Saturday, April 27, 2024

पुस्‍तक समीक्षा: लोकतंत्र के सही मायने बताती कवितायें

पंकज चौधरी का कुछ अरसा पहले प्रकाशित काव्य संग्रह ‘किस-किस से लड़ोगे’ समकालीन कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि यह 75 साल के हो चुके लोकतंत्र का एक और चेहरा, एक अन्य स्थिति को विश्वसनीय शब्दों में उभारती है। यह डॉ. भीम राव अम्बेडकर के उस प्रसिद्ध कथन का समर्थन भी है जिसमें उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए बेहद जरूरी कारक कहा था। यह संग्रह उन लोगों के इस बयान की भी खबर लेता है जो अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि- ‘अब जाति भेदभाव कहां है? कब की समरसता आ चुकी। राम राज्य आ चुका।’ ऐसे नमूने समाचार पत्रों की ख़बरें भी बस अपनी जातीय भावना के अनुसार पढ़ते हैं। 

पंकज जी की कविता की जमीन जातीय और आर्थिक तौर पर विभाजित सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है। तमाम जातीय सुधार और उन्मूलन आन्दोलन, संविधान के नियम कानून और डॉ. अम्बडेकर और महात्मा गांधी के बड़े अभियानों के बाद भी जाति व्यवस्था कुछ ही कमजोर पड़ी है, गरीबों को बेहद अपमानजनक जिन्दगी मिली है। जाति तोड़ने की बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी न गरीबी और भेदभाव का न्यूनीकरण हुआ। आत्महत्या करते परिवारों की ख़बरें इस सामाजिक-आर्थिक ढांचे की भयावहता के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। भाजपा और आरएसएस की राजनीति अनिवार्यतः मानवीय और आर्थिक समानता की विरोधी है। और कथित उच्च-जातीय वर्चस्व पर आधारित भी।

संग्रह का शीर्षक है : ‘किस- किस से लड़ोगे’। ये लड़ने वाला वर्ग दलित-पिछड़ा-आदिवासी समाज है। इन समाजों से लम्बे संघर्षों और कुछ कानूनी हस्तक्षेप के बाद गिनती के लोग सम्मानजनक जीवन स्थितियों को छू ही पाए थे कि संघ-भाजपा ने आरक्षण की समीक्षा पर बयान देने शुरू किये। मेरिट की चर्चा शुरू की। ऐसा हर स्तर पर हुआ-न्यायलय से लेकर संसद तक….गली-मोहल्लों से लेकर स्कूल-कॉलेज तक। जबकि एक सुखी, सुसंगत और तर्कपूर्ण समाज के लिए इन क्षेत्रों में व्यापक जन समुदाय की भागीदारी बेहद जरूरी है।

संग्रह में कुल 63 कवितायें हैं। यद्यपि सबका प्रस्थान बिंदु जाति-संरचना और जातीय भेदभाव के व्यवहार हैं, पर हर कविता कहन में एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न है। यह पंकज जी की जबरदस्त प्रतिभा है कि कविताई को उन्होंने कहीं भी मंद नहीं पड़ने दिया। यहां कविताई ब्राहमणवाद-नियंत्रित शिल्प से पूर्णतः मुक्त है। शब्द-वाक्य और शैली भी। एक तरह से कविता में एक ही तथ्य का खूब फुर्सत से विस्तार है….एक तरह तथ्य संग्रह के साथ कविताई। कोई भी सहमत या असहमत हो सकता है पर तथ्य को नकार नहीं सकता-ये पंकज की कविताओं की ताकत है। कविता एक मुद्दे पर उठती है और अपनी नींव पर ईंट पर ईंट जमाते हुए एक विचारों की बिल्डिंग खड़ा कर देती है:

“वे ब्राह्मणवादी नहीं हैं/लेकिन ब्राह्मणों को ही कवि मानेंगे।” इस कविता का मूल आधार यही है कि ‘वे ब्राह्मणवादी नहीं हैं’ और फिर पुरस्कार, मंच, नौकरी, लेखक-संगठन, आलोचक, नेता-सभी को ब्राह्मण के पक्ष में काम करते पाएंगे। क्या वाम, क्या दक्षिण, क्या मध्य मार्गी। सभी। और अंत में ब्राह्मणवादियों की आलोचना करने वालों को ‘जातिवादी’ करार देंगे। आप देख लीजिये इस कविता का कहन और तथ्य। सहमत हो सकते हैं या असहमत लेकिन ऐसी कार्य-प्रणाली है समाज की-नकार नहीं पाएंगे। किसी भी संस्था के काम यही बताते हैं।

एक बेहद खूबसूरत कविता है: ‘‘मैं हार नहीं मानूंगा/तो तुम जीतोगे कैसे

                           मैं रोऊंगा नहीं/तो हंसोगे कैसे

                           मैं दुखी दिखूंगा ही नहीं/तो तुम सुख की अनुभूति करोगे कैसे”

और सबसे बढ़कर :   

                 “मैं अभिशप्त नायक ही सही

                  लेकिन तू तो खलनायक से भी कम नहीं।”

ये कवि का आत्मविश्वास है। ये कवि की चुनौती है। ये कवि का मूल्यांकन है। ये कवि की अभिव्यक्ति है। ये इतिहास बदलने वाली पंक्ति है। ये शोषितों-वंचितों के पक्ष में सबसे खूबसूरत कविता है। मुक्तिबोध के शब्दों में ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ है। ‘अभिशप्त नायक’ की कितनी बड़ी इतिहास से पुष्ट होती हुई तस्वीरें उभर आती हैं : बुद्ध, आर्यभट्ट, चार्वाक, कबीर, सरहपा, एकलव्य, शम्बूक, कर्ण। ये प्रतिरोध की जबरदस्त अभिव्यक्ति है।

‘स्त्री विमर्श’, ‘कविता में’, ‘अपने-अपने अन्धविश्वास’,‘इस लोकतंत्र में’ ऐसे ही तेवर की कवितायें हैं। कविताओं में आत्म-आलोचन भी है। ‘आत्मविश्वास’ उनकी ऐसी ही कविता है जिसमें पंकज जी लिखते हैं- : तुम आत्मविश्वास खो चुके हो/इसलिए कोई भी तुम्हें डरा देता है/प्रकृति भी तुझे डरा देती है”  – यदि दलित-शोषित वर्ग आत्मविश्वास अर्जित कर ले तो उसका डरना बंद हो जाएगा।

उर्मिलेश, प्रियदर्शन, कंवल भारती, कमलेश वर्मा, गुलज़ार हुसैन समेत कई आलोचकों ने इस संग्रह की कविताओं का हवाला देते हुए पंकज जी को ‘साहस का कवि’ कहा है। कबीर के बाद सामाजिक स्थितियों पर मजबूत अभिव्यक्ति देने वाला कवि कहा है। मैं उनके इस कथन से सहमत हूं। पंकज चौधरी सचमुच ‘साहस के कवि’ हैं। कमलेश वर्मा जी का इस संग्रह पर लेखन पढ़ते हुए मंडी हाउस कि वे शामें याद हो आयीं जब पंकज जी धारदार और आक्रामक बहसें करते रहते थे। 

इस संग्रह को 75 वर्षीय लोकतंत्र की एक समीक्षा के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। जबकि शासक वर्ग के लोग ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मनाते हुए बेशर्म उत्सवधर्मिता का परिचय देते रहे हैं जबकि इसी वक्त गरीबी-शोषण-अपमान-भेदभाव-हिंसा के तले करोड़ों जिंदगियां सिसक रही हैं। ‘किस-किस से लड़ोगे’ इसी स्थिति का एक बयान है। एक मजबूत आवाज है जिसे सुनना ही होगा।

कविता संग्रह : किस-किस से लड़ोगे

कवि: पंकज चौधरी

प्रकाशन: सेतु प्रकाशन, नोएडा

मूल्‍य : 199 रुपये

(मनोज मल्हार की समीक्षा।)

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