Friday, March 29, 2024

भौतिकवाद से दूर आदिवासी साहित्य में जीवन सौंदर्य

प्रख्यात विद्वान और 22 भारतीय भाषाओं की लोक-कथाओं का संकलन और संपादन करने वाले एके रामानुजन ने लोक साहित्य को कुछ यूं व्याखायित किया है: “लोक साहित्य भारतीय पिरामिड का वह आधार है जिस पर शेष समस्त भारतीय साहित्य टिका हुआ है।’’ फिर वह कहते हैं, “भारतीय संस्कृति के अध्येता को लिखित शास्त्रों का ही नहीं बल्कि मौखिक परंपराओं का भी अध्ययन करना चाहिए, जिनका कि लोक-साहित्य महत्वपूर्ण अंग है। लोक-साहित्य अनपढ़ लोगों और संस्कृति की सांकेतिक भाषा के रूप में बच्चों, परिवारों और समुदायों में समाया हुआ है।’’

“संसार में हरेक रीति-रिवाज और सांस्कृतिक प्रदर्शन मौखिक परंपरा और लोक-रूपों का ऋणी है, जिन्हें हम कला, अर्थ और धर्म के नाम पर अलग-अलग करके देखते हैं, वे सब उसी जीवन-व्यापार में समाहित है। व्यक्ति का स्वभाव, सौन्दर्यबोध अैर उसका विश्व दृष्टिकोण जो बचपन में आकार ग्रहण करते हैं और बाद में जीवन में दृढ़ होते जाते हैं को ये ही शाब्दिक और शब्दातीत परम्पराएं गढ़ती हैं। व्यापक निरक्षर संस्कृति में हर कोई चाहे वह गरीब हो या अमीर, सवर्ण हो या शूद्र, प्रोफेसर हो या पंडित अथवा अज्ञानी, इंजीनियर हो या फेरीवाला- अपने भीतर एक बड़ा निरक्षर उपमहाद्वीप लिए हुए होता है।’’

दूसरी तरफ शिकागो के मानवशास्त्री रोबर्ट रेडफील्ड ने अपनी पुस्तक ‘द लिटल कम्युनिटी एंड पेजेंट सोसाईटी ऑफ़ इंडिया’ में कहा है, ‘‘किसी सभ्यता में एक महान परंपरा वैचारिक बहुसंख्यकों की होती है और एक लघु परम्परा प्रायः उन लोगों की होती है जो अपने विचारों को मानक रूप में अभिव्यक्त नहीं कर पाते। संस्कृति द्वारा वहन की जाने वाली महान परंपरा को वृहद भारतीय प्रतिष्ठित, प्राचीन और अधिकृत माना जाता है। ‘लघु परम्परा’ जिसे बहुवचन में कहें तो ‘लघु परंपराओं’ को मौखिक और स्थानीय रूप में देखा जाता है, जिनको वहन करता है अज्ञात ‘अवैचारिक बहुल’। दूसरे शब्दों में अनपढ़ उदारवादी उन्हें निरक्षर कहेगें।’’

वैसे देखा जाए तो शास्त्र और लोक में द्वंद्व की निर्मिति, एक भ्रामक धारणा है। उनके बीच के आपसी आदान-प्रदान और सन्निधि को स्वीकार कर हमें इस बात को स्थापित करने की जरूरत है कि दोनों का निर्माण समाज में ही होता है और वह लोक द्वारा ही निर्मित होता है, कोई अवतरित नहीं होता। अतः दोनों की अन्तर्निभरता को चिन्हित किया जाना आवश्यक जान पड़ता है।

अध्ययन और अध्यापन में आदिवासी जगत कैसे और कब से आता है इसकी जानकारी के लिए हमें मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, सामाजिक भूगोल, (social geography), इतिहास, साहित्य और भाषा विज्ञान आदि विषयों से संबंध स्थापित करना आवश्यक हो जाता है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के साथ मुगलकालीन अरबी-फारसी ग्रंथों और विभिन्न देशी-विदेशी सैलानियों द्वारा लिखे गए संस्मरणों, यात्रावृतों, मिशनरियों द्वारा किए गए कार्यों के संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कोशिश की गई है कि इन्हें कालक्रमानुसार चिन्हित किया जा सके।

‘स्त्री’ और ‘लोकगीत’ का संबंध मुख्यधारा में हमेशा से रेखांकित किया जाता रहा है। पितृसत्ता का वह हावी स्वभाव जहां स्त्रियां मानव नहीं, मात्र एक स्त्री है, बिना पुरुष उसकी कोई पहचान नहीं- उस स्वभाव के प्रति मार्क्सवादी चिंतक ग्राम्शी के शब्दों में अंग्रेजी में ‘प्रतिवर्चस्व’ स्थापित करने की जरूरत है। ‘Woman’ शब्द को ही ले लें। जिसमें Man चाहे न चाहे जुड़ा हुआ है। तभी तो ‘द सेकेन्ड सेक्स’ की लेखिका सिमोन द बोउवार भी अपनी इस ऐतिहासिक कृति में यह सवाल करते दिखती हैं कि क्यों नहीं हैं हम स्त्रियां ‘फर्स्ट सेक्स’? क्यों पितृसत्ता ने या विश्व की अन्य सामाजिक सत्ताओं ने स्त्री को संपत्ति स्वरूप ही चिन्हित किया है? क्यों नहीं वह पहले मानव है, फिर कुछ और।

स्त्री स्वर को विश्व में सुना और चुना जा रहा है। इतिहास के उपेक्षित इन जीव तत्वों को अब वैचारिक परिधि में सुनना प्रारंभ किया गया है। आदिवासी लोकगीतों में यह जिम्मेदारी स्त्रियों के मात्र हवाले नहीं है, यहां आदिवासी पुरुषों के द्वारा भी बहुत सारे गीत सहेजे गए हैं, जो आदिवासी समाज में एक बहुत ही अद्भुत बात देखने को मिलती है। जेंडर संबंधी आसमानता आदिवासी लोकगीतों में कहीं न कहीं दूर; चितकी हुई सी दिखाई पड़ती है। आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष भेद कैसे हालिया बाहरी दखल का परिणाम है इसे तुलनात्मक तरीके से चिन्हित किया जा सकता है।  

ठीक इसी प्रकार भारत में दलितों,पिछड़ों, ‘ट्रांसजेंडर’, मुसलमान, पसमांदा, मजदूर, अल्पसंख्यक आदि की आवाजों को भी पहचान मिली है। सदियों हाशिए में ढकेले हुए आदिवासी आज विचार और विमर्शों के केंद्र में आए हैं। इसी क्रम में आदिवासी स्त्री की विभिन्न छवियों को ‘लील-ख़ोरआ ख़ेखे़ल’ नामक पुस्तक में संग्रहित लगभग ढाई हजार गीतों में से कुछ को देखने, सुनने का प्रयास इस लेख में किया गया है।

इस संकलन को लाने में डब्ल्यूजी आर्चेर, धर्मदास लकड़ा और रेव एफ हान का बहुत योगदान है, क्योंकि आदिवासी समाज (कुडु.ख समाज) का भूगोल, समाज, मान्यताएं, ज्ञान-परंपरा, जीवन-दर्शन और मूल्य, शास्त्रीय परंपराओं से इतर हैं। इनके स्वरों को इनके अपने सौन्दर्य बोध और कलाओं से देखने की कोशिश की गई है, इसलिए हमें अपने मानक (मुख्यधारा से उधार लेकर इन पर थोपकर नहीं देखे जाने चाहिए। लोकगीतों की प्रवृत्तिगत विशेषताओं को चिन्हित कर वास्तव में आदिवासी साहित्य की विचारधारा, उसके स्वर, उनके विभूति (icons) को तलाशने का प्रयास भी आवश्यक है।

आदिवासी साहित्य किसे कहेंगे? इसके रचयिता कौन होंगे? क्या यहां भी स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रसंग उपस्थित होंगे? ये वे प्रश्न हैं जो दलित और स्त्री विमर्श की ही भांति आदिवासी-विमर्श में केंद्रीय रूप में उभरे हैं। दलित साहित्य में सहानुभूति बनाम स्वानुभूति पर लंबी बहस चली और अंततः सृजित साहित्य के स्वर पर यह तय हो ही गया कि दलितों द्वारा लिखित साहित्य ही दलित साहित्य का हिस्सा होगा।

बहसें और स्वीकारोक्ति आज भी जारी है, पर इस बात से इनकार कतई नहीं किया जा सकता कि साहित्य रचना, अध्ययन-मनन, अध्यापन आदि पुरातन समय से वर्चस्वशालियों के हाथ रही है, अर्थात विजेता जातियों के हाथ रही। सवाल जहां वर्चस्व का होगा वहां टकराहट सुनाई पड़ेगी। अतः आदिवासियों को अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए इस टकराहट की गूंज से गुजरना ही होगा। सहानुभूति परक आदिवासी साहित्य बहुत लिखा जा चुका या कई बार घृणा फैलाने वाला साहित्य भी पृष्ठभूमि के तौर पर हमें कई हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषा-भाषियों के साहित्य में दिख चुका है।

अब बारी है कि हम ‘अपनी बात, अपनी आवाज़, अपनी लेखनी’ को सामने रखें। आदिवासियों को न सहानुभूति चाहिए; न ही बहुत अधिक ‘रोमांटिसाइज़’ करने की जरूरत है। उसकी अपनी सीधी-साधी दुनिया को देखने के तरीके को हमें उनके मुख से ही सुनना होगा। जहां आदिवासी साहित्य के नाम पर अन्यों का लेखन शुरू हुआ कि आदिवासी अपनी अभिव्यक्तियों के साथ ही दब जाएंगे। भाषा के लोचदार अंदाज के प्रयोक्ता, आदिवासी साहित्य को फिर से अपने मुट्ठियों में बंद कर लेंगे। पहले भी आदिवासियों को केंद्र में रखकर जिन रचनाओं से हमारा वास्ता या संबंध स्थापित हो पाया वह एक तो सम्पूर्ण नहीं, दूसरा यह कि इसमें भ्रामक और कल्पित रीति-रिवाज़ों को गढ़कर गैर आदिवासी रचनाकारों ने इन समुदायों के प्रति वितृष्णा ही फैलाई है या चित्रित भी किया है तो मात्र उनके दैन्य जीवन को।

कई रचनाकार इससे बाहर आकर भी आदिवासी समस्याओं का चित्रांकन करने में सफल भी हुए हैं। इसलिए बात केवल उनको खारिज किए जाने की हो, ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। इससे अलग कई लेखन में भी प्रतिरोध और अस्मिता बोध से लबरेज संघर्षों को सदैव अनदेखा किया जाता रहा है।

आज बहुत से आदिवासी रचनाकार और संस्कृतिकर्मी आदिवासी साहित्य की विचारधारा, जिसमें अनंत प्रेम की भावना, मनुष्य मात्र से ही नहीं अपितु हर उस वस्तु जगत से है जो चल-अचल प्रकृति में उपस्थित है और उसे पूरे जगत में सर्वविदित करार देना चाहते हैं। इन तमाम बातों को ध्यान में रखने पर स्वतः ही आदिवासी साहित्य के लिए मानदंड तय किए जा सकेंगे। भौतिकवाद से जिस प्रकार की दूरी आदिवासी लोकगीतों में अपना प्रसार पाती है वैसे ही आज के इस अंध भौतिकवादी होती संस्कृतियों से अपने को दूर रखने का प्रयास भी आदिवासी साहित्य के लिए आवश्यक बन पड़ता है। बाज़ार होती दुनिया में आदिवासी खुद को बचाने में लगा हुआ है।

कुडु.ख लोकगीतों में कुडु.ख स्त्रियों को हुबहू वैसे ही चित्रित किया गया है, जैसे वे इन गीतों में उपस्थित हुई हैं। उन्हें वैसे ही दिखाया गया है। गर्वोक्ति और आग्रहों को त्याग कर सामाजिक परिस्थितियों में स्त्री के जितने रूप दिखाई पड़े हैं वह इसमें  रूपायित करने की कोशिश की गई है। कुडु.ख आदिवासी लोकगीतों में जिन उपमानों का प्रयोग किया गया है, वह वास्तव में शास्त्रीय उपमानों और मुख्यधारा के सामाजिक उपमानों से बिल्कुल ही भिन्न है। जो सामान्य साहित्य-पाठक को ‘अनुकूल’ या नार्मल होने में थोड़ा वक्त लगा सकते हैं पर हमें उस विशिष्ट साहित्य के समाज, भौगोलिक परिवेश और संस्कृति आदि को ध्यान में रखना होगा। इसके बिना हमारी आलोचकीय दृष्टि अधूरी ही रहेगी। यह इसलिए भी आवश्यक है कि हम आदिवासियों के बारे में बनाई गई रूढ़िगत छवियों से उभर सकें।

इसी पर एके रामानुजन ने यह स्वीकारा है कि हर गीत का अपना अंचल, जाति-संदर्भ और प्रभाव होता है। इस हकीक़त को अलग कर कतई नहीं देखा जा सकता।

