Thursday, March 28, 2024

आरएसएस की जुबानी, आरएसएस की कहानी

पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी की चंद रोज पहले ही किताब आई है- ‘आर.एस.एस. (संघ का सफर: 100 वर्ष)। पैंतीस छोटे-छोटे कहानियोंनुमा अध्यायों से बनी 206 पन्नों की किताब। संघ को विचारधारा का पर्याय मान कर राजनीति और विचारधारा के बीच संबंधों के एक चिरंतन सवाल से शुरू करके अंत में राम मंदिर के निर्माण तक के पूरे सफर के तथाकथित मील के पत्थरों को बताता हुआ, एक ‘विचारधारा’ की ऐतिहासिकता का आभास देता हुआ आख्यान।

किताब का पहला अध्याय है- ‘संघ की विचारधारा-सत्ता’। कहा जाए तो इन्हीं दो चीजों के, विचारधारा और राजनीति के तथाकथित द्वांद्विक सह-अस्तित्व की अवधारणा पर ही एक प्रकार से इस पूरी किताब को विन्यस्त किया गया है।

किताब का प्रारंभ अटल बिहारी वाजपेयी के इस प्रकार के एक कथन से होता है कि विचारधारा पर अटल रह कर राजनीति नहीं की जा सकती है। इसी में आगे संघ के गुरु गोलवलकर साफ शब्दों में यह कह कर फारिग हो जाते हैं कि बिल्कुल की जा सकती है और दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं। मजे की बात यह है कि गोलवलकर की इतनी साफगोई के बाद भी यहां पूरा विषय असमाधित ही रह जाता है। वाजपेयी अंत तक गुरु जी से दिशा-निर्देश मांगते रह जाते हैं और गुरु जी इतना कह कर ही शांत हो जाते हैं कि हमें जो कहना था, कह दिया, समझदार को इशारा ही काफी है, और आगे की गाड़ी इसी ऊहा-पोह में अपनी गति से चलने के लिए छोड़ दी जाती है।

हम यहां यह बुनियादी सवाल उठाना चाहते हैं कि किसी भी राजनीतिक संगठन में विचारधारा और राजनीति को लेकर आखिर यह स्थिति पैदा कैसे होती है? अक्सर तमाम संगठनों में यह बात किसी न किसी मौके पर सिर उठाती हुई दिखाई देती है। हमारा सवाल है कि क्या ऐसा इसलिए तो नहीं है कि इसमें कहीं न कहीं, विचारधारा और राजनीति, इन दोनों के बारे में ही कोई मूलभूत अवधारणात्मक दोष काम कर रहा होता है? राजनीति, अर्थात राजसत्ता के लिए किसी समूह की दैनंदिन ठोस गतिविधियों और विचारधारा का विषय क्या दो स्वयं में अलग-अलग, दो ठोस यथार्थों के सहअस्तित्व की तरह का विषय है और विवाद का विषय क्या यह है कि ये दोनों किस हद तक साथ-साथ रह सकते हैं और किस हद तक नहीं?

गहराई से देखें तो विचारधारा का स्वरूप तो बीज और अंकुर के बीच के एक ‘संबंध’ की तरह होता है, जिस ‘संबंध’ का अपना कोई बाह्य यथार्थ नहीं हुआ करता है। यह तो बीज से की जाने वाली एक अपेक्षा है, जो ठोस यथार्थ का नहीं, महज अनुभूति का विषय है। जब भी कोई इस विषय को दो ठोस यथार्थ के सहअस्तित्व के रूप में देखने लगेगा, वह इस पूरे विषय को ही बहुत संकीर्ण बना देगा। वास्तविकता में यह स्वयं में बहुलता की एकता का विषय है, एकानेकरूपार्थः और जब कोई इस अनुभूति का विश्लेषण करता है तो वह इसी unity of multiplicity की क्रियात्मकता को, एक अपेक्षा, एक अनुभूति की क्रियात्मकता को उजागर करता है।

इसीलिए विचारधारा की चर्चा हमेशा एक ऐसे कनस्तर के रूप में भी की जाती है, जिसमें एक नहीं, हजार नहीं, सारे ब्रह्मांड के विषय, मनुष्य की अपेक्षाओं की तरह, एक सर्वथा अनुभूतिपरक बाह्य सत्य की तरह शामिल होते हैं। इनके तथाकथित द्वैत की बात राजनीतिक संगठनों में वर्चस्व की कोरी पैंतरेबाजी हुआ करती है, इसका यथार्थ में अलग से कोई अर्थ नहीं होता है। इसीलिए इस कथित द्वैत को सत्य मान कर चलना इस पैंतरेबाजी पर एक प्रकार की पर्दादारी के समतुल्य होता है।                             

बहरहाल, पुण्य प्रसून की इस पूरी किताब का यही सच है कि इसे एक प्रकार से आरएसएस की जुबानी आरएसएस का सच कहा जा सकता है। इसकी विडंबना भी यही है कि किसी भी विषय के प्रत्यक्ष को व्यक्त करने के लिए, अर्थात उसकी गांठों के तल तक बढ़ने के पहले कदम के तौर पर तो उस विषय के आत्मकथन की एक भूमिका होती है, लेकिन कोई भी विश्लेषण यदि उसी ऊपरी, तलछट पर दिखाई देने वाले रूप तक ही सीमित रह जाता है तो वह विश्लेषण नहीं, एक प्रकार से विषय की शुद्ध पैरवी का रूप ले लेता है।

फ्रायड के विश्लेषण की पद्धति का एक आप्तवाक्य है कि हमेशा प्रमाता (subject) की अपने बारे में कही गई किसी भी बात पर कभी विश्वास न करो। उसकी अपनी बातें, उसका कथित आत्म-निरीक्षण उसके अपने अहम् के क्षेत्र से आते हैं, और प्रमाता में अहम् की भूमिका हमेशा सिर्फ अपनी संहति और पूर्णता को पेश करने की होती है। वह प्रमाता के व्यवहार में तर्क और संहति के अभाव को छिपाने का काम करती है, इसीलिए कभी विश्वसनीय नहीं होती है। इस पर ध्यान देने में कोई बुराई नहीं है, पर जब वह प्रमाता के अपने गतिरोध के बिंदुओं को लक्षित करने के बजाय विश्लेषक के खुद के काम में गतिरोध का कारक बन जाए, तो इस पर टिका विश्लेषण अंततः किसी काम का नहीं रह जाता है।

मसलन, पुण्य प्रसून की इस किताब में हेडगेवार के मानस के गठन में जिस प्रकार चौदहवीं सदी के श्रृंगेरी शारदा पीठ के जगदगुरु विद्यारण्य स्वामी से लेकर सत्रहवीं सदी के समर्थ गुरु रामदास और बाद में तिलक के प्रभाव की जो कहानियां कही गई हैं, उन्हें कोई भी विश्लेषक बड़ी आसानी से बीस के दशक के सांप्रदायिक माहौल में नागपुर के चंद लोगों को लेकर शुरू की गई अखाड़ों की हेडगेवार की हिंदू सांप्रदायिक गतिविधियों पर शास्त्रीय औचित्य की शुद्ध प्रचारमूलक लीपापोती के रूप में देख सकता है। आरएसएस के जन्म और गांधीजी की हत्या तक की उसकी तमाम गतिविधियों की दिशा के बारे में देश और दुनिया के राजनीतिक पटल पर मुस्लिम सांप्रदायिकता और हिटलर के बर्बर राष्ट्रवाद के उदय, उसके तीव्र यहूदी-विरोधी हत्या-अभियानों के साक्ष्यों के हवालों से अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

इस लेखक ने भी काफी शोध करके अपनी किताब में आरएसएस के तात्विक आधार के इन तमाम साक्ष्यों को पेश किया है। पर पुण्य प्रसून वाजपेयी के लिए इन बातों का महज इसलिए शायद उस प्रकार का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि आज आरएसएस कोई हाशिये का संगठन नहीं, भारत की सत्ता को नियंत्रित करने वाला संगठन है।

किसी भी विश्लेषण की सफलता हमेशा इस बात पर निर्भर करती है कि वह प्रमाता के आत्म-साक्ष्यों की तरह की चीजों को खंडित करते हुए उसे स्वस्थ और सामान्य जीवन के मानदंडों की रोशनी में खड़ा करे। पुण्य प्रसून इस मामले में पूरी तरह से चूक गए नजर आते हैं। इस मानदंड पर पुण्य प्रसून की यह किताब हमें जरा भी संतोषप्रद नहीं लगती, बल्कि यह किसी भी चालू पत्रकार की तरह, जो प्रत्यक्ष नजर आता है या नजर में लाया जाता है, उसी के आख्यान से अपना काम चलाती है।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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