Tuesday, April 16, 2024

मोहन राकेश ने दी हिंदी नाटकों को एक नई पहचान

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें ‘नयी कहानी आंदोलन’ का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में लोग उन्हें उस दौर का ‘महानायक’ कहते हैं। मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनके पिता पेशे से वकील थे और साथ ही साहित्य और संगीत के प्रेमी भी थे। पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा। मोहन राकेश ने पहले लाहौर के ‘ओरियंटल कॉलेज’ से ‘शास्त्री’ की परीक्षा पास की।

उन्होंने 1947 से 1949 तक देहरादून में एक डाकिए के रूप में अपना करियर शुरू किया उसके बाद वे दिल्ली चले गए लेकिन कुछ समय के लिए जालंधर , पंजाब में एक शिक्षण कार्य मिला। इसके बाद, वह डीएवी कॉलेज, जालंधर ( गुरु नानक देव विश्वविद्यालय ) में हिंदी विभाग के प्रमुख बने। दो सालों तक शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में हिंदी विषय पढ़ाया। शिमला में उनके छात्रों के बीच रस्किन ओवेन बॉन्ड थे। आखिरकार, उन्होंने पूर्णकालिक लिखने के लिए 1957 में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण मोहन राकेश का अध्यापन कार्य में मन नहीं लगा अतः एक वर्ष तक उन्होंने ‘सारिका’ कथा पत्रिका में सम्पादन किया।

इस कार्य को भी अपने लेखन में बाधा समझकर इससे किनारे कर लिया और जीवनपर्यंत स्वतंत्र लेखन ही इनके जीविकोपार्जन का साधन रहा। उस दौर में तीन कथाकार मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं; उपन्यास: अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल; नाटक: आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, अण्डे के छिलके; कहानी संग्रह: क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस तथा अन्य कहानियाँ; निबंध संग्रह: परिवेश; अनुवाद: मृच्छकटिक, शाकुंतलम; यात्रा वृताँत: आखिरी चट्टान। मोहन राकेश की डायरी हिंदी में इस विधा की सबसे सुंदर कृतियों में एक मानी जाती है। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार थे। समाज की संवेदनशील अनुभूतियों को चुनकर उनका सार्थक सम्बन्ध खोज निकालना उनकी कहानियों की विषय-वस्तु थी।

हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हिन्दी नाटक के क्षितिज पर मोहन राकेश का उदय उस समय हुआ, जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके नाटकों ने न सिर्फ़ नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिन्दी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य काल में मोहन राकेश ने अपने लेखन से दूर होते हिन्दी साहित्य को रंगमंच के करीब ला दिया और स्वयं को भारतेन्दु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के समकक्ष खड़ा कर दिया।

हालांकि और भी कई महत्वपूर्ण नाम रहे हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने मोहन राकेश के नाटकों का निर्देशन किया।

मोहन राकेश के दो नाटकों आषाढ़ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद और संशयों की ही गाथा कही गयी है। एक नाटक की पृष्ठभूमि जहां गुप्तकाल है तो दूसरा बौद्धकाल के समय के ऊपर लिखा गया है। आषाढ़ का एक दिन में जहां सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वंद से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र मिला है। लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्नों को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और अध्यात्मिक जीवन के द्वन्द, दूसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। मोहन राकेश का तीसरा व सबसे लोकप्रिय नाटक आधे अधूरे है ।

जहाँ नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओं, कुंठाओं व विसंगतियों को दर्शाया है । इस नाटक की पृष्ठभूमि एतिहासिक न होकर आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है। आधे अधूरे मे वर्तमान जीवन के टूटते हुए संबधों, मध्यवर्गीय परिवार के कलहपूर्ण वातावरण विघटन, सन्त्रास, व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का सजीव चित्रण हुआ है । मोहन राकेश का यह नाटक, अनिता औलक की कहानी दिन से दिन का नाट्यरुपांतरण है।

3 जनवरी 1972 को छियालीस वर्ष उम्र में ही उनका देहावसान हो गया।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार व लेखक हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं)

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