Friday, March 29, 2024

पुण्यतिथिः मुंशी प्रेमचंद मानते थे- किसानों को स्वराज की सबसे ज्यादा जरूरत

हिंदी-उर्दू साहित्य में कथाकार मुंशी प्रेमचंद का शुमार, एक ऐसे रचनाकार के तौर पर होता है, जिन्होंने साहित्य की पूरी धारा ही बदल कर रख दी। देश में वे ऐसे पहले शख्स थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य को रोमांस, तिलिस्म, ऐय्यारी, जासूसी कथानकों से बाहर निकालकर आम जन की जिंदगी से जोड़ा। दलित, अल्पसंख्यक और महिलाओं के अफसानों, जज्बात को अपनी कहानियों में ढाला। उन्हें अपनी आवाज दी। साहित्य को यथार्थ से जोड़ने और समाजोन्मुखी बनाने में मुंशी प्रेमचंद का अहम योगदान है। ‘पूस की रात’, ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘ईदगाह’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘नमक का दारोगा’, ‘मंत्र’, ‘नशा’ आदि उनकी अनेक कहानियों में सामाजिक यथार्थ के दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। प्रेमचंद हमारे क्लासिक के साथ-साथ आधुनिक और संदर्भवान लेखक थे।

उनका रचना संसार बाल्जाक या तोलस्तोय के साहित्य की तरह ही समाज के भीतर का रचना संसार है। घीसू, होरी, अमीना बी, जुम्मन, सूरदास, बूढ़ी काकी हमारे अपने समाज की देन और बेलाग चरित्र हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी कहानियों का मुख्य किरदार बनाया। मुंशी प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य पर यदि नजर डालें तो, उनका साहित्य उत्तर भारत के गांव और संघर्षशील किसानों का दर्पण है। उनके कथा संसार में गांव इतनी जीवंतता और प्रमाणिकता के साथ उभर कर सामने आया है कि उन्हें ग्राम्य जीवन का चितेरा भी कहा जाता है। प्रेमचंद अकेले किसान की ही कहानी नहीं कहते हैं, बल्कि किसान की नजर से पूरी दुनिया की कहानी भी कहते हैं।

31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के छोटे से गांव लमही में जन्मे मुंशी प्रेमचंद का सारा जीवन किसानों के बीच बीता। वे किसानों के साथ रहे, उनके हर सुख-दुख में हिस्सेदारी की। जाहिर है कि जिस परिवेश में उनका जीवनयापन हुआ, उसमें गांव-किसान खुद-ब-खुद उनकी चेतना का अमिट हिस्सा बनते चलते गए। ‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘कर्मभूमि’ वगैरह उनके कई उपन्यासों की कहानी किसानों, खेतिहर मजदूरों की जिंदगानी और उनके संघर्षों के ही इर्द-गिर्द घूमती है। इन उपन्यासों में वे औपनिवेशिक शासन व्यवस्था, सामंतशाही, महाजनी सभ्यता और तमाम तरह के परजीवी समुदाय पर जमकर निशाना साधते हैं। भारतीय गांवों का जो सजीव, मार्मिक चित्रण प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ में किया है, हिन्दी साहित्य में वैसी कोई दूसरी मिसाल हमें ढूंढे नहीं मिलती।

मुंशी प्रेमचंद ने अकेले उपन्यास में नहीं, बल्कि कहानियों और अपने लेखों में भी किसानों के सवाल उठाए। वे किसानों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के पक्षधर थे। ‘आहुति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूं’ और ‘सद्गति’ आदि उनकी कहानियों में किसान और खेतिहर मजदूर ही उनके नायक हैं। सामंतशाही और ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था किस तरह से किसानों का शोषण करती है, यह इन कहानियों का केन्द्रीय विचार है। प्रेमचंद किसानों के साथ-साथ दलित, स्त्री मुक्ति प्रश्नों को भी साहित्य के केंद्र में लाए।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के ऊपर कितनी सामाजिक बेड़ियां हैं, इनका भी उनके साहित्य में जगह-जगह जिक्र मिलता है। ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ आदि उपन्यासों में प्रेमचंद ने बड़ी ही कुशलता से भारतीय समाज में स्त्री की दारुण स्थिति को चित्रित किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वेश्यावृति, बाल विवाह, बेमेल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई, तो वहीं महिलाओं की शिक्षा एवं विधवा विवाह के पक्ष में भी लिखा। प्रेमचंद के महिला किरदार अन्याय सहन नहीं करते, उसका तीखा प्रतिकार करते हैं।

