Friday, March 29, 2024

खोई हुई परंपरा को सामने लाना स्त्रीवादी आलोचना की जिम्मेदारी

हिंदी साहित्य का इतिहास लिखे जाने के क्रम में महिला साहित्यकारों और उनके साहित्य की कई तरह से अनदेखी होती रही। जाहिर है, संसाधनों और समाज पर हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा है, इसलिए बाकी क्षेत्रों में भी यह वर्चस्व अवश्यंभावी होता चला गया। यही वजह है कि हिंदी साहित्य में स्त्रीवादी आलोचना की सैद्धांतिकी पर बात करने वाली बेहद गिनी-चुनी ही किताबें मौजूद हैं। इस दृष्टि से दिल्ली विवि में अध्यापन कर रहीं महिला सरोकारों और स्त्रीवाद को गहराई से समझने वाली लेखिका सुजाता जी की किताब “आलोचना का स्त्री पक्ष : पद्धति, परंपरा और पाठ” बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है।

राजकमल प्रकाशन से छपी यह किताब ‘आलोचना का स्त्री पक्ष- पद्धति, परंपरा और पाठ’ जिस तरह से साहित्य में पुरुषों द्वारा स्त्रियों को खारिज किए जाने की बात करती है, उसे आज के दौर में समझना बहुत जरूरी है। हिंदी साहित्यालोचना के क्षेत्र में यह इतना विशेष कार्य है कि इसे पढ़े बिना आप इसके महत्व को नहीं समझ सकते। पेज 136 पर सुजाता लिखती हैं- ‘जो अपना इतिहास नहीं जानता वह अपने वर्तमान से सही सवाल नहीं पूछ सकता। हमें जानना होगा कि कौन थीं वे औरतें जिनके बारे में इतिहासकार ने अधूरा बताया या वह मौन रहा। खोई हुई परंपरा को सामने लाना स्त्रीवादी आलोचना की जिम्मेदारी है ताकि वह जो खोया हुआ, दबा हुआ और खारिज किया गया है उसे पुन: पाया जा सके।’ जाहिर है, किसी खोई हुई चीज को पुन: तभी पाया जा सकता है, जब उस पर बात हो, विमर्श हो, बहस हो और उसके तमाम आयामों को लेकर आम जन के बीच चर्चा हो। और किताबें तो यह काम बखूबी करती हैं।

मैं अरसे से फिल्मों के गाने सुनते हुए जब गीतकारों का नाम देखता था तो उसमें महिला गीतकारों की गैरमौजूदगी मुझे सोचने पर मजबूर कर देती थी कि क्या उनके अंदर कोई फीलिंग नहीं होती? क्या महिलाएं बेहतर नहीं लिख सकतीं? या फिर महिला गीतकारों के गीतों को पुरुषों द्वारा खारिज कर दिया गया? यह तो सिर्फ एक उदाहरण भी है महिलाओं को खारिज किए जाने का। साहित्य का इतिहास तो सिनेमा से कहीं ज्यादा पुराना है, तो जाहिर है कि पुरुष साहित्यकारों ने किन-किन भेड़चाल और कुंठा भाव में महिला साहित्यकारों के साहित्य को खारिज किया होगा। सुजाता जी की यह किताब इसी बात की पड़ताल भी करती है। स्त्रि‍यों के जिस साहित्य को सामंती सोच के पुरुषों द्वारा खारिज कर दिए जाने की बात सुजाता जी कर रही हैं, उसका उपाय भी वह खुद ही बताती हैं कि ‘स्त्री के साहित्य को इतिहास में देखने के लिए एक वैकल्पिक इतिहास की जरूरत है।’ जाहिर है, लैंगिग असमानता और स्त्रियों के साथ भेदभाव करके उनकी काबिलियत को सिरे से खारिज कर देना हमारे देश में सामंती प्रवृत्ति का एक अहम गुण है। ऐसे में ईवी रामासामी पेरियार का कहना सही लगता है कि ‘पुरुषों का यह दिखावा कि वे महिलाओं का सम्मान करते हैं और उनकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हैं, महिलाओं को धोखे में रखने के लिए महज एक चाल है।’ धोखे में रखने की यह चाल तो साहित्य में भी रहा है और इसलिए इस विषय पर अनेक प्रकार से आलोचनात्मक किताबों को लिखा जाना चाहिए।

