Wednesday, April 17, 2024

   शिक्षा, विकास और नास्तिकता का परस्पर संबंध

धर्म के प्रति मुख्य आकर्षण का एक कारण यह है कि यह अनिश्चित दुनिया में सुरक्षा का काल्पनिक अहसास दिलाता है। लेकिन बावजूद इसके दुनियाभर में नास्तिकता बढ़ रही है। कैलिफ़ोर्निया में क्लेरमोंट के पिटज़र कॉलेज में सामाजिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर फिल ज़करमैन कहते हैं, “इस समय दुनिया में पहले के मुक़ाबले नास्तिकों की संख्या बढ़ी है”।

नास्तिकों की संख्या में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी उन देशों में हुई है जो अपने नागरिकों को आर्थिक, राजनीतिक और अस्तित्व की अधिक सुरक्षा देते हैं। अविकसित और पिछड़े देशों में धर्म यथावत बना हुआ है या आंशिक वृद्धि हुई है। और वहां की राजसत्ताएं इसीलिए विकास और शिक्षा के तर्कसम्मत और वैज्ञानिक मूल्यों को तरह-तरह से अवरोधित करती हैं तथा धर्म एवं पाखंड को बढ़ावा देती हैं। जापान, कनाडा, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड्स, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, जर्मनी, फ्रांस, उरुग्वे ऐसे देश हैं जहाँ 100 साल पहले तक धर्म महत्वपूर्ण हुआ करता था लेकिन अब इन देशों में ईश्वर को मानने वालों की दर सबसे कम है।

इन देशों में शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था काफ़ी मज़बूत है, असमानता कम है और लोग अपेक्षाकृत अधिक धनवान हैं। न्यूज़ीलैंड की ऑकलैंड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक क़्वेंटिन एटकिंसन कहते हैं, “असल में, लोगों में इस बात का डर कम हुआ है कि उन पर क्या बीत सकती है।” लेकिन धर्म में आस्था उन समाजों और देशों में भी घटी है जिनमें ख़ासे धार्मिक लोग हैं जैसे – ब्राज़ील, जमैका और आयरलैंड।

प्रोफ़ेसर फिल ज़करमैन कहते हैं, “दुनिया में बहुत कम समाज हैं, जहां पिछले 40-50 साल के मुक़ाबले में धर्म में आस्था बढ़ी है। एक अपवाद ईरान हो सकता है लेकिन सही से आंकना मुश्किल है क्योंकि धर्मनिरपेक्ष लोग अपने विचार छिपा भी रहे हो सकते हैं।”

नास्तिकता अथवा नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद, वह सिद्धांत है जो जैसा कि माना जाता है कि जगत की सृष्टि करने वाले, इसका संचालन और नियंत्रण करने वाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग ईश्वर (भगवान) के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण न होने कारण झूठ करार देते हैं। नास्तिकों के विचार में आस्तिकों द्वारा दिए गए ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए सभी प्रमाण प्रमाणाभास हैं। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, परालौकिक शक्ति, धर्म और आत्मा को नहीं मानते।

हिन्दू दर्शन में नास्तिक शब्द उनके लिये भी प्रयुक्त होता है जो वेदों को मान्यता नहीं देते क्योंकि इस धर्म के अनुयायियों के अनुसार वेदों को विश्व का प्रथम धर्मग्रन्थ माना जाता है। इसलिए जब वैदिक युग के दौरान कोई दूसरा प्रभावशाली धर्म नहीं था तब जो वेद मानने से इंकार करता था उसे नास्तिक बोल दिया जाता था। नास्तिक मानने के स्थान पर जानने पर विश्वास करते हैं। वहीं आस्तिक किसी न किसी ईश्वर की धारणा को अपने संप्रदाय, जाति, कुल या मत के अनुसार बिना किसी प्रमाणिकता के स्वीकार करता है। नास्तिकता इसे अंधविश्वास कहती है क्योंकि किन्हीं भी दो धर्मों और मतों के ईश्वर की मान्यता एक नहीं होती है। नास्तिकता रूढ़िवादी धारणाओं के आधार पर नहीं बल्कि वास्तविकता और प्रमाण के आधार पर ही ईश्वर को स्वीकार करने का दर्शन है। नास्तिकता के लिए ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने के लिए अभी तक के सभी तर्क और प्रमाण अपर्याप्त है।

ईश्वरवादी कहते हैं कि मनुष्य के मन में ईश्वरप्रत्यय जन्म से ही है और वह स्वयंसिद्ध एवं अनिवार्य है। यह ईश्वर के अस्तित्व का द्योतक है। इसके उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वरभावना सभी मनुष्यों में अनिवार्य रूप से नहीं पाई जाती और यदि पाई भी जाती हो तो केवल मन की भावना से बाहरी वस्तुओं का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। मन की बहुत सी धारणाओं को विज्ञान ने असिद्ध प्रामाणित कर दिया है। जगत में सभी वस्तुओं का कारण होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। कारण दो प्रकार के होते हैं-एक उपादान, जिसके द्वारा कोई वस्तु बनती है और दूसरा निमित्त, जो उसको बनाता है। ईश्वरवादी कहते हैं कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी एक कार्य (कृत घटना) है अतएवं इसके भी उपादान और निमित्त कारण होने चाहिए।

