Friday, March 29, 2024

स्मृति दिवस पर विशेष: एक संस्कृतिकर्मी के बतौर गोरख की रचनाओं से साक्षात्कार

गोरख से व्यक्तिगत रूप से अंतरंग होने का मुझे मौका नहीं मिला। लेकिन उनके गीत और कविताएं ज़रूर मेरे करीब रही हैं। अस्सी के दशक में जब भोजपुर में किसान आंदोलन परवान पर था, उन दिनों आंदोलनकारियों की जुबान से दो गीत ‘गुलमिया अब हम नाहिं बजइबो/अजदिया हमरा के भावेले’ और ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’ मैंने सुने थे।

उस समय उन गीतों के रचनाकार का नाम मुझे मालूम नहीं था, पर गीत की जो पंक्तियां थीं, उसमें मेहनत करने वालों को अपने ही श्रम के फल से वंचित कर देने के सच और उसके खिलाफ संघर्ष का जो संकल्प था, वह हमारे किशोर मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। बुनकर, निर्माण मजदूर, खेत-खदान के मजदूर और किसान किस तरह कानून, पुलिस, मालिकों के बंदूक के बल पर अपने हक से बेदखल किए जाते हैं और साथ ही किस तरह उनको कर्ज और अशिक्षा के जाल में फंसा कर गुलाम बनाए रखा जाता है, इसे यह गीत बड़े ही सहज अंदाज में पेश कर देता था।

तब हमारे जेहन में मेहनतकश वर्ग की जो तस्वीर बनती थी, वह गरीब-दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों की ही होती थी, क्योंकि सभाओं-रैलियों में उन्हीं लोगों की भारी संख्या नजर आती थी। ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’ में व्यंग्य है, इसका अंदाजा तो हमें था, पर बाद में ज्यादा स्पष्ट रूप से समझ में आया कि यह कांग्रेसी ‘समाजवाद’ पर तीखा व्यंग्य था।

बाद में पता चला कि इन गीतों के रचनाकार गोरख पांडेय हैं। ‘नवांकुर’ और ‘युवानीति’ टीमों के कलाकारों के मुंह से उनके और भी गीत सुनने को मिले। जैसे- ‘सुतल रहली सपन एक देखनी/सपन मनभावन हो सखिया’, ‘तू हव श्रम के सुरुजवा हो हम किरनिया तोहार’, ‘समय का पहिया चले रे साथी, समय का पहिया चले’, ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेले झकझोर दुनिया’।

29 जनवरी 1989 को गोरख पांडेय नहीं रहे। यह मुझे कुछ देर से पता चला। देश में रामजन्म भूमि के नाम पर सांप्रदायिक उन्माद भड़काकर ध्रुवीकरण करने की राजनीति अपने उफान पर थी। उन्हीं दिनों किसी पत्रिका में उनकी कविता ‘दंगा’ पढ़ने को मिली, जिसकी कुछ पंक्तियां पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में लगातार प्रासंगिक होती गई हैं, हालांकि यह कविता 1978 की है- ‘‘इस बार दंगा बहुत बड़ा था/ खूब हुई थी/खून की बारिश/ अगले साल अच्छी होगी/फसल/मतदान की।’’ हमने देखा कि इस मुल्क में खून की बारिश लगातार बढ़ती गई।

बाबरी मस्जिद ध्वंस से लेकर गुजरात और मुजफ्फरनगर तक, अखलाक से हामिद तक… मतदान की फसल काटने का सिलसिला तेज से तेजतर होता चला गया है।

खैर, मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए आरा आ चुका था। नुक्कड़ नाटकों में हिस्सा लेने लगा था। कविता पहले से ही लिख रहा था। गोरख की याद में जन संस्कृति मंच और युवानीति की ओर से जलते हुए अलाव के इर्द-गिर्द कविता-पाठ के आयोजन का सिलसिला शुरू हुआ था, जिसे ‘कउड़ा’ नाम दिया गया था।

मुझे भी पहली बार उसमें कविता पढ़ने का मौका मिला। तब मैंने सोचा भी नहीं था कि आगे के वर्षों में मुझे इस काव्य-गोष्ठी के संचालन और आयोजन की जिम्मेवारी निभानी होगी। इस आयोजन में आरा शहर और भोजपुर जिले के लगभग सारे कवि शामिल होते रहे हैं।

वे अपनी कविताएं, गीतों और गजलों को सुनाते हैं और बीच-बीच में गोरख की कविताओं, गजलों और गीतों की प्रस्तुति और संचालक की टिप्पणी या राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में गोरख की रचनाओं की प्रासंगिकता पर साहित्यकारों की टिप्पणी का क्रम जारी रहता है।

यह भी संयोग था कि 1995 में जन संस्कृति मंच जिस बड़े आयोजन की तैयारियों में मैं शामिल था, वह गोरख पांडेय स्मृति समारोह का ही आयोजन था। दो दिनों का आयोजन था, कविता-पाठ संबंधी दो सत्रों के संचालन करने का मुझे अवसर मिला था। एक सत्र में ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन और जनवादी साहित्य की परंपरा’ विषय पर विचार-गोष्ठी थी।

डॉ. अवधेश प्रधान ने उस गोष्ठी में गोरख पांडेय को नक्सलबाड़ी आंदोलन का सर्वाधिक सुसंगत प्रवक्ता बताया था। उन्होंने ‘सात सुरों में पुकारता है प्यार’, ‘बंद खिड़कियों से टकराकर’ व ‘बुआ के लिए’ आदि कविताओं का खासतौर से उल्लेख करते हुए उनमें महिलाओं के प्रति ध्वनित नई दृष्टि की चर्चा की थी।

गोरख को पढ़ते हुए हमें भोजपुर के गांव कैथरकलां की गरीब औरतें मिलीं, जो गरीब मर्दों के साथ मिलकर जुल्म के खिलाफ लड़ती हैं, पुलिस की बंदूकें छीन लेती हैं, पुलिस को भागना पड़ता है। गोरख याद दिलाते हैं कि इस देश में यह हुआ जहां भरी सभा में द्रौपदी का चीर खींचे जाने के बावजूद सारे महारथी चुप रह गए थे।

हालांकि हमारे लिए इस कविता का कथ्य दूर की चीज नहीं थी, पर इस कविता के अंत में गोरख जो लिखते हैं, वे पंक्तियां लगातार हांट करती रहीं-

‘‘कैथर कला में छोटा सा महाभारत

लड़ा गया और जिसमें गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा

मिला कर

लड़ी थीं कैथर कला की औरतें

इसे याद रखें

वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं

और वे भी

जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों

इसे याद रखें

क्योंकि आने वाले समय में

जब किसी पर जोर-जबरदस्ती नहीं

की जा सकेगी

और जब सब लोग आजाद होंगे

और खुशहाल

तब सम्मानित

किया जायेगा जिन्हें

स्वतंत्रता की ओर से

उनकी पहली कतार में होंगी

कैथरकलां की औरतें।’’

‘बुआ के लिए’ कविता हो या कानपुर में आत्महत्या करने वाली बहनों की खबर पाकर लिखी गई गजल या ‘बंद खिड़कियों से टकराकर’ या ‘तुम जहां कहीं भी हो’– इन सारी कविताओं में स्त्रियों के प्रति ऐसी गहरी संवेदना है, जो पाठक और श्रोता की चेतना पर जबर्दस्त असर छोड़ती है।

गोरख की कई रचनाओं की खासियत यह है कि वे व्यापक संदर्भों से जुड़ जाती हैं।

‘हम कैसे गुनहगार हैं, उनसे न पूछिए

वे अदालतों के पार हैं, उनसे न पूछिए’

‘ये आंखें हैं तुम्हारी

तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर

इस दुनिया को

जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए’

ऐसी ही कविताएं हैं। एक उनकी बहुचर्चित कविता है- उनका डर।

‘‘वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे।’’

इस कविता में ‘गरीब और निहत्थे लोग’ का अर्थ विस्तार हो गया है या कहें कि इसमें वंचित, दमित, उत्पीड़ित और मेहनतकश वर्ग से जुड़ी तमाम अस्मिताएं समाहित हो जाती हैं। दलित, स्त्री और आदिवासी अस्मिताओं के आंदोलनों के दौरान आज इस कविता का इस्तेमाल दिखता है।

गोरख ने अपनी एक गजल में लिखा है-

गालिबो-मीर की दिल्ली देखी

देख के हम हैरान हुए

उनका शहर लोहे से बना है

फूलों से कटता जाए है।

रामजी भाई कहते हैं कि गोरख यहां कटने का अर्थ दूर होना नहीं, बल्कि फूलों से लोहे को काटने का सीधा अर्थ ही लेते हैं। खैर, उसी दिल्ली में हमने इन पंक्तियों को सच होता देखा। उस लोहे के शहर में नृशंसताएं तो पहले भी होती रहीं, पर दिसंबर 2016 में हुए नृशंस गैंगरेप के खिलाफ जो आक्रोश भड़का उस दौरान हमने देखा कि लोहा फूलों से कैसे कटता है।

एक फूल को क्षत-विक्षत कर देने के खिलाफ हजारों फूल मानो लोहे के शहर को काटने के लिए सन्नद्ध हो गए। मामला सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं रहा। समाज के तलछट से लेकर सत्ता के ऊंचे पायदान तक किस तरह की बर्बर स्त्री विरोधी मानसिकता मौजूद है, इसे महिलाओं की आज़ादी, सुरक्षा और सम्मान के लिए उभरे इस आंदोलन के दौरान लगातार देखा गया।

गोरख की कविताएं आंदोलनकारियों की जुबान और उनके हाथों में मौजूद थीं, यह ऐलान करते हुए –

‘‘अंधेरे कमरों और

बंद दरवाजों से

बाहर सड़क पर

जुलूस में और

युद्ध में तुम्हारे होने के

दिन आ गए हैं

(तुम जहां कहीं भी हो…)

महिला आंदोलन की मांग अगर घर और बाहर- हर जगह आज़ादी की रही है, तो उसकी वस्तुगत वजहें हैं। वे करोड़ों घर जो पितृसत्तात्मक सामंती ढांचे का अंग हैं, वे स्त्रियों की आजादी में बाधक हैं और उसके उत्पीड़न और पराधीनता का केंद्र हैं। वह कुल जिसकी मर्यादा के नाम पर स्त्री को अपनी आकांक्षाओं की बलि देती है। उसे सीता-सावित्री के आदर्श दिखाए गए हैं। कहने को तो जहां उसकी पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं, वह मां है और स्वर्ग से भी श्रेष्ठ और महान है, कानूनन समान और स्वतंत्र है, ‘बड़े-बड़ों की नजरों में तो/ धन का एक यन्त्र भी है’।

गोरख जोर देकर कहते हैं-

‘‘भूल रहे हैं वे

सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चाहिए प्यार

चाहिए खुली हवा’’

लेकिन हकीकत यह है कि वह उस घर में घुट रही है।

आगे गोरख पूरे समाज और सभ्यता को कटघरे में खड़़ा कर देते हैं-

‘घर-घर में श्मशान-घाट है

घर-घर में फाँसी-घर है, घर-घर में दीवारें हैं

दीवारों से टकराकर

गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया

सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो जिंदा हैं

हम सब अपराधी हैं

हम दण्डित हैं।’’

डॉ. अवधेश प्रधान ने सन् 1995 की आरा वाली गोष्ठी में नक्सलबाड़ी के बाद की कविताओं में मौजूद विराट चिंताओं व संवेदनाओं की शिनाख्त की थी तथा आंदोलन के प्रभाव में चल पड़े लोकभाषा के साहित्य व गजल के नए संस्कारों की ओर भी ध्यान दिलाया था। उन विराट चिंताओं और संवेदनाओं विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों में मैंने गोरख जी की कविताओं में लगातार महसूस किया है।

गोरख ने लोकभाषा के साहित्य व गजलों को नए संस्कार दिए। उन्हें व्यापक जन-संवेदना और क्रांतिकारी चेतना से लैस किया। गालिब का एक शेर है- कटती है जबां तो खंजर का मरहबा कहिए, गोरख ने उसे बदल दिया है- कटती है जबां तो बन जाएगी तलवार/ सच कितने धारदार हैं उनसे न पूछिए।

