Saturday, April 20, 2024

विश्व रंगमंच दिवस: पारसी थिएटर का योगदान

पारसी रंगमंच, 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश रंगमंच के मॉडल पर आधारित था। इसे ‘पारसी रंगमंच’ इसलिए कहा जाता था क्योंकि इससे पारसी व्यापारी जुड़े थे। वे इसमें अपना धन लगाते थे। उन्होंने पारसी रंगमंच की अपनी पूरी तकनीक ब्रिटेन से मंगायी। इसमें प्रोसेनियम स्टेज से लेकर बैक स्टेज की जटिल मशीनरी भी थी। लेकिन लोक रंगमंच-गीतों, नृत्यों परंपरागत लोक हास-परिहास के कुछ आवश्यक तत्वों और इनकी प्रारंभ तथा अंत की रवायतों को पारसी रंगमंच ने अपनी कथा कहने की शैली में शामिल कर लिया था। दो श्रेष्ठ परंपराओं का यह संगम था और तमाम मंचीय प्रदर्शन पौराणिक विषयों पर होते थे, जिनमें परंपरागत गीतों और प्रभावी मंचीय युक्तियों का प्रयोग अधिक होता था। कथानक गढ़े हुए और मंचीय होते थे जिसमें भ्रमवश एक व्यक्ति को दूसरा समझा जाता था, घटनाओं में संयोग की भूमिका होती थी, जोशीले भाषण होते थे, चट्टानों से लटकने का रोमांच होता था और अंतिम क्षण में उनका बचाव किया जाता था। सच्चरित्र नायक की दुष्चरित्र खलनायक पर जीत दिखायी जाती थी और इन सभी को गीत-संगीत के साथ विश्वसनीय बनाया जाता था।

औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फिल्मों की जगह आल्हा, कव्वाली मुख्य थे। लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पड़ी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी। बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फिल्मों में भी इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया। वर्ष 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे-धीरे एक ‘चलित थियेटर’ का रूप लेता चला गया और लोग घूम-घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे। पारसी थियेटर के अभिनय में ‘‘मेलोड्रामा’’ अहम तत्व था और संवाद अदायगी बड़े नाटकीय तरीके से होती थी। उन्होंने कहा कि आज भी फिल्मों के अभिनय में पारसी नाटक के तत्व दिखाई देते हैं।

80 वर्ष तक पारसी रंगमंच और इसके अनेक उप रूपों ने मनोरंजन के क्षेत्र में अपना सिक्का जमाए रखा। फिल्म के आगमन के बाद पारसी रंगमंच ने विधिवत् अपनी परंपरा सिनेमा को सौंप दी। पेशेवर रंगमंच के अनेक नायक, नायिकाएं सहयोगी कलाकार, गीतकार, निर्देशक, संगीतकार सिनेमा के क्षेत्र में आए। आर्देशिर ईरानी, वाजिया ब्रदर्स, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी और अनेक महान दिग्गज रंगमंच की प्रतिभाएं थीं जिन्होंने शुरुआती तौर में भारतीय फिल्मों को समृद्ध किया।

पारसी रंगमंच की चार प्रमुख विशेषताएँ रहीं-

(1) पर्दों का नायाब प्रयोग : मंच पर हर दृश्य के लिए अलग अलग पर्दे प्रयोग में लाए जाते हैं ताकि दृश्यों में गहराई और विश्वसनीयता लाई जा सके। आजकल फिल्मों में अलग अलग लोकेशन दिखाए जाते हैं। पारसी रंगमंच में ये काम पर्दों के सहारे होता था। इसलिए पारसी रंगमंच की मंच सज्जा का विधान बड़ा ही जटिल होता था।

(2) संगीत, नृत्य और गायन का प्रयोग : पारसी नाटकों में नृत्य और गायन का यही मेल हिंदी फिल्मों में गया। इसी वजह से भारतीय फिल्में पश्चिमी फिल्मों से अलग होने लगीं।

(3) वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) : पारसी रंगमच पर अभिनेता (या अभिनेत्री) जो कपड़े पहनते थे उसमें रंगों और अलंकरण का खास ध्यान रखा जाता था। चूंकि दर्शक बहुत पीछे तक बैठे होतें हैं इसलिए उनको ध्यान में ऱखते हुए वस्त्रों और पात्रों के अलंकरण में रंगों की बहुतयात होