जब आप एक पाठक के रूप में कोई पुस्तक उठाते हैं तब आप अपने आस-पास एक क्लास रूम बनाते हैं। आप छात्र बन जाते हैं। लेखक आपको जानकारियों की दुनिया में ले जा रहा होता है। आपका ध्यान कभी गहरा होता है और कभी भटक जाता है। कभी कुछ ऐसा खोज लेता है जिससे आप हतप्रभ भी होते हैं और हताश भी। किताब का पढ़ना किसी बेतरतीब और कालिख से सने गराज में एक पुरानी कार पर नए रंग की परतों को चढ़ाना होता है। इसलिए पढ़ते रहना चाहिए। जाने कौन सी जानकारी टकरा जाए और आप दिन भर के लिए झूमने लग जाएं। बेचैन होकर भटकने लग जाएं या फिर स्थिर हो जाएं।
इसलिए मुझे वो लेखक बहुत अच्छे लगते हैं जो लेखन में मेहनत करते हैं। पहले पाठक बनते हैं और फिर लेखक बनते हैं। वीरेन्द्र कुमार बरनवाल की इस किताब को पढ़ते वक्त श्रद्धा उमड़ आती है। सोचने लग जाता हूं कि किसके लिए लेखक ने इतनी मेहनत की होगी। रात-रात जागा होगा। बरनवाल जी का मेहनत से लिखना मुझे भाता है। मैं एक लेखक में एक अच्छा छात्र देखकर अभिभूत हुआ जा रहा हूं कि रविवार का आधा हिस्सा अच्छा गुज़रा है।
आज फिर से हिन्द स्वराज: नव सभ्यता का विमर्श पढ़ने लगा। 2011 में उन्होंने भेजी थी। पड़ोसी हैं लेकिन मिला दरवाज़े के बाहर। वो भी तब जब राष्ट्र कवि कृष्ण मोहन झा को उनके दरवाज़े छोड़ने गया। सोचा कभी आराम से इस बुज़ुर्ग छात्र से मिलूंगा। सोलह साल गुज़र गए। पिछले दिनों मिला भी तो फिर दरवाज़े पर। अब न जाने कितने साल और गुज़रेंगे। आज़मगढ़ के बरनवाल साहब ने हिन्द स्वराज पर 120 पन्नों की जो विवेचना की है उसे आप ज़रूर पढ़ें। क्लीशे की हिन्दी पिष्टोक्ति पढ़कर गुदगुदी सी हुई। मुझे नहीं मालूम कि इतनी मेहनत से लिखी इस किताब से बरनवाल साहब को क्या मिला लेकिन मुझे गर्व हुआ कि कोई हिन्दीवाला हिन्द स्वराज के सौ साल होने के मौक़े पर उसे फिर से समझने और प्रतिष्ठित करने के लिए इतनी मेहनत करने का बीड़ा उठाता है।
हिन्दी प्रदेश असंगठित क्षेत्र की तरह है। लेखकों और रचनाकारों की कमी नहीं है। अच्छी रचनाएं भी हैं जो आपको बेहतर नागरिक बनाती हैं। सत्ता और समाज के पाखंड को भेदने की क्षमता से लैस करती हैं। मगर यहां किसी को देखा नहीं कि जीवन रहते दूसरे लेखकों पर बात कर रहा हो। सब श्रद्धांजलि का इंतज़ार करते हैं। हर लेखक इससे पीड़ित है मगर हर लेखक बीमारी का कारण है। पाठक भी शामिल है।
फ़ेसबुक पर सारे हिन्दी के रचनाकारों से तो नहीं जुड़ा हूं लेकिन कभी कभार ही देखा है किसी को दूसरों की किताब पर चर्चा करते हुए। यहां छोटे दिल वाले कई बड़े लेखक हैं। हो सकता है यह मेरी धारणा हो। वैसे लोग हैं जो किसी लेखक तक अपनी बात पहुंचाते हैं कि पढ़ा और अच्छा लगा। ये वही अनाम लेखक और पाठक हैं जो इस असंगठित क्षेत्र के असली ग्राहक हैं। उन्हें दुकान दुकान जाना अच्छा लगता है। वे मेलार्थी हैं। मेले के विद्यार्थी। घूम घूम कर देखना और ख़रीदना। मैं भी तो इसी तरह वीरेन कुमार बरनवाल से टकराया था।
“ टॉलस्टॉय ने प्लेटो के ‘ दि ट्रूथ’ , ‘दि ब्यूटी’ और ‘ दि गुड’ की अवधारणा पर काफी गहराई से विचार किया था। ज्ञातव्य है कि इन तीनों बीज शब्दों का अनुवाद महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने उन्नीसवीं सदी में अद्भुत रचनात्मकता के साथ सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् किया था” (पेज 46)
“ सन् 1903 में जब पेरिस मेट्रो में आग लगने से भयानक दुर्घटना के दौरान लोग भारी संख्या (86) में हताहत हुए तो गांधी ने उस पर अपनी दुख-भरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि आधुनिक सभ्यता के भव्य चमक-दमक के पीछे एक भयावह त्रासदी हमेशा छिपी और घटने के इंतज़ार में रहती है।”( पेज 36)
बरनवाल गांधी के विचारों की जड़ों को खोजते खोजते कहां से कहां चले जा रहे हैं। 1908 में टॉल्स्टॉय ने ‘लेटर टू ए हिन्दू’ छह महीने में लिखी थी। 28 ड्राफ़्ट के बाद। तारकनाथ दास के पत्र के जवाब में जो अहिंसा के विरोधी थे। लगता है बरनवाल जी हर उस किताब को पढ़ रहे हैं जिसे गांधी ने हिन्द स्वराज लिखने के पहले पढ़ा था। पढ़ी गईं किताबें अपने पाठक के ज़रिए दुनिया को बेहतर करने का प्रयास भी करती हैं। किताबों में आत्मा होती है।
राजकमल प्रकाशन ने इसका प्रकाशन किया है। 450 रुपये की इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए। बरनवाल साहब ने किसी वैचारिक पक्ष के नायक को नहीं छोड़ा है। सबको एक साथ जगह मिली है। महान दादा भाई नौरोजी को भी और महान श्याम जी कृष्ण वर्मा को भी। कभी वक्त मिले तो ज्ञानार्जन हेतु इस किताब को पढ़ जाइयेगा।
(किताब की यह समीक्षा वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने की है। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है।)