Friday, April 19, 2024

पुस्तक समीक्षा: झूठ की ज़ुबान पर बैठे दमनकारी तंत्र की अंतर्कथा

“मैं यहां महज़ कहानी पढ़ने नहीं आया था। इस शहर ने एक बेहतरीन कलाकार और प्रतिभाशाली रचनाकार को निगल लिया था। उसकी डायरी एक उत्कृष्ट नमूना थी। इस बात की गवाही थी कि वो नायक था। लेकिन उसके होने न होने से ही शहर को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। या फ़र्क पड़ रहा था, इसलिए उसे निगल लिया गया था।” (वैधानिक गल्प, पृष्ठ 123)

“बहुत कम सच्चाइयां मृत्यु जितनी स्पष्ट होती हैं। अधिकतर सच किसी झूठ के कुहासे में उलझे होते हैं। लेकिन वहाँ कुहासे की एक परत हटाते ही हक़ीक़त का आभास होने लगता है।” (वैधानिक गल्प, पृष्ठ 109)

“संबंधों में झूठ और धोखे इसलिए भी खप जाते हैं क्योंकि लोग अकेले नहीं छूट जाना चाहते। इसलिए वो इशारों को दरकिनार करते हैं। नंगी सच्चाइयों को मन के वहम से ढांप लेते हैं।” (वैधानिक गल्प, पृष्ठ 103)

अजब शुतुरमुर्ग समय में जी रहे हैं हम!

संघर्ष को द्वेष में, ऊर्जा को हिंसा में, सामंजस्य को सांप्रदायिकता में तब्दील कर हम अपने हाथों जिंदगी पर मौत का पलीता लगा रहे हैं और हर हादसे के लिए पड़ोसी को दोषी ठहराने का बेशर्म लुत्फ उठा रहे हैं।

मौत को हराने का कीर्तन करते हुए एक-एक कदम मौत के मुंह में फिसलते हुए …

मौत सांस का रुक जाना भर ही तो नहीं।

मौत है विश्वास का, सद्भाव का, सपनों के संघर्षों का चुक जाना!

मौत है बदहवास दौड़ जो कहीं से चलकर कहीं नहीं पहुंचती। बस, अपने ही दायरे में घूमते हुए अपने को थका डालती है!

मौत है सृजन के उस स्वर को न सुन पाना जो यथास्थिति को तोड़कर एक हुंकार के रूप में निकलता है!

मौत है मखमली कालीन के नीचे सारी सच्चाइयों को सरका देना और रिसते जख्मों पर अतीत की किसी एक्सपायरी डेटेड दवाई का लेप करना!

उफ! कितनी इंटेंस रचना है चंदन का लघु उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’.

रचना जब अपने चरित्रों, घटनाओं, संदर्भों से बाहर निकलकर पाठक के साथ उसके अपने समय में, उसके जेहन में प्रवेश कर जाए और आंखों के सामने रोज-रोज दफन की जा रही सच्चाइयों को उघाड़ने लगे, तब वह अपने कपाल में अनंत काल तक जीने का दर्द लिखा कर लाती है। हां, जीने का दर्द ही। मैं इसके बजाय कह सकती थी – कालजयी होने की ताकत। लेकिन ‘जीने’ में वक्त की सीमाओं को पार कर जहां नई-नई सभ्यताओं और संस्कृतियों की लीपा-पोती का हिस्सा बनने का उत्सुक सुख है, वहीं समय का अपनी तमाम बर्बरता और आदिम गंध के साथ उसी बिंदु पर ठहर कर जिए हुए को बार-बार जीने का दंश भी है। कैसा अंतर्विरोध कि जितनी तेजी से हम भविष्य के अनदेखे रास्तों की ओर छलांगते चलते हैं, उतनी ही जड़ीभूत विमूढ़ता के साथ अपने पाशविक अस्तित्व की खौंखियाहट में दूसरे को नोचते-खसोटते चलते हैं।

 मैं ‘वैधानिक गल्प’ पढ़ रही हूं और सोच रही हूं, रचना को कला के दायरे में समेटना क्या उसकी व्यापकता और गहराई को काट-तराश कर बोनसाई बना देने का जतन नहीं? साहित्यिक रचना निस्संदेह कला है- पाठक की भाव-तरंगों को झंकृत कर उसे उसके सुख-दुख, सपनों-ख्वाहिशों के दैनंदिन मकड़ जाल से निकालकर किसी और यात्रा पर ले जाने वाला स्पंदन! लोक और अलौकिकता के बीच विन्यस्त वह पाठक को जीवन-धारा के बीचों-बीच बहने का सुख भी देती है और लोक के भंवर से किनारा कर अपने किसी आशियाने का निर्माण करने की चेतना भी।

वह यथार्थ भी है, और यथार्थ से मुठभेड़ कर नए क्षितिजों को खोलने का आह्वान भी। बस, वह पलायन नहीं है। दैन्य, हताशा और आत्मसमर्पण- मनुष्य की नश्वरता को आक्रांत करने वाले ये बीज-शब्द साहित्य का स्वर नहीं होते। साहित्य के पास है – स्वप्न, दर्शन, सृजन की अद्भुत क्षमता और मनुष्य की अपराजेय जिजीविषा में अगाध विश्वास। साहित्य मौत से पराजित नहीं होता। मौत का अतिक्रमण कर अपना शास्त्र खुद रचता है।

‘वैधानिक गल्प’ का विषय हमारे आस-पास मंडराता खौफनाक सच है। इतना करीब कि हाथ बढ़ाकर छू लें। शायद यही वजह है कि वर्तमान में न जी कर अतीत के सुख और भविष्य की चिंता में अपने को गर्त किए रहने की आदत पाल लेते हैं हम ताकि घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर उस से सजग दूरी बनाए रख सकें। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी! हमारी अपनी चुनी हुई प्राथमिकताएं हैं कि क्यों अकादमिक जगत के बुद्धिजीवी जमावड़ों में बात करें आनंद तेलतुंबडे, गौतम नवलखा, सफूरा ज़रगर की गिरफ्तारी की? क्यों बात करें जेएनयू कैंपस में किसी बदनसीब नजीब के लापता हो जाने की? क्यों बात करें किसी अखलाक, किसी पहलू खान, किसी मोहसिन की मॉब लिंचिंग की?

सावन का अंधे हो जाने में ही भलाई है। सब ओर हरा ही हरा दिखता है। इसलिए हम एक बहुसंख्यक भीड़ के बीच अपनी जगह सुरक्षित करते हुए कंधे उचका देंगे – ओह! तो लव जिहाद की समस्या पर केंद्रित है उपन्यास! सबका तनाव ढीला पड़ जाएगा। लव जिहाद! हमारे धर्म-संस्कृति का कोई बदबूदार घाव नहीं। थोड़ी-थोड़ी बांहें फड़कनी शुरू होंगी – अपने धर्म-संस्कृति की ‘माता वंश’ की स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा के लिए। न, लव जिहाद जैसे हाल ही में गढ़े गए शब्दों में हिंसा और नफरत को पिरो कर साझी संस्कृति के समन्वयात्मक सूत्र को नष्ट कर डालने वाली उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक ताकतों पर बात नहीं करना चाहेंगे। शायद इसलिए कि हम जानते हैं, उग्र राष्ट्रवाद के तांडव में बहुसंख्यक समाज के सीने में पैठी नफरती हुंकारें अपने पूरे जोशो-खरोश के साथ शामिल होती हैं। जो लोग साहित्य को स्लीपिंग पिल मानकर बेखबरी के आगोश में डूब जाना चाहते हैं, ‘वैधानिक गल्प’ का पाठ उनके लिए वर्जित फल है।

‘ वैधानिक गल्प’ यानी पोस्ट ट्रुथ समय-समाज की निर्मिति, ताकत और स्वीकृति का विश्लेषणात्मक विवेक! उपन्यास सतह पर लव जिहाद की बात करता है। रफीक और अनसुइया के जरिए! नियाज और अनुराधा के जरिए! महज एक कथा-युक्ति की तरह कि पाठक के कौतूहल पर कब्जा करके वह उसे अपने भाव और विचार की जमीन पर ले आ सके। लेखक को विश्वास है कि एक बार यदि पाठक अपनी तमाम व्यस्तताएं मुल्तवी कर उस से मुखातिब होगा तो फिर वह उसी की संवेदनात्मक वैचारिकी का अक्स बन जाएगा। विश्वास की वजह है लेखक का क्राफ्ट। इन्वेस्टिगेटिव क्राइम रिपोर्टिंग किसके दिल की धड़कन बढ़ाकर खौफ और उत्सुकता की खट्टी-मीठी चटनी चाटने को ललचाती न होगी?

इन्वेस्टिगेटिव क्राइम रिपोर्टिंग यानी रहस्य को उभरते हुए रहस्य को गहराने वाली अनेक अंतर्कथाओं को बुनने का सामर्थ्य! इन्वेस्टिगेटिव क्राइम रिपोर्टिंग यानी परस्पर गुंथी रहस्यावलियों के जरिए समय को खौफनाक बना कर इंसानियत को मार डालने वाली ताकतों पर सीधी उंगली! चंदन पांडेय के पास सधी हुई कहन-भंगिमा से ज्यादा ताकतवर दो अन्य औजार हैं –  आत्मालोचन की नि:संग ईमानदारी और अपने समय को समग्रता में जांचने का विवेकशील धीरज। वे सवाल उठाते हैं कि भरे-पूरे समाज से एकाएक किसी एक व्यक्ति का लापता हो जाना क्या संभव है? इंसान बेजान चीज नहीं जो इसलिए खो जाए कि हम उसे रखकर भूल गए हैं। इंसान को ‘रखने’ का अर्थ है उसे नियंत्रित करना। इसलिए स्वतंत्र चेता इंसान, जिसे नागरिक कहना ज्यादा उचित है, लापता नहीं होता; लापता कर दिया जाता है।

उपन्यास लापता रफीक की खोज के बहाने रफीक जैसे व्यक्तियों को लापता कर देने वाली राजनीतिक-सांस्कृतिक सत्ता की निशानदेही करता चलता है। रफीक व्यवस्था और यथास्थितिवादियों के सामने दो तरह की चुनौती बनकर आता है। पहले, अल्पसंख्यक समुदाय के बाशिंदे के रूप में, जो बहुसंख्यक समाज की आंख की किरकिरी इसलिए है कि वह उनके अनुदान, अनुग्रह, अनुकंपा पर अपना वजूद खड़ा नहीं करना चाहता। वह नागरिक चेतना और गरिमा के साथ अपने हिस्से की जमीन और आसमान के लिए आंदोलन खड़ा करने की ताकत रखता है। उसकी दूसरी ताकत है – विचारशीलता। यथास्थितिवादियों को विचारों की ऊर्जा भयभीत करती है। वे जानते हैं अपनी असलियत कि सांगठनिक ताकत के सहारे केंचुल को सांप बनाकर ‘प्रजा’ को डराने की कला उनकी बुनियाद है। जबकि रफीक जैसे स्वतंत्र सोच संपन्न लोग सीधे सांप का फन पकड़कर उसके विष-दंत निकाल सकते हैं।

समय का सृजन करने वाली ताकतें यथार्थ को विद्रूप बनाने की कुत्सित मंशाओं को नष्ट कर डालना चाहती हैं। मनुष्य की गरिमा की बात करते हुए ऐसी रचनात्मक ताकतें हाशिए पर खड़े हर उस मनुष्य को केंद्र में ले आने की चेष्टा करती हैं जिसका शिकार कर वर्चस्ववादी अपनी ताकत और रुतबा, सत्ता और आभामंडल बनाए हुए हैं। चाहे तो उपन्यास से गुजरते हुए इन सबको कुछ नामों, कुछ चेहरों, कुछ संस्थाओं, कुछ मनोवृत्तियों के जरिए याद किया जा सकता है – पुलिस, मीडिया, न्याय व्यवस्था, राजनेता, कारोबारी-व्यापारी, शिक्षक; और काफिले के अंत में अपनी पांचों इंद्रियां मूंदकर घिसटती चलती बेहाल बेजुबान अंधी जनता! यह बेहद विडंबनापूर्ण स्थिति है कि मौन स्वीकृति की रेशमी तारों में गुंथी आम जनता की सहभागिता सत्ता का दायां हाथ बन कर रचनात्मक सक्रियताओं को कुचल दिया करती है।

उपन्यास में चंदन पांडे इस अंतिम कड़ी – मौन स्वीकृति में बंधी आम जनता – को विश्लेषण का विषय नहीं बनाते। केवल उसकी मृत प्राय अवस्था को इंगित करते चलते हैं जो लापता कर दी गई जानकी के परिवार के क्रंदन में दिखाई पड़ती है। तटस्थ रहने वाले अपनी पक्षधर-हीन उदारता को लेकर कितनी डींग क्यों न मारें, वे अन्याय के प्रसार में क्रूर सत्ता के हाथों का खिलौना ही होते हैं – एक साथ शिकार भी, शिकारी भी।

जाहिर है उपन्यास की अर्थव्यंजना पाठ में नहीं, पाठ के विश्लेषण में निहित है। कह सकते हैं कि उपन्यास का शिल्प किशमिश सरीखा नहीं कि मुंह में रखा और मिठास गले के नीचे उतार लें। वह अखरोट जैसा है – फोड़ने और फिर छिलके के दांतों में फंसे फल को उबारने के लिए मशक्कत मांगता। चंदन पांडेय अपनी इस रचना के पाठ के लिए बुद्धिजीवी पाठक की अपेक्षा करते भी हैं, लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखते हैं कि पाठक समय को रूढ़ छवियों के सहारे ही समझने का प्रयास करें। इसलिए पति की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने आई सात महीने की गर्भवती स्त्री अनसुइया के पेट में बरमे की तरह डंडा घुमाने वाली पुलिस उनके यहां दरिंदगी की सहज विश्वसनीय कहानी लिखती है।

लेकिन किसी वीआईपी के सामने वही पुलिस दारोगा शलभ श्रीनेत की सूरत पहनकर खासी शालीन और कायदापसंद हो जाती है। हेराफेरी और नेटवर्किंग के सहारे व्यापार की गाड़ी चलाने वाले कारोबारी मानवाधिकार आयोग की सदस्यता पाते हैं। चूंकि अखबार का मालिक ही पत्रकार है, इसलिए विज्ञापन जुटाने और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म करने में कहां निजी इंटरेस्ट और व्यावसायिक निष्ठाएं नए संधि-पत्रों के सहारे नए समय की आज आचार-संहिता रचने लगते हैं, समझना कठिन नहीं रहता। शिक्षण संस्थान राजनेताओं के लिए पैसा कमाने की मशीनें बन गए हैं, और शिक्षक की गरिमा दद्दा जैसे गुरु घंटालों की आपराधिक मानसिकता में कहीं बिला गई है जो पढ़ने लिखने वाले शिक्षकों का सार्वजनिक अपमान कर अपने दबदबे को बनाए रखते हैं।

 मूल्यों का विघटन और अराजकता की दुंदुभि किसी एक संस्था, व्यवसाय या वर्ग में अनायास नहीं आते। एक आप्लावनकारी लहर की तरह समूचे समय को दबोचते हुए ये मिलीभगत में काम करने की शैली को विकसित करते हैं। संविधान की शपथ और देशप्रेम की घोषणाओं का झुटपुटा दरअसल भीतर ही भीतर संविधान और न्याय व्यवस्था को हाशिए पर फेंक देने की करामात है। मैं चंदन पांडेय को पढ़ रही हूं और स्मृति में जॉर्ज ऑरवेल के दो उपन्यास ‘नाइन्टीन एटी फोर’और ‘ द एनिमल फार्म’ उछल-कूद मचाए हुए हैं।

समय के जिस अमानुषिक चक्रव्यूह से निकलकर समाज लोकतंत्र (साम्राज्यवाद और अधिनायकवाद के विरोध में) और शांति-सामंजस्य (विश्व युद्ध के विरोध में) की स्थापना में रम गया था, वहां उसकी बेख्याली में कुचली हुई विष-बेलें कैसे नमी-ताप पाकर अंकुरित होती गईं और पूरे ग्लोब में दक्षिणपंथी ताकतों तथा आवारा पूंजी के प्रसार के साथ एक संस्कृति, एक राजनीति, एक आचार संहिता, एक भाषा के प्रयोग को सत्य का रूप देकर अलग-अलग पहचानों पर चस्पां करती गईं- यह हैरत का विषय नहीं, निजी स्तर पर अपने मानस की और सामूहिक स्तर पर तंत्र की शिनाख्त का विषय है।

आपदाएं बहुत मामूली घटनाओं से शुरू होती हैं। जानकी की गुमशुदगी की रिपोर्ट का लिखा जाना और अखबार में मय फोटो प्रकाशित किया जाना सच का एक चेहरा है। उसी सच का दूसरा घिनौना चेहरा है – रफीक की गुमशुदगी की रिपोर्ट को अंत तक न लिखा जाना। संस्थाएं अपनी वस्तुगत निष्पक्षता के साथ तभी न्याय का प्रतिरूप बनती हैं जब उनकी संचालक शक्तियां न्याय की अवधारणा और चरित्र को संरक्षित रखने का बीड़ा उठाएं।

प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ इसलिए बहुत सरल कहानी होते हुए भी आज के दौर में नीति कथा का रूप ले लेती है। गुमशुदगियां और भी हो रही हैं – उपन्यास में भी, समाज में भी। मुकेश की, कौशलपाल की। लेकिन उन्हें नजीब की गुमशुदगी की तरह रिपोर्ट नहीं किया जाता क्योंकि इन्हें रफीक के पक्ष में खड़े होने के लिए दंडित किया जा रहा है। असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर अमनदीप की तरह इन चरित्रों का मनमाना उपयोग करके सनसनीखेज कथा नहीं बनाई जा सकती कि हर घड़ी रुदालियां गाई जाएं – हिंदुत्व खतरे में है। अपरिपक्व मस्तिष्क उन्हीं अपराध-कथाओं में ज्यादा रस लेता है जहां प्रेम और सेक्स के छौंक की संभावनाएं हों। बंद दिमाग पर्वर्ट हो जाया करते हैं अक्सर।

इसलिए रफीक और जानकी को लापता कर दिए जाने की अपनी कारस्तानियों को अंधे कुएं में फेंक दिया जाता है। साथ ही ‘रफीक और जानकी एक साथ लापता हो गए हैं’ – के अर्धसत्य के सहारे लड़कियों की चरित्र हीनता और विधर्मियों के लव जिहाद जैसे अपराधों पर देश, धर्म, संस्कृति, ईमान बचाने की कठमुल्ला बहसों का आयोजन किया जाता है जो लंगडी चाल से हिंदू राष्ट्र के पूर्व निर्धारित एजेंडे तक ही पहुंचती हैं। 

चंदन पांडेय ‘भूलना’ कहानी में व्यवस्था के क्रूर शिकंजे द्वारा कोमल स्वप्निल सर्जक मनुष्य को लीलने का खौफनाक सच पहले ही बयान कर चुके हैं। ‘वैधानिक गल्प’ में उस प्रभाव की छाया है, लेकिन साथ ही अपनी स्थापनाओं को जांचने की विकलता भी है कि क्या सचमुच मनुष्य की अपराजेय जिजीविषा और स्वप्नशीलता ऐसे कुचली जा सकती है? कि यदि दमन सृजन का गला घोटने का अंतिम अस्त्र होता तो क्या सुकरात और गैलीलियो प्रतिरोध और कर्म, स्वप्न और क्रांति की परंपरा बन कर जीवित रह पाते? उपन्यास की ताकत है, सृजनशील व्यक्तियों के अंदरूनी चरित्र की शिनाख्त करना कि कहां वे अपनी ही दुर्बलताओं से दरक जाते हैं, और कहां प्रतिरोध की चट्टानी दीवार बनकर अड़ जाते हैं। प्राणों के मोह से लेकर सिर पर कफन बांधने के जनून तक फैली है सर्जक कलाकार की अंतर्यात्रा जिसे ब्रेख्त ‘गैलीलियो’ नाटक में बेहतर ढंग से उभरते हैं।

‘ वैधानिक गल्प’ में तीन चरित्र महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले सत्ता-व्यवस्था। जैसे रेणु के ‘मैला आंचल’ में प्रकृति जिंदा चरित्र बनकर परिवेश और पात्रों को, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और राजनीतिक-धार्मिक छल-छंदों को रचती है, ठीक उसी तरह व्यवस्था यहां अनेक सिरों, जुबानों, हाथ-पैरों वाली वहशी आकृति में चित्रित की गई है। इसके अतिरिक्त दूसरे दो महत्वपूर्ण चरित्र हैं रफ़ीक और अर्जुन कुमार। शुरू में दोनों बुनियादी तौर पर भिन्न-भिन्न चरित्र दिखते हैं। रफी फौलाद जैसा मजबूत और अर्जुन कुमार चूने जैसा भुरभुरा। अपने कंफर्ट जोन में दुबका बैठा और महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय युवक!

चंदन पांडेय अर्जुन कुमार को अपनी कठपुतली नहीं बनाते। नैरेट का दर्जा देकर उसे खुद अपने अंदर-बाहर फैली हलचलों में डूबने-उतरने का स्पेस देते हैं। तब अपने को चीन्हने के प्रयास में वह पाता है कि “मैं इस कदर डरपोक था, यह मैं नहीं जानता था”; कि “अपराधबोधों से मैं अपराध करने जितना ही डरने लगा हूं”; कि “स्पष्ट दिख रहा था कि शॉर्टकट अपनाने तथा काम निकालने की आदतों ने मेरे व्यक्तित्व को क्षरित कर दिया था। उस क्षरण को मैं विनम्रता का नाम देकर पाल-पोस रहा था। नतीजा यह हुआ कि जहां बराबरी में बैठने की जरूरत थी, वहां मैं रेंग कर पहुंचा।” अपनी कमजोरियों को पहचानना दरअसल उन कमजोरियों से उबरना है।

अपने को मांजते हुए मुकम्मल इंसान बनने की पहली सीढ़ी है यह। इसलिए अचरज नहीं कि कथा के अंत तक आते-आते अर्जुन कुमार अपनी छुपी हुई अंतः शक्तियों को पुनर्संयोजित करने के बाद रफीक का ही प्रतिरूप बन जाता है। पहले रफीक की प्रतिभा और मिशन को सही संदर्भ में पहचानते / रखते हुए; और फिर उसके आंदोलन को दूर तक फैलाने की एक और कड़ी के रूप में ढलते हुए। 

‘वैधानिक गल्प’ की खासियत है कि यह अंधेरों में फंसे होने की त्रासदी को सेलिब्रेट नहीं करता; प्रकाश की जरूरत को महसूसते हुए छोटे-छोटे जुगनुओं से रोशनी की लंबी लकीर खड़ी कर लेना चाहता है। चंदन पांडेय अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए निरंतर उपन्यास की परिचित संरचना में तोड़फोड़ करते चलते हैं। कभी व्यक्ति और व्यवस्था को ठीक उसी तरह एक ही चेहरे में तब्दील कर देते हैं जैसे मोहन राकेश ‘आधे-अधूरे’ नाटक में अपने सभी पुरुष पात्रों को एक ही विशेषता -अधूरापन – का विस्तार बनाकर बताकर उन्हें हमशक्ल बनाते हैं।

कभी पानी में भीगी रफीक की डायरी के बेतरतीब पन्नों में लगभग अपठनीय प्रविष्टियों को महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत करते हैं, मानो कहना चाहते हों अन्याय के विरोध में खड़े व्यक्ति को दमनकारी सत्ता द्वारा मिटाया जा सकता है, लेकिन व्यक्ति के कंठ से निकले शब्दों और शब्दों की परतों से निकली गूंज को मिटाना संभव नहीं। वह क्षीण सी आवाज में हवा में घुल कर टंकार बन जाती है। इस संदर्भ में रफीक की डायरी की अंतिम प्रविष्टि द्रष्टव्य है जहां सिर पर कफन बांधने का जज्बा भी है। और अमर रहने का विश्वास भी।

“पांच सितंबर को दोल मेला है और अपनी परीक्षा। संभावित स्थितियों को देखते हुए सभी को आज से सारे किरदारों का रियाज करना होगा। ऐसा रियाज कि अगर अकेले ही खुदा ना खास्ता करना पड़ जाए यह नाटक, तो करें। कितना अच्छा होगा कि हम सात-आठ लोग अलग-अलग सारे किरदार निभा रहे हों। इस तरह सात-आठ जगहों पर यही नाटक खेला जा रहा हो। अगर कभी यह नाटक अकेले खेलना ही पड़ गया तो ध्यान रहे, मदारी के खेल की तरह खेलना है। हर किरदार की निशानदेही के लिए सारे कॉस्टयूम साथ रखो। अमनदीप के लिए पुलिस हैट। मंगल के लिए उसका अंगोछा।

अमंगल के लिए हथियार। नियाज़ के लिए किताबें रखना। ध्यान रहे कि विज्ञान का विद्यार्थी है। जहीन विद्यार्थी। अनुराधा के लिए दो फूल रखना… शुरुआत डमरू से ही करनी होगी … लेकिन डमरू की धुन के लिए लोकप्रिय मुहावरों को रचना होगा ….और आखिर में, यानी नाटक शुरू करने से ठीक पहले, यह जरूर करना कि दर्शकों को बिठाना। मंच तुम्हारा घर है। उन्हें समझाना कि कौन सी कहानी कहने जा रहे हो। उन्हें यह बतला पाना कठिन काम होगा कि बचाने वाले भगवान होते आए हैं।”

 रक्तबीज की पौराणिक अवधारणा का संबंध असुर से जोड़कर हमेशा उसे नकारात्मक बिंबों के साथ क्यों ग्रहण किया जाए? सिद्ध व्यवस्था के भीतर पलती नृशंसताओं से जूझने के लिए आंदोलन की त्वरा और ऊर्जा को रक्तबीज की तरह अमिट होना ही होगा। लेकिन इसके लिए पहले हर नागरिक को कबूलना होगा की मन की अंतरंग सच्चाइयों में जिस वैधानिक गल्प के झूठ को वह स्वीकार कर रहा है, उसे शब्दों में बांधकर सबके सामने झूठ कहे। (नंगे राजा को नंगा कहने की तर्ज पर) भले ही सत्ता द्वारा गढ़े गए वैधानिक गल्प को झूठ कहते हुए उसकी आवाज कांपे, लेकिन उसे इस विश्वास को अंत तक जीना होगा कि नागरिक चेतना की सामूहिक हुंकार अधिनायकवादियों को मौत के मुंह में खदेड़ने का धारदार औजार है। ‘वैधानिक गल्प’ अपने समय का अक्स है; और समय के पुनर्जन्म में विवेकशील आम आदमी की सक्रिय शिरकत का आह्वान भी।

(सुपरिचित आलोचक रोहिणी अग्रवाल एमडीयू, रोहतक में हिन्दी की प्रोफ़ेसर हैं। यह लेख हंस में प्रकाशित हो चुका है।) 

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