Tuesday, April 23, 2024

जन्मदिन पर विशेष: गंगा-जमनी तहजीब की अद्भुत मिसाल है पंडित भीमसेन जोशी का संगीत का सफर

हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक पंडित भीमसेन जोशी किराना घराने के सदस्य थे, वे शास्त्रीय संगीत की विधा- खयाल में पारंगत थे। उन्हें 2008 में देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया था। भारतीय टेलीविजन पर प्रसिद्ध गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ में उनका सराहनीय योगदान रहा। पंडित भीमसेन जोशी को बचपन से ही संगीत का बहुत शौक था। वह किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे। किराना घराने का नाम उत्तर प्रदेश के कैराना नामक एक छोटे शहर से पड़ा है। इसकी स्थापना उस्ताद अब्दुल करीम खान ने की थी। अब्दुल वाहिद खान, सुरेश बाबू माने, हीरा बाई बडोडकर और रोशनआरा बेगम जैसे प्रसिद्ध कलाकार इस घराने से संबंधित हैं। भीमसेन जोशी ने अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने को समृद्ध किया और दूसरे घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायन में समाहित किया।

कर्नाटक के गड़ग में 04 फरवरी 1922 को उनका जन्म हुआ। पिता गुरुराज जोशी स्थानीय हाई स्कूल के हेडमास्टर तथा कन्नड़, अंग्रेजी एवं संस्कृत के विद्वान थे। उनकी माता का नाम गोदावरी देवी था, जो कि गृहणी थीं। वह अपने 16 भाई बहनों में सबसे बड़े थे। युवावस्था में उनकी मां की मृत्यु हो गई और बाद में उनकी सौतेली माँ ने ही उनका पालन-पोषण किया था। 

पाठशाला के रास्ते में भूषण ग्रामोफोन शॉप थी, ग्राहकों को सुनाए जा रहे रेकॉर्ड सुनने के लिए किशोर भीमसेन खड़े हो जाते थे। एक दिन उन्होंने अब्दुल करीम ख़ान का गाया राग वसंत में फगवा ‘बृज देखन को’ तथा ‘पिया बिना नहि आवत चैन’-  यह ठुमरी सुनी। कुछ ही दिनों बाद उन्होंने कुंडगोल के समारोह में सवाई गंधर्व को सुना। मात्र ग्यारह वर्षीय भीमसेन के मन में उन्हें ही गुरु बनाने की इच्छा जागृत हुई। पुत्र की संगीत में रुचि का पता चलने पर गुरुराज ने अगसरा चनप्पा को भीमसेन को संगीत सिखाने के लिए शिक्षक रखा। एक बार पंचाक्षरी गवई ने भीमसेन को गाते हुए सुनकर चनप्पा से कहा, ‘इस लड़के को सिखाना तुम्हारे बस की बात नहीं, इसे किसी बेहतर गुरु के पास भेजो।’

एक दिन भीमसेन घर से भाग लिए। उस घटना को याद करके वे विनोद में कहते थे कि ऐसा करके उन्होंने परिवार की परम्परा ही निभाई थी। मंजिल तय नहीं थी। एक रेल में बिना टिकट सवार हो गये और बीजापुर तक का सफर किया। टिकट जाँचने वाले को राग भैरव में जागो मोहन प्यारे और कौन – कौन गुन गावे सुना कर मुग्ध कर दिया। हमराहियों पर भी गायन का जादू असर कर गया। उन्होंने रास्ते भर उसे खिलाया – पिलाया। पहुँचे बीजापुर। गलियों में गा–गा कर और लोगों के घरों के पिछवाड़े रात गुजार कर दो हफ़्ते बिता दिए। एक संगीत प्रेमी ने सलाह दी, ‘संगीत सीखना हो तो ग्वालियर जाओ।’ उन्हें पता नहीं था ग्वालियर कहाँ है। एक अन्य ट्रेन पर सवार हो गए। इस बार पहुँचे पुणे।

उस लड़के को कहाँ पता था कि पुणे उसका स्थायी ठौर बनेगा। बहरहाल रेल गाड़ियाँ बदलते हुए और रेलकर्मियों से बचते-बचाते भीमसेन ग्वालियर पहुँच गए। वहाँ माधव संगीत विद्यालय में किसी तरह दाखिला तो ले लिया लेकिन असल में भीमसेन को किसी क्लासरूम की नहीं एक अदद गुरु की जरूरत थी। 1933 में वह गुरु की तलाश में घर से निकल पड़े थे। अगले दो वर्षों तक वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में रहे। उन्होंने ग्वालियर के उस्ताद हाफिज अली खान से भी संगीत की शिक्षा ली। लेकिन अब्दुल करीम खान के शिष्य पंडित रामभाऊ कुंदगोलकर से उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शुरूआती शिक्षा ली। घर वापसी से पहले वह कलकत्ता और पंजाब भी गए।

वर्ष 1937 तक पंडित भीमसेन जोशी एक जाने-माने खयाल गायक बन गये थे। वहाँ उन्होंने सवाई गंधर्व से कई वर्षों तक खयाल गायकी की बारीकियाँ भी सीखीं। उन्होंने खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी और भजन में भी महारत हासिल की।

देश-विदेश में सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायकों में उनकी गिनती सहज ही की जा सकती है ।

भीमसेन तीन साल तक गुरु की तलाश में जगह जगह भटके। फिर उन्हें करवल्लभ संगीत सम्मेलन में विनायकराव पटवर्धन मिले। विनयकराव को अचरज हुआ कि सवाई गन्धर्व उसके घर के इतना करीब रहते हैं फिर क्यों दर–दर भटकते हुए यह इतना दूर चला आया है। अब इसी बात पर घर वापसी की यात्रा हुई और शुरु हुई एक विख्यात गुरु- शिष्य सम्बन्ध की कथा।

सवाई गन्धर्व ने भीमसेन को सुनकर कहा, ” मैं इसे सिखाऊँगा यदि यह अब तक सीखा हुआ सब भुला सके।” डेढ़ साल तक उन्होंने भीमसेन को कुछ नहीं सिखाया। भीमसेन के पिता जब एक बार बेटे की प्रगति का जायजा लेने आए तब यह देख कर चकरा गए कि वह अपने गुरु के घर के लिए पानी से भरे बड़े – बड़े घड़े ढो रहे हैं। हाँलाकि भीमसेन ने अपने पिता को आश्वस्त किया, ‘मैं यहाँ खुश हूँ। आप चिन्ता न करें।“

जनवरी, 1946 में पुणे में एक कंसर्ट से उन्हें पहचान मिलनी शुरु हो गई। यह उनके गुरू स्वामी गंधर्व के 60वें जन्मदिन के मौके पर आयोजित एक समारोह था। उनकी ओजस्वी वाणी, सांस पर अद्भुत नियंत्रण और संगीत की गहरी समझ उन्हें दूसरे गायकों से पूरी तरह अलग करती थी।

1943 में वे मुंबई पहुंच गए और एक रेडियो आर्टिस्ट की हैसियत से काम किया। सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उनका पहला एलबम लोगों के सामने आया। संगीत की दुनिया में तो उन्होंने एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए लेकिन 1985 में बने वीडियो मिले सुर मेरा तु्म्हारा की वजह से तो वो भारत के हर घर में पहचाने जाने लगे।

पंडित जोशी को लोग गीत ‘पिया मिलन की आस’, ‘जो भजे हरि को सदा’ और ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ आदि के लिए याद करते हैं। उन्होंने कई फिल्मों में सदाबहार गानों के लिए अपनी आवाज दी। यह पंडित भीमसेन जोशी जी की मेहनत और कुशलता का ही परिणाम है कि आज भारतीय शास्त्रीय संगीत की विश्व भर में पहचान बनी हुई है। भीमसेन जोशी ने 2 शादियां की थी उनके पहली पत्नी का नाम सुनंदा कट्टी था। उनसे भीमसेन का विवाह 1944 में हुआ। सुनंदा से 4 बच्चे हुए थे, राघवेंद्र, ऊषा, सुमंगला और आनंद। 1951 में उन्होंने कन्नड़ नाटक भाग्यश्री में उनकी सह-कलाकार वत्सला मुधोलकर से शादी की। उस समय उनके प्रांत में हिंदुओं में दूसरी शादी करना कानूनी तौर पर अमान्य था। इसलिए वे नागपुर चले गए जहां दूसरी शादी करना मान लिया गया। वत्सला से उन्हें 3 बच्चे हुए, जयंत, शुभदा और श्रीनिवास जोशी। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के खजाने को समृद्धि के नए शिखर पर ले जाने वाले पंडित जोशी का 24 जनवरी 2011 को पुणे में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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