एक कुडु.ख लोकगीत का उदाहरण देखें, जहां उपरोक्त कही गई बातें और स्पष्ट हो जाएंगी। जहां मुख्यधारा साहित्य (शास्त्रीय) की नायिकाओं को कई बार गजगामिनी नायिका के तौर पर पेश किया जाता है, वहीं कुडु.ख लोकगीत में एक नायिका ‘वन वरहा’ (जंगली सूअर) की तरह शौर्य से पूरित, बलिष्ठ, एक विशिष्ट चमक और मादकता के साथ चित्रित की गई है। गीत है,

ऐन्देर पूँपन में-झेंरकी दईया
वन वरहा वेसे लबकारकी बरआ लगदी
नौर पूँपन में-झंरकी दईया
वन वरहा वैसे लबकारकी बरआ लगदी

इसमें प्रेमी अपनी प्रेमिका को दूर से आता देख रहा है, जिसके बालों में शाल का फूल खोंसा हुआ है। वह बलिष्ठ, सुन्दर और शौर्य से ओत-प्रोत है और इस प्रकार से आ रही है जैसे कोई वन वराह। उसकी चमकीली छवि बिल्कुल वन वराह की तरह ही चमकीली है और जिस प्रकार वन वराह में असीम शक्ति, स्फूर्ति और प्राण का संचार होता है, वैसी ही मेरी यह प्रियतमा भी है। अब यहां आवश्यकता है लोक और शास्त्र जगत् से उठाए गए इन उपमानों को और उनके पीछे छिपे गूढ़तम अर्थ प्रतीतियों को पहचानने और व्याख्यायित किए जाने की।

शास्त्र के संपर्क में गजगामिनी नायिकाओं का जो वर्णन मिला है वह राज्याश्रित कवियों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। राजा के पास सेनाओं में गज (हाथी) का इस्तेमाल होता रहा है। गज भव्यता और प्रदर्शन का भी प्रतीक माना जाता रहा है। यहां शास्त्रीय रूप में नायिका की गजगामिनी चाल अर्थात् धीरे-धीरे चाल को, कूल्हों के मटकने का सौन्दर्य नायिका के लक्षण के रूप में अभिहित किया गया है।

भूगोल में शाल का वृक्ष उनके परिधि में रहा तथा वन वराह ऐसा जानवर जिसके शिकार में आदिवासियों को सबसे अधिक मशक्कत करनी पड़ती रही है, उसे नायिका रूप में वह स्वीकारा गया है, क्योंकि वन वराह में जो असीम शक्ति वह स्फूर्ति है, तथा जिसकी जान अन्य जंतुओं की तुलना में मारे जाने पर भी बहुत मुश्किल से निकलती है, उसे ही लोक ने अपनी ओजपूर्ण नायिका की उपमा देना चाहा है। शास्त्र में वे स्त्रियां अच्छी और महत्वपूर्ण स्वीकारी गई हैं जो कोमल हों, नाजुक हों, कमनीय हों। किंतु यहां आदिवासी लोक में नायक को ऐसी प्रियतमा प्रिय है जो ओजस्वी और तेजपूर्ण हो, जो कोमलांगी नहीं अपितु बलिष्ठ और स्फूर्ति का पर्याय हो।

यहां दिए गए उदाहरण में हंसी, मजाक और ठठा करने के बजाय अपने मानसिक विकृतियों का त्याग आवश्यक है जो पशुओं में भी उच्चता और नीचता को स्वीकारते हैं कि गज तो सुंदर है किंतु जंगली सूअर गंदा या निम्नतर है। यहां श्रेष्ठता का भाव-बोध त्यागकर, घृणा से वैराग्य स्थापित कर इन गीतों के उपमानों को ‘स्पेस’ देने की आवश्यकता है। इन भिन्नताओं को लेकर भिड़ने के बजाय हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। यही किसी भी साहित्य का महत् उद्देश्य भी होता है।


कुडु.ख लोकगीतों में कई ऐसे प्रसंग, घटनाएं और दैनंदिन जीवन की सहजताएं उभरती हैं, जिससे मुख्यधारा के साहित्य का परिचय नवीनतम और अनूठा होगा। लोक और शास्त्र का द्वंद्व उपस्थित करना इस लेख का उद्देश्य कतई भी नहीं है, बल्कि यह एक कोशिश है कि मुख्यधारा साहित्य और आदिवासी लोक साहित्य के मध्य एक संवाद स्थापित किया जा सके। (अगले अंक में भी जारी)

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में हिंदी पढ़ाती हैं।)

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