1995 में ही जब आरा में ही आयोजित बाल नाट्योत्सव के लिए स्मारिका के संपादन में सहयोग करने का मौका मिला, तो जहां तक मुझे याद है कि उसमें मैंने गोरख जी की कविता ‘बच्चों के बारे में’ को जगह दी।

ऐसी संवेदना जिससे वर्ग भेद पर कायम समाज की यथास्थिति नहीं टूटती, उसकी सीमाओं और उसके स्वार्थ को बेपर्दा कर देने वाली यह बड़ी ही मारक कविता है। कविता की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है-

‘‘ बच्चों के बारे में

बनाई गई ढेर सारी योजनाएं

ढेर सारी कविताएं

लिखी गईं बच्चों के बारे में

बच्चों के लिए

खोले गए ढेर सारे स्कूल

ढेर सारी किताबें बांटी गईं।’

फिर आगे जिक्र आता है कि उनमें से कुछ बच्चे बनिया, हाकिम और दलाल हुए और बाकी बच्चों ने सड़क पर कंकड़ कूटा, दुकानों में प्यालियां धोयीं, टट्टीघर साफ किए, तमाचे खाये, कौड़ियों के मोल बाजार में बिके। और फिर अंतिम पैराग्राफ में जो विडंबना है, वह पाठक को परेशान कर देता है-

‘‘बच्चों में से कुछ बच्चों ने

आगे चलकर

फिर बनाईं योजनाएं

बच्चों के बारे में

कविताएं लिखीं

स्कूल खोले

किताबें बांटी

बच्चों के लिए’’

गोरख की कविताओं पर कुछ विश्वविद्यालयों में शोध ज़रूर हुए हैं, पर एक विश्वविद्यालय के भोजपुरी विभाग को छोड़कर शायद कहीं ही पाठ्यक्रम में उनकी कविताएं हैं, पर गोरख की रचनाएं छात्र-आंदोलनों के बीच हैं। रेलवे बुक स्टॉलों या अन्य स्टॉलों पर उनकी कविता की किताबें नहीं मिलतीं, पर वे जनांदोलनों के बीच आज भी जीवित हैं।

बिहार में जब सामंती शक्तियां जनसंहार को अंजाम दे रही थीं, तब सामाजिक यथास्थितिवाद से ग्रस्त बहुत सारे भले आदमियों से हम गोरख की कविता ‘हे भले आदमियों!’ के जरिए हस्तक्षेप की अपील करते थे-

‘‘डबडबा गई है तारों-भरी

शरद से पहले की यह

अँधेरी नम

रात।

उतर रही है नींद

सपनों के पंख फैलाए

छोटे-मोटे हजार दुखों से

जर्जर पंख फैलाए

उतर रही है नींद

हत्यारों के भी सिरहाने।

हे भले आदमियों!

कब जागोगे

और हथियारों को

बेमतलब बना दोगे?

हे भले आदमियों!

सपने भी सुखी और

आजाद होना चाहते हैं।’’

‘सपने भी सुखी और आजाद होना चाहते हैं।’ यानी सपनों पर भी दुख और गुलामी की छाया न हो।

आंदोलनकारियों या क्रांतिकारियों को ही अशांति की वजह बताने वाले यथास्थितिवादी और वर्चस्वशाली लोगों से गोरख की एक और छोटी ‘तुम्हें डर है’ कविता सीधे टकराती है-

‘‘हजार साल पुराना है उनका गुस्सा

हजार साल पुरानी है उनकी नफरत

मैं तो सिर्फ

उनके बिखरे हुए शब्दों को

लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ

मगर तुम्हें डर है कि

आग भड़का रहा हूँ’’

हाल के वर्षों में न्यायालयों के जरिए होने वाले मजदूर विरोधी फैसलों के संदर्भ में गोरख की लंबी कविता ‘स्वर्ग से विदाई’ को भी उद्धृत किया गया। ‘पैसे का गीत’, ‘वतन का गीत’, ‘अमीरों का कोरस’, ‘उठो मेरे देश’, ‘कानून’, ‘युग की नब्ज धरो’, ‘कला कला के लिए’, ‘सोचो तो’, ‘सुन भई साधो’, ‘कुर्सीनामा’, ‘आशा का गीत’ जैसी कई रचनाएं गोरख पांडेय को हमारे दौर का सर्वाधिक प्रासंगिक साबित करती है।

श्रम और प्रेम दोनों पर होने वाले दमन का विरोध उनकी कविताओं में मिलता है। ‘फूल और उम्मीद’ शीर्षक कविता में ये दोनों भाव मिलते हैं। गोरख अपनी कविता में देश की युवा वर्ग को भिखमंगी और आत्महत्या की स्थितियों में धकेले जाने और काला बाजार की नींव पर भव्य होते उपासनागृहों के सच को भी दर्ज करते हैं, जो हमारे दौर में और भी ज्यादा चिंतनीय रूप अख्तियार कर चुके हैं।

अन्य जनकवियों से तुलना करते हुए हमें हमेशा लगता रहा कि गोरख को सिर्फ जनकवि कहना पर्याप्त नहीं है। हमारे लिए वे क्रांतिकारी जनकवि हैं। बाद में तो अखबारों के संपादकों ने भी ‘क्रांतिकारी जनकवि’ में से ‘क्रांतिकारी’ को हटाना बंद कर दिया।

वे अपनी कविताओं में मनुष्य की परिवर्तनकारी ताकत का बयान करते हैं, परिवर्तन की उस लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया से जनता को अवगत कराते हैं। उनकी कहानी ‘पुराने देश की कहानी’ भी यही काम करती है।

आपातकाल के दिनों में लिखी गई गोरख की डायरी प्रकाश में आने के बाद नए सिरे से इस क्रांतिकारी जनकवि की वैचारिक जद्दोजहद को समझना संभव हुआ है।

‘सांस’ द्वारा प्रकाशित गोरख पांडेय की समग्र कविताओं की भूमिका में ठीक ही संकेत किया गया है, इन कविताओं में मध्यवर्ग के लिए भी बहुत कुछ है, उसके वैचारिक ढुलमुलपन पर हमला है, उसे सर्वहारा के पक्ष में खड़ा करने की कोशिश है।

12 मार्च 1976 की डायरी में उन्होंने लिखा है-

ठप सा पड़ा हुआ है

देश

आपात स्थिति

सिर्फ चलती है…

थम गयी है हलचल

शोर बंद है

शांति बंदूक की नली से निकलती है।

क्या यही सच है कामरेड

कि विचार और क्रिया में

दूरी हमेशा बनी रहती है

कामरेड, कितना मुश्किल है सही होना

कहीं कुछ हो रहा है कामरेड!

आपातकाल और जनता के क्रांतिकारी संघर्ष के साथ-साथ कविता और कला की सामाजिक भूमिका, प्रेम, स्त्री और उसके सौंदर्य के संबंध में पुरुष के सौंदर्यबोध और पसंद-नापसंद को निर्मित करने वाले कारकों, कला में सेक्स के चित्रण, कृति, कृतिकार और दर्शक के बीच रिश्ते आदि के संदर्भ भी उनकी डायरी में आते हैं। डायरी में उनका आत्मसंघर्ष स्पष्ट नजर आता है।

18 मार्च 1976 की डायरी में वे लिखते हैं- ‘‘एक बिल्कुल बेहूदा जीवन। पंगु, अकर्मण्य समाज विरोधी जीवन। क्या जगह बदल देने से कुछ काम कर सकूंगा? मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं। तत्काल।

मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं। कुछ भी कर न पा रहा। मुझे कोई छोटी-मोटी सर्विस पकड़नी चाहिए। और नियमित लेखन करना चाहिए। यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है। मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस करनी चाहिए। मैं भयानक और घिनौने सपने देखता हूं। लगता है, पतन और निष्क्रियता की सीमा पर पहुंच गया हूं।

विभाग, लंका, छात्रावास, लड़कियों पर बेहूदा बातें। राजनीतिक मसखरी। हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है। लेकिन क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए? ज़रूर कभी भी शुरू किया जा सकता है। दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए। मैं यहां से हटना चाहता हूं। बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं। मैं जड़ हो गया हूं, बेहूदा हो गया हूं। बकवास करता हूं। कविताएं भी ठीक से नहीं लिखता।

किसी काम में ईमानदारी से लगता नहीं। यह कैसी बकवास जिंदगी है? बताओ, क्या यही है वह जिंदगी जिसके लिए बचपन से ही तुम भागमभाग करते रहे हो? तुमने समाज के लिए अभी तक क्या किया है? जीने की कौन सी युक्ति तुम्हारे पास है? बेशक, तुम्हे न पद और प्रतिष्ठा की तरफ कोई आकर्षण रहा है न कोशिश की है? कुछ नहीं कुछ नहीं। बकवास खाली बकवास। खुद को पुनर्निर्मित करो। नये सिरे से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ।’’

11 अप्रैल 1976 की डायरी में उनकी चिंता यह है कि- ‘‘भारी मात्रा में साहित्यिक उत्पादन की जरूरत है। और कुछ न हो पा रहा है।’’

गोरख जी का गद्य भी वैचारिक रूप से काफी महत्वपूूर्ण है। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और साहित्य, समकालीन कविता में रूप की समस्याएं, सरलता के पक्ष में, सत्ता, परिवर्तन, कर्म और मुक्ति (बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद के तुलनात्मक बहस), आत्म-अंतविर्राेध के बारे में, धर्म, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता, संस्कृति और सांप्रदायिकता जैसे लेख इसके उदाहरण हैं। एक लेख उन्होंने ज्यां पाल सार्त्र पर भी लिखा था। उनका एम।फिल का शोध ‘धर्म की मार्क्सवादी अवधारणा’ जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है, का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है।

अपने एक लेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘भारतीय शासक-वर्ग संस्कृति के दो रूपों को परस्पर मिलाने की कोशिश कर रहा है। एक तरफ वह भारतीय परम्परा और अध्यात्म का ढिंढोरा पीट रहा है, दूसरी तरफ भारतीय जनता की जरूरतों को ताक पर रख कर पश्चिमी तकनालाजी और उससे जुड़ी पतनशील पूंजीवादी संस्कृति का आयात करने पर जोर दे रहा है। भारतीय संस्कृति से उसका साफ मतलब अतीत के उस आध्यात्मिक उत्पादन से है, जो दासता और सामन्ती वर्ण-व्यवस्था ने सम्भव किया, जो बुद्धि और विज्ञान का विरोधी है, जो इस जगत और जीवन को भ्रम और मिथ्या मानने वाले अद्वैत वेदान्त में अपने उग्र रूप में दिखाई पड़ता है।

सम्प्रदायवाद, जात-पात के रूढ़िबद्ध संस्कार, तंत्र-मंत्र, धर्मिक अन्ध-विश्वास, भाग्यवाद, मायावाद, आदि, इस परम्परा के अंग हैं। संगीत और नृत्य का शास्त्रीय ढांचा अभी तक इन पिछड़े विचारों और कला-रूपों का शिकार है। ये संस्कृति के वही सामन्ती रूप हैं, जिन्होंने हजारों साल से भारतीय जनता को आध्यात्मिक जंजीरों से जकड़ रखा है और जिन्हें तोड़े बगैर भारतीय जनता की क्रांतिकारी पहल पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकती।’’

जाहिर है आज जब संघ और भाजपा एक ओर प्रतिक्रियावादी, अंधधार्मिक, सामंती-सांप्रदायिक-वर्णवादी प्रवृत्तियों को निरंतर बढ़ावा दे रही है और दूसरी ओर पतनशील पूंजीवादी संस्कृति और अर्थनीति का किसी हद तक जाकर हित साध रही है, तब उन जंजीरों को तोड़ना और भी चुनौतीपूर्ण, पर जरूरी काम है।

एक बार गोरख जी की स्मृति में आयोजित कविता पाठ में उनके ‘वतन का गीत’ को मार्चिंग सॉंग की तरह गाया गया था। आज तमाम हिटलरी कायदों के खिलाफ सबकी बराबरी और आजादी के लिए वतन की नई जिंदगी की लड़ाई लड़ना पिछले किसी भी वक्त से ज्यादा जरूरी है।

(संस्कृतिकर्मी और लेखक सुधीर सुमन का यह लेख उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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