश उनकी पूरी शायरी, तरक्कीपसंद ख्यालों का ही आइना है। उनकी पहली ही किताब ‘नक्शे फरियादी’ की एक गज़ल के कुछ अशआर देखिए,
आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी
यासो-हिर्मान के दुःख-दर्द के मानी सीखे
जेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रूखे-जर्द के मानी सीखे

साल 1941 में ‘नक्शे फरियादी’ के प्रकाशन के बाद फ़ैज़ का नाम उर्दू अदब के अहम शायरों में शुमार होने लगा। एक इंकलाबी शायर के तौर पर उन्होंने जल्द ही मुल्क में शोहरत हासिल कर ली। अपने कलाम से उन्होंने बार-बार मुल्कवासियों को एक फैसलाकुन जंग के लिए ललकारा। ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ शीर्षक नज़्म में वे कहते हैं,
सब सागर शीशे लालो-गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं
उठो, सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं

फ़ैज़ की ऐसी ही एक दीगर गजल का शे’र है,
लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं

लाखों लोगों की कुर्बानियों के बाद आखिरकार, वह दिन भी आया जब मुल्क आजाद हुआ। पर यह आजादी हमें बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क दो हिस्सों में बंट गया। भारत और पाकिस्तान! बंटवारे से पहले हुई सांप्रदायिक हिंसा ने पूरे मुल्क को झुलसा के रख दिया। रक्तरंजित और जलते हुए शहरों को देखते हुए फ़ैज़ ने ‘सुबहे-आजादी’ शीर्षक से एक नज़्म लिखी। इस नज़्म में बंटवारे का दर्द जिस तरह से नुमायां हुआ है, वैसा उर्दू अदब में दूसरी जगह मिलना बमुश्किल है,
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं

इस नज़्म में फ़ैज़ यहीं नहीं रुक जाते, बल्कि वे आगे कहते हैं,
नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मुल्क की खंडित आजादी से बेहद गमगीन थे। यह उनके तसव्वुर का हिंदुस्तान नहीं था। नाउम्मीदी भरे माहौल में भी उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। आगे चलकर दोनों मुल्क एक हो जाएंगे।

बंटवारे के बाद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘पाकिस्तान टाइम्स’, उर्दू दैनिक ‘इमरोज’ और हफ्तावार अखबार ‘लैल-ओ-निहार’ के एडिटर की जिम्मेदारी संभाली, लेकिन पाकिस्तान में भी फ़ैज़ का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। यहां भी वे सरकारों की गलत नीतियों की लगातार मुखालिफत करते रहे। इस मुखालिफत के चलते उन्हें कई मर्तबा जेल भी हुई।

साल 1951 में वे रावलपिंडी साजिश केस में जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए। साल 1955 में जैसे-तैसे रिहा हुए, तो साल 1958 में पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने पर उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। एक साल जेल में रहने के बाद, उन्हें रिहा किया गया। बावजूद इसके उन्होंने अपने खयाल नहीं बदले। जेल की हिरासत में ही उनकी गजलों-नज़्मों के दो मजमुए ‘दस्ते-सबा’ और ‘जिंदानामा’ शाया हुए।

कारावास में एक वक्त ऐसा भी आया, जब जेल एडमिनिस्ट्रेशन ने उन्हें परिवार-दोस्तों से मिलवाना तो दूर, उनसे कागज-कलम तक छीन लिए। फ़ैज़ ने ऐसे ही शिकस्ता माहौल में लिखा,
मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई, तो क्या गम है
कि खूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने
जबां पे मुहर लगी है, तो क्या कि रख दी है
हरेक हलकए-जंजीर में जबां मैंने

‘जिंदानामा’ की ज्यादातर नज्में फ़ैज़ ने मंटगोमरी सेंट्रल जेल और लाहौर सेंट्रल जेल में लिखीं। कारावास के दौरान फ़ैज़ की लिखी गई गज़लों और नज़्मों ने दुनिया भर की अवाम को मुतासिर किया।

तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत की तरह उन्होंने भी कारावास और देश निकाला जैसी यातनाएं भोगीं। निर्वासन का दर्द झेला, लेकिन फिर भी वे फौजी हुक्मरानों के खिलाफ प्रतिरोध के गीत गाते रहे। ऐसे ही एहतिजाज की उनकी एक नज़्म है,
निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन कि जहां
चली है रस्म की कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नजर चुरा के चले, जिस्मों-जां को बचा के चले

यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क
न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी
यूं ही हमेशा खिलाये हैं, हमने आग में फूल
न उनकी हार नयी है, न अपनी जीत नयी

फ़ैज़ की सारी जिंदगानी को यदि उठाकर देखें, तो उनकी जिंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की मिली-जुली दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एफ्रो-एशियाई राइटर एसोसिएशन की मैगजीन ‘लोटस’ के चार साल तक एडिटर रहे। साल 1962 में उन्हें ‘लेनिन विश्व शांति सम्मान’ से नवाजा गया। फ़ैज़ पहले एशियाई शायर बने, जिन्हें यह आला एजाज हासिल हुआ।

भारत और पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में ही नहीं, बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका के स्वतंत्रता और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फ़ैज़ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर हैं। उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, तो वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है। उन्होंने अवाम के नागरिक अधिकारों के लिए और सैनिक तानाशाही के खिलाफ जमकर लिखा।

‘लाजिम है कि हम देखेंगे’, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’, ‘दरबारे-वतन में जब इक दिन’, ‘आज बाजार में पा-बा-जौलां चलो’ उनकी ऐसी ही कुछ इंकलाबी नज्में हैं। इन नज़्मों को एक स्वर में गाते हुए नौजवान जब सड़कों पर निकलते हैं, तो हुकूमतें हिल जाती हैं।

अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे

अपनी जिंदगी में ही फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ समय और मुल्क की सरहदें लांघकर, एक इंटरनेशनल शायर के तौर पर मकबूल हो चुके थे। दुनिया के किसी भी कोने में जुल्म होते, उनकी कलम मचलने लगती। अफ्रीका के मुक्ति संघर्ष में उन्होंने जहां ‘अफ्रीका कम बैक का’ नारा दिया, तो वहीं बेरूत में हुए नरसंहार के खिलाफ भी उन्होंने ‘एक नगमा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’ शीर्षक से एक नज़्म लिखी। गोया कि दुनिया में कहीं भी नाइंसाफी होती, तो वे अपनी नज़्मों और गजलों के जरिए प्रतिरोध दर्ज कराते थे।

साल 1982 में एक वक्तव्य में फ़ैज़ ने कहा था, ‘‘मेरे तईं अमन, आजादी, युद्धबंदी और एटमी होड़ की मुखालिफत ही प्रासंगिक है। इस विशाल भाईचारें में से मेरे और मेरे दिल के सबसे नजदीक वे अवाम हैं जो अपमानित, निष्कासित और वंचित हैं, जो गरीब, भूखे और परेशान हैं। इसी वजह से मेरा लगाव फिलिस्तीन, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, चिले के अवाम और अपने मुल्क के अवाम और मुझ जैसे लोगों से है।’’

फ़ैज़ की शायरी आज भी दुनिया भर में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष को एक नई राह दिखलाती है। तानाशाह हुकूमतें, उनकी शायरी से खौफ खाती हैं। स्वाधीनता, जनवाद और सामाजिक समानता फैज की शायरी का मूल स्वर है। वे अपनी सारी जिंदगी इस कसम को बड़ी मजबूती से निभाते रहे,
हम परवरिशे-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है, रकम करते रहेंगे

हां, तलखी-ए-अय्याम अभी और बढ़ेगी
हां, अह्ले सितम मश्के-सितम करते रहेंगे
मंजूर ये तलखी, ये सितम हमको गवारा
दम है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे

फिलिस्तीनी लीडर यासिर अराफात ने फ़ैज़ के इंतिकाल के बाद उन्हें अपनी खिराज-ए-अकीदत पेश करते हुए कहा था, ‘‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हमें छोड़ गए, लेकिन हमारे दिलों में मुहब्बत का अमिट नक्श छोड़ गए। उन्होंने इंकलाबियों, दानिश्वरों और फनकारों की आने वाली नस्लों के लिए बेनजीर सरमाया छोड़ा है।’’

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)

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