कुछ लोग ईश्वर को जगत का निमित्त कारण और कुछ लोग निमित्त और उपादान दोनों ही कारण मानते हैं। इस युक्ति के उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी किसी समय उत्पन्न और आरंभ हुआ था। इसका प्रवाह अनादि है, अत: इसके सृष्टा और उपादान कारण को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यदि जगत का स्रष्टा कोई ईश्वर मान लिया जाय जो अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; यथा, उसका सृष्टि करने में क्या प्रयोजन था? भौतिक सृष्टि केवल मानसिक अथवा आध्यात्मिक सत्ता कैसे कर सकती है? यदि इसका उपादान कोई भौतिक पदार्थ मान भी लिया जाय तो वह उसका नियंत्रण कैसे कर सकता है?

वह स्वयं भौतिक शरीर अथवा उपकरणों की सहायता से कार्य करता है अथवा बिना उसकी सहायता के? सृष्टि के हुए बिना वे उपकरण और वह भौतिक शरीर कहाँ से आए? ऐसी सृष्टि रचने से ईश्वर का, जिसको उसके भक्त सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और कल्याणकारी मानते हैं, क्या प्रयोजन है, जिसमें जीवन का अंत मरण में, सुख का अंत दु:ख में, संयोग का वियोग में और उन्नति का अवनति में हो? इस दु:खमय सृष्टि को बनाकर, जहाँ जीव को खाकर जीव जीता है और जहाँ सब प्राणी एक दूसरे के शत्रु हैं और आपस में सब प्राणियों में संघर्ष होता है, भला क्या लाभ हुआ है? इस जगत की दुर्दशा का वर्णन योग वशिष्ठ के एक श्लोक में भली भाँति मिलता है, जिसका आशय निम्नलिखित है–

सिर्फ इसलिए कि विज्ञान प्रयोग में, समझा नहीं सकता जैसे प्यार जो कविता लिखने के लिए कवि को प्रेरित करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म कर सकता है। यह कहने के लिए एक सरल और तार्किक भ्रांति हैं’ कि, ‘यदि विज्ञान कुछ ऐसा नहीं कर सकता है, तो धर्म कर सकता है।-रिचर्ड डॉकिन्स’। ईश्वरवादी एक युक्ति यह दिया करते हैं कि इस भौतिक संसार में सभी वस्तुओं के अंतर्गत और समस्त सृष्टि में, नियम और उद्देश्य सार्थकता पाई जाती है। यह बात इसकी द्योतक है कि इसका संचालन करने वाला कोई बुद्धिमान ईश्वर है इस युक्ति का अनीश्वरवाद इस प्रकार खंडन करता है कि संसार में बहुत सी घटनाएँ ऐसी भी होती हैं जिनका कोई उद्देश्य, अथवा कल्याणकारी उद्देश्य नहीं जान पड़ता, यथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़, आग लग जाना, अकाल मृत्यु, जरा व्याधियाँ और बहुत से हिंसक और दुष्ट प्राणी।

संसार में जितने नियम और ऐक्य दृष्टिगोचर होते हैं उतनी ही अनियमितता और विरोध भी दिखाई पड़ते हैं। इनका कारण ढूँढ़ना उतना ही आवश्यक है जितना नियमों और ऐक्य का। जैसे, समाज में सभी लोगों को राजा या राज्य प्रबंध एक दूसरे के प्रति व्यवहार में नियंत्रित रखता है, वैसे ही संसार के सभी प्राणियों के ऊपर शासन करने वाले और उनको पाप और पुण्य के लिए यातना, दंड और पुरस्कार देने वाले ईश्वर की आवश्यकता है। इसके उत्तर में अनीश्वरवादी यह कहता है कि संसार में प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त और कोई नियम नहीं दिखाई पड़ते।

पाप और पुण्य का भेद मिथ्या है जो मनुष्य ने अपने मन से बना लिया है। यहाँ पर सब क्रियाओं की प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं और सब कामों का लेखा बराबर हो जाता है। इसके लिए किसी और नियामक तथा शासक की आवश्यकता नहीं है। यदि पाप और पुण्य के लिए दंड और पुरस्कार का प्रबंध होता तथा उनको रोकने और कराने वाला कोई ईश्वर होता; और पुण्यात्माओं की रक्षा हुआ करती तथा पापात्माओं को दंड मिला करता तो ईसामसीह और गांधी जैसे पुण्यात्माओं की नृशंस हत्या न हो पाती।

बौद्ध धर्म मानवीय मूल्यों तथा आधुनिक विज्ञान का समर्थक है और बौद्ध अनुयायी काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं। इसलिए अल्बर्ट आइंस्टीन, बर्नाड रसेल जैसे कई विज्ञानवादी एवं प्रतिभाशाली लोग बौद्ध धर्म को विज्ञानवादी धर्म मानते रहे हैं। चीन देश की आबादी में 91% से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, इसलिए दुनिया के सबसे अधिक नास्तिक लोग चीन में हैं। नास्तिक लोग धर्म से जुडे हुए भी हो सकते हैं।

दर्शन का अनीश्वरवाद के अनुसार जगत स्वयं संचालित और स्वयं शासित है।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार और लेखक हैं आप आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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