उपदेशक की भूमिका से परहेज करते हुए किसी को यूं ही सीधे-सीधे खारिज करने का जो निंदात्मक रुख है, आलोचना की किताबों में इसकी जरूरत नहीं है। एक सम्यक इतिहासबोध के साथ किसी से व्यक्तिगत या सामाजिक-सांस्कृतिक दोस्ती-दुश्मनी से परे होकर बड़ी तटस्थता के साथ ही रचनाओं का चयन होना चाहिए। इस ऐतबार में सुजाता जी की यह किताब एकदम खरी उतरती है।

इस किताब के पेज 178 पर सुजाता लिखती हैं, ‘इतिहासकार के लिए कविता लिखती स्त्री कर्ता नहीं है, लेकिन उसके प्रेम में फंसकर एक ब्राह्मण मुसलमान हो जाए तो वहां स्त्री प्रेम में फंसाने वाली यानी कर्ता है। हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते-लिखते कई इतिहासकार यह गलतफहमी पाल बैठे कि वे हिंदू साहित्य का इतिहास लिख रहे हैं।’ इस ऐतबार से देखें तो हिंदी साहित्य को जो आलोचक हिंदू साहित्य की संज्ञा देते रहे हैं, वह सही जान पड़ता है। लेकिन इतिहास के मर्दवादी होने से भी आगे की बात है, वह है सवर्ण साहित्य का इतिहास जो स्त्रि‍यों की अभिव्यक्तियों को खारिज करने का इतिहास भी है।

सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने का असर समाज के हर हिस्से पर पड़ता है। साहित्य भी समाज का वह हिस्सा है जो सवर्ण पुरुष-दृष्टि से ही संचालित होता रहा है, क्योंकि हमारा समाज एक पुरुष सत्तात्मक समाज है। पुरुष सत्तात्मक समाज में अगर इतिहासकारों ने स्त्रियों की स्व-अभिव्यक्तियों को भी पुरुष का अनुकरण होने की दृष्टि से देखा है तो जाहिर है ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ इस पर सवाल खड़े करेगा और जवाब भी मांगेगा। साहित्य की पद्धति, परंपरा और पाठ को स्त्रीवादी नजरिए से देखेगा भी और अस्मिता-विमर्श के केंद्र में भी लाएगा। दमित अभिव्यक्तियों की निशानदेही करने वाली सुजाता जी की यह अनमोल कृति गहन शोध से निकली है। यह सही बात है कि जहां वैश्विक स्तर पर हेलेन सिक्सू, लूस इरिगिरे, जूलिया क्रिस्टेवा जैसी महिला आलोचकों ने स्त्रि‍यों की भाषा को लेकर बेहद महत्वपूर्ण काम किए हैं, वहीं हिंदी में इस विषय पर कोई ठोस बहस दिखाई नहीं देती।

समीक्षात्मक लेखन तक सीमित होती जा रही साहित्यलोचना के इस दौर में पद्धति, परंपरा और पाठ के जरिए ‘आलोचना के स्त्री पक्ष’ को सामने लाना निश्चित रूप से एक उत्कृष्ट कार्य है। स्त्रि‍यों का सरोकार और उनकी अस्मिता को लेकर सुजाता जी के समाजशास्त्रीय प्रस्तुतिकरण से तो हम परिचित थे ही, अब स्त्री-भाषा को लेकर आलोचना के उनके जरूरी पक्ष से भी हम वाकिफ हो चुके हैं। राजकमल प्रकाशन से आई यह किताब साहित्यलोचना के क्षेत्र में एक बड़े विमर्श की मांग करने के साथ ही यह भी तय करती है कि स्त्री-भाषा और अभिव्यक्ति को खारिज नहीं किया जा सकता। आधिकारिक संदर्भों से भरपूर आलोचना को लेकर सूचनाओं और कंटेंट के स्तर पर यह किताब बेहद समृद्ध जान पड़ती है। इसलिए हिंदी साहित्य के शोधार्थियों के लिए यह बेहद जरूरी किताब बन जाती है।

किताब – आलोचना का स्त्री पक्ष : पद्धति, परंपरा और पाठ

लेखिका – सुजाता

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

मूल्य – 399 रुपये (पेपरबैक)

(वसीम अकरम लेखक और समीक्षक हैं।)

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