साल 1917 में रूस की अक्तूबर क्रांति से एक विचार, एक चेतना मिली जिसका असर सारी दुनिया पर पड़ा। प्रेमचंद भी रूसी क्रांति से बेहद प्रभावित थे। अपने दोस्त के नाम एक खत में उन्होंने इसका साफ जिक्र किया है, ‘‘मैं बोल्शेविकों के मतामत से कमोबेश प्रभावित हूं।’’ वर्गविहीन समाज का सपना प्रेमचंद का सपना था। ऐसा समाज जहां वर्ण, वर्ग, लिंग, रंग, नस्ल, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर कोई भेद न हो। शुरुआत में गांधी जी के अहिंसक आंदोलन में अपार श्रद्धा रखने वाले मुंशी प्रेमचंद का आदर्शवाद उनके आखिरी काल में लिखे हुए साहित्य में टूटता दिखता है। साल 1933 में समाचार पत्र ‘जागरण’ के एक संपादकीय में वे लिखते हैं, ‘‘सामाजिक अन्याय पर सत्याग्रह से फतेह की धारणा निःसन्देह झूठी साबित हुई है।’’

यही नहीं आगे चलकर अपने उपन्यास के एक पात्र के मुंह से जब वे यह वाक्य बुलवाते हैं, ‘‘शिकारी से लड़ने के लिए हथियार का सहारा लेना जरुरी है, शिकारी के चंगुल में आना सज्जनता नहीं कायरता है।’’ तब हम यहां उपन्यास ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ के लेखक से इतर एक दूसरे ही प्रेमचंद को साकार होता देखते हैं। गोया कि इसके बाद ही प्रेमचंद ‘गोदान’ जैसा एपिक उपन्यास, ‘कफन’ जैसी कालजयी कहानी और दिल को झिंझोड़ देने वाला अपना आलेख ‘महाजनी सभ्यता’ लिखते हैं। उनकी इन रचनाओं से पाठक पहली बार भारतीय समाज की वास्तविक और कठोर सच्चाईयों से सीधे-सीधे रूबरू होता है। 

प्रेमचंद का युग हमारी गुलामी का दौर था। जब हम अंग्रेजों के साथ-साथ स्थानीय जागीरदारों, सामंतों की दोहरी गुलामी भी झेल रहे थे। वे दोनों को ही एक समान अवाम का दुश्मन समझते थे। ‘प्रेमचंद घर में’ उपरोक्त किताब के एक अंश में वे अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं, ‘‘शोषक और शोषितों में लड़ाई हुई, तो वे शोषित, गरीब किसानों का पक्ष लेंगे।’’ बिला शक प्रेमचंद की कहानी, उपन्यासों में यह पक्षधरता और प्रतिबद्धता हमें साफ दिखलाई देती है।

उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में वे जहां सामूहिक खेती और वर्गविहीन समाज की वकालत करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर विदेशी शासन और शोषणकारी जमींदारी गठबंधन का असली चेहरा बेनकाब करते हैं। उनकी नजरों में आजादी का मतलब दूसरा ही था, जो शोषणकारी दमनचक्र से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के बाद ही मुमकिन था। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम के माध्यम से प्रेमचंद एक ऐसे कानून की जरूरत बताते हैं जो, ‘‘जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले ले।’’

साल 1933 में समाचार पत्र के अपने एक दीगर संपादकीय में प्रेमचंद लिखते हैं, ‘‘अधिकांश भारतीय स्वराज इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी ही आवाज, बहसें सुनी जाएं बल्कि स्वराज का अर्थ उनकी प्राकृतिक उपज पर नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपयोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छा अनुसार मूल्य लेने का स्वत्व। स्वराज का अर्थ केवल आर्थिक स्वराज है।’’ यानी उनके मतानुसार किसानों को स्वराज की सबसे ज्यादा जरूरत है। यही नहीं उनका यह भी मानना है कि आर्थिक आजादी के बाद ही वास्तविक आजादी मुमकिन है।

उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में अपने पात्रों से प्रेमचंद कहलाते हैं, ‘‘रूस देश में कास्तकारों का ही राज्य है, वह जो चाहते हैं, करते हैं।’’ और कादिर कौतुहल से कहता है, ‘‘चलो ठाकुर उसी देश में चलें।’’ कहा जा सकता है कि काल और अनुभव की व्यापकता से प्रेमचंद के विचारों में बदलाव आता गया, जो बाद में उनकी कहानी, उपन्यास, लेखों में साफ परिलक्षित होता है।

प्रेमचंद ने अपने लेखन से सुंदरता की कसौटी बदली। उनकी नजर में साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो। अपने साहित्य में उन्होंने न सिर्फ आम आदमी की कहानी कही, बल्कि उस जुबान में लिखी जो साधारण से साधारण पाठक को भी आसानी से समझ में आ जाए। कहावतों और मुहावरों में ढली उनकी भाषा, पढ़ने में एक अलग ही मजा देती है। रामवृक्ष बेनीपुरी ने हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की अहमियत बतलाते हुए लिखा है, ‘‘प्रेमचंद ने हमें केवल जनता का ही साहित्य नहीं दिया, बल्कि वह साहित्य कैसी भाषा में लिखा जाए, उसका पथ निर्देश भी किया। जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उनकी कुटिया, मढ़ैया से घसीटकर सरस्वती मंदिर में लाए और यूं ही कितने अनधिकृत शब्दों को जो केवल बड़प्पन का बोझ लिए हमारे सिर पर सवार थे, इस मंदिर से बाहर किया।’’ 

8 अक्टूबर, 1936 को प्रेमचंद ने इस दुनिया से अपनी आखिरी विदाई ली। 56 साल की अपनी छोटी सी जिंदगी में उन्होंने बेशुमार लिखा। साहित्य का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र छूटा, जिसमें उन्होंने अपना लेखन नहीं किया हो। कहानी और उपन्यासों के अलावा उन्होंने ‘कर्बला’, ‘रूहानी शादी’, ‘संग्राम’, ‘प्रेम की वेदी’ जैसे नाटक लिखे, तो उनके प्रमुख निबंध- ‘कुछ विचार’, ‘विविध प्रसंग’, ‘कलम’, ‘महात्मा शेख सादी’, ‘दुर्गादास’, ‘त्याग और तलवार’ आदि किताबों में संकलित हैं। इनमें ज्यादातर विचारोत्तेजक निबंध हैं। उन्होंने रूसी साहित्यकार तोलस्तोय की कहानियों का अनुवाद भी किया। साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ और समाचार-पत्र ‘जागरण’ के संपादन का जिम्मा संभाला। गोया कि हर क्षेत्र में वे कामयाब रहे।

प्रेमचंद ने भारतीय समाज का गहन और व्यापक अध्ययन किया था। विश्व की प्रमुख घटनाओं, साहित्य से भी वे अछूते नहीं थे। साम्राज्यवाद, सामंतवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता को वे इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन समझते थे और इनके खिलाफ उन्होंने ताउम्र लिखा। प्रेमचंद के समकालीन और उनके बाद के कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने साहित्य में उनके योगदान को खुले दिल से स्वीकारा है।

अक्तूबर, 1936 में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने एक समाचार-पत्र ‘भारत’ में प्रेमचंद से हुई अपनी मुलाकातों के बारे में एक भावनात्मक लेख लिखा था। उस लेख में प्रेमचंद के बारे में उन्होंने क्या खूब लिखा है, ‘‘मैं जब बाबू राजेंद्र प्रसाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्र के समादृत नेताओं को देखता हूं और साथ-साथ मुझे श्री प्रेमचंदजी की याद आती है, मेरा हृदय आनंद और भक्ति से पूर्ण हो जाता है। मैं देखता हूं, राजनीति के सामने साहित्य का सर नहीं झुका, बल्कि और ऊंचा है, केवल देखने वाले नहीं हैं।’’

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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