Friday, March 29, 2024

टीआरपी और टीवीपुरम् का राजनीतिक-अर्थशास्त्र

पिछली सदी का आखिरी दशक भारतीय समाज, राजनीति और मीडिया के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस दशक में  तीनों की दशा और दिशा को एक खास ढंग से बदलने की शुरुआत हुई। सरकार ने देशी-विदेशी निजी पूंजी को केंद्र में रखकर ‘नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों’ की शुरुआत की। भारत सहित अनेक विकासशील देशों में आर्थिक उदारवाद के नाम पर एक खास ढंग की आर्थिकी को सामने लाया गया, जिसमें वित्तीय पूंजी के पक्ष में व्यापक पुनर्संयोजन और बदलाव किया जाने लगा। इस तरह की आर्थिकी के लिए विश्व बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के जरिये अमेरिका और उसके कुछ सहयोगी यूरोपीय देशों ने विकासशील देशों के हुक्मरानों का नीतिगत दिशा-निर्देशन किया। यह महज संयोग नहीं कि नया रूप लेती आर्थिकी के साथ ही भारत में निजी टेलीविजन की विकास और विस्तार हुआ। हमारे मध्यवर्ग का एक हिस्सा अमेरिका और ब्रिटेन के बड़े-बड़े टीवी चैनलों के खाड़ी युद्ध के सीधे प्रसारण को देख चुका था। उस समय युद्ध की विभीषिका और तरह-तरह के हथियारों को टेलीविजन के पर्दे के जरिये दुनिया के बड़े हिस्से में ले जाया गया था।

भारत के शहरों में भी डिश लगने लगे और विदेशी चैनल पंच सितारा होटलों से होते हुए मध्यवर्गीय घरों में पहुंचने लगे थे। माकूल माहौल देखकर कुछ उद्योगपतियों और नये किस्म के उपक्रमियों ने भारत में निजी टीवी चैनलों की शुरुआत की। सरकार ने उनका सहयोग किया। स्टार समूह के चैनलों के अलावा जी टीवी जैसे निजी टीवी चैनल बाजार में आ गये। जी-टीवी निजी क्षेत्र के चैनलों में पहला था, जिसने न्यूज बुलेटिन शुरू कर दी। सरकारी दूरदर्शन भी निजी क्षेत्र के लिए खुलने लगा। मनोरंजन के कार्यक्रम पहले से प्रायोजित हो रहे थे। अब समाचार-विचार के क्षेत्र में भी उसने निजी कंपनियों के लिए अपना दरवाजा खोल दिया। निजी कंपनियों द्वारा प्रायोजित गुड मार्निंग इंडिया, आज तक, द फर्स्ट एडिशन और न्यूज टुनाइट जैसे कार्यक्रम उन्हीं दिनों सामने आये।

देश की बदलती आर्थिकी और निजीकरण के बढ़ते दबदबे के बीच भारत का टीवी उद्योग भी बिल्कुल नये रूप में उभरा। कुछ वर्ष के अंदर ही देश में दर्जन भर से ऊपर नये निजी चैनल चलने लगे। टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने की ढीली-ढाली व्यवस्था को व्यवस्थित रूप दिया गया और इसकी रेटिंग पर ही चैनलों को विज्ञापन दिये जाने लगे। टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की शुरुआत इसी तरह हुई। इस टीआरपी ने भारत में टेलीविजन की दुनिया को जबर्दस्त ढंग से प्रभावित किया है। इसने मनोरंजन उद्योग को न सिर्फ खास तरह की आर्थिकी दी है, अपितु उस आर्थिकी के माकूल वैचारिकी भी दी है। हालांकि हमारे टेलीविजन उद्योग के लोग हर समय वैचारिकी से मुक्त समाचार-विचार और मनोरंजन की वकालत का ढोग करते रहते हैं। भारत में आज यह टीवी उद्योग सियासत का अनोखा औजार और शासक समूह का बेहद ताकतवर सहयोगी बनकर उभरा है। मौजूदा हिन्दुत्ववादी शासकों के दौर के इस टीवी उद्योग को टीवीपुरम् कहना ज्यादा मुफीद होगा।

वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षक डॉ. मुकेश कुमार की नयी किताब टीआरपीः मीडिया मंडी का महामंत्र (प्रकाशकः राजकमल, दरियागंज, नई दिल्ली, वर्ष-2022, पृष्ठ-230, मूल्यः250रु.) भारत में टेलीविजन उद्योग के मौजूद रूप, उसकी पृष्ठभूमि और उसके विस्तार-विकास की पूरी कथा को बहुत प्रामाणिक ढंग से सामने लाती है। टेलीविजन उद्योग की आर्थिकी ही नहीं, उसके समग्र राजनीतिक-आर्थिक शास्त्र पर हिन्दी में यह अपने ढंग का उल्लेखनीय प्रयास है। सत्रह अध्यायों और चार परिशिष्टों में फैली किताब भारतीय टेलीविजन उद्योग की सामाजिक-भूमिका, बाजार से उसके रिश्ते और उसकी संपूर्ण राजनीतिक-आर्थिकी के द्वन्द्व की जटिलता को सामने लाती है। यह इसका महत्वपूर्ण पहलू है। किताब टीआरपी को न्यूज चैनलों और उनके कार्यक्रमों की कथित लोकप्रियता के महज एक मापक या पैमाने के तौर पर नहीं देखती। वह टीआरपी को एक ऐसे तंत्र के रूप में देखती है, जिसके पीछे आर्थिक उदारवाद या नव-उदारवादी बाजारवाद है।

इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह भारतीय मीडिया, खासकर टेलीविजन के बारे में हर आम और खास बात को पाठकों के सामने पूरी तथ्यात्मकता और ईमानदारी के साथ पेश करती है। यही कारण है कि यह मीडिया छात्रों-शिक्षकों के लिए उपयोगी है तो गंभीर मीडिया-शास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और शोधार्थियों के लिए भी। अपने सत्रह अध्यायों और चार परिशिष्टों में यह मीडिया, खासकर टेलीविजन से जुड़े हर महत्वपूर्ण सवाल को उठाती है और ठोस तथ्यों और जरूरी आंकड़ों के साथ सबके जवाब भी देती है। टीआरपी कैसे आयी, वह कैसे तय होती है और उसके पीछे कौन लोग होते हैं; पहले और दूसरे अध्याय में इस पर बहुत विस्तार से लिखा गया है। टीआरपी के तंत्र के पीछे कैसे ‘आर्थिक उदारवाद’ खड़ा है, पुस्तक के चौथे अध्याय में लेखक ने इसे बहुत तथ्यात्मक ढंग से सामने लाया है। सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र को हमेशा भ्रष्ट साबित करने में जुटा रहने वाला निजी क्षेत्र किस तरह नख से शिख तक भ्रष्टाचार में सराबोर है; टीआरपी की कहानी में इसके ठोस प्रमाण मिलते हैं। बीते कुछ वर्षों के दौरान हुए तमाम रहस्योद्घाटनों को उद्धृत करते हुए मुकेश कुमार लिखते हैः ‘ बहरहाल, इन तमाम रहस्योद्घाटनों ने दो बातें स्पष्ट कर दीं कि टीआरपी का पूरा तंत्र-बार्क ही भ्रष्ट है, इसलिए वह किसी भी लिहाज से विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती।

टीआरपी प्रणाली के साथ छेड़छाड़ करके उसे अपने हिसाब से बनाने में पूरा उद्योग ही लगा हुआ है। इसमें टीवी चैनल, बार्क के अधिकारी-कर्मचारी, बार्क से जुड़ी एजेंसियां और कुछ बाहरी शक्तियां मिलकर जो खेल खेल रहे हैं, उसमें टीआरपी का पवित्र होना संभव ही नहीं रह जाता। यहां तक कि अब तो राजनीति और सरकारें भी इसमें शामिल दिख रही हैं। सोचिए कि 32000 करोड़ के विज्ञापन का जो कारोबार इस टीआरपी के आंकड़ों के आधार पर होता है, वह कितने बड़े छल का शिकार हो रहा है!’(पृष्ठ-62)। इस संदर्भ में लेखक ने ‘रिपब्लिक टीवी’ से जुड़े हाल के  विवादों और कथित टीआरपी घोटाले का विस्तार से उल्लेख किया है।

टीआरपी की शुरुआत भले ही विज्ञापनों के निर्धारण कि किस चैनल को कितना विज्ञापन मिलना चाहिए, के लिए हुई हो लेकिन भारतीय टीवी उद्योग में टीआरपी का दायरा आज सिर्फ विज्ञापन तक सीमित नही रह गया। उसने टेलीविजन के समूचे कंटेट को भी प्रभावित और यहां तक कि नियंत्रित और निर्देशित करने लगा। टीआरपी ही ‘असल संपादक’ और ‘प्रबंध संपादक’ बन गया! टीआरपी  की रिपोर्ट से ही तय होने लगा कि टेलीविजन पर क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं दिखाया जाना चाहिए? यह सब कैसे और क्यों हुआ; किताब के पाचवें और छठें अध्याय में इसका विस्तारपूर्वक व्याख्यात्मक ब्योरा दिया गया है। छठें अध्याय-‘टीवी न्यूज में फार्मूलेबाजी का सिलसिला’ में  उदाहरणों के साथ बताया गया है कि किस तरह हर हफ्ते आने वाली टीआरपी ने टेलीविजन चैनलों को नये-नये फार्मूले दिये और किस तरह ‘फाइव-सी’ यानी क्राइम, क्रिकेट, सेलेब्रिटी,  सिनेमा और कंट्रोवर्सी का फार्मूला न्यूजरूम में टीवी कारोबार का सबसे ‘कारगर हथियार’ बना। इसी दबाव में भारतीय न्यूज टीवी उद्योग पत्रकारिता को छोड़कर मनोरंजन के धंधे में कूद पड़ा और सारी लाज-शर्म ताक पर रखकर पत्रकारिता से किनारा कर लिया। आर्थिक उदारीकरण की हवा में श्रोता और दर्शक भी बड़े पैमाने पर उपभोक्ता में बदल चुका था।

मुकेश कुमार की किताब का नौवां अध्याय कई दृष्टियों से बेहद महत्वपूर्ण है। हिन्दी में इस पर बहुत कम विचार किया गया है। टीवीपुरम् भला इस पर क्यों विचार करे? पता नहीं क्यों कथित मीडिया-समीक्षक और समाजशास्त्री भी इस मुद्दे पर बहस या चर्चा से बचते हैं। लेकिन मुकेश कुमार की किताब में इस मुद्दे पर पूरा एक यह अध्याय हैः टीआरपी, हिन्दुत्व और टीवी पत्रकारिता। इसमें टीआरपी दौर के टेलीविजन के कंटेंट और उसके अर्थशास्त्र के हवाले इस जरूरी तथ्य को उद्घाटित करने की कोशिश की गयी है कि कैसे टीआरपी और टीवी की कथित पत्रकारिता ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय़ राजनीति में ‘हिन्दुत्व’ और उसकी राजनीति को मजबूत किया। सिर्फ टीवी और टीआरपी ने हिन्दुत्व को ही मजबूत नहीं किया, हिन्दुत्व की राजनीति ने अपनी पसंद के टीवी चैनलों को खड़ा किया और कराया!

दोनों ‘सहयोगी और हिस्सेदार’ बनकर सामने आये!  लेखक ने हमारे मीडिया के स्वरूप और चरित्र को बड़े साफ शब्दों में परिभाषित किया है: ‘वास्तव में हमारा मीडिया लोकतांत्रिक है ही नहीं। वह सवर्णवादी है, बहुसंख्यकवादी है। उसमें बहुलता और विविधता के दर्शन हमें नहीं होते। राजनीतिक मुहावरे में कहें तो वह हिन्दू-तुष्टीकरण पर चलता है, अपने नोटबैंक और हिन्दुत्ववादी दलों के वोटबैंक को मजबूत करने पर ही ध्यान लगाता है। लेकिन यहां ये भी जोड़ना जरूरी है कि इसमे आक्रामकता का नया आयाम जुड़ गया है। ये सनातनी और पारंपरिक हिन्दूपने से अलग है। चूंकि हिन्दुत्व एक राजनीतिक अवधारणा है इसलिए मीडिया में भी वह राजनीतिक एजेंडे के रूप में मौजूद है न कि धार्मिंक विचार या जीवन-शैली के तौर पर।’(पृष्ठ-133)।

किताब के आखिरी हिस्से में दिये चारों परिशिष्ट मीडिया और जनसंचार के छात्रों, पत्रकारों, शिक्षकों और अन्य पाठकों के लिए बहुत जरूरी सामग्री पेश करते हैं। इसमे पहला परिशिष्ट टीआरपी के इतिहास पर है। दूसरे में केबल टीवी नेटवर्क कानून-1995 का ब्योरा है, तीसरे में उक्त कानून में हुए संशोधनों का और चौथे में टीवी दर्शकों के संख्यात्मक आकलन और नये रेटिंग सिस्टम पर कुछ सुझावों को दर्ज किया गया है। निश्चय ही यह किताब भारतीय मीडिया, खासतौर पर टेलीविजन के स्वरूप और चरित्र को समझने के लिए एक उपयोगी दस्तावेज है।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आपने कई किताबें लिखी हैं जो बेहद चर्चित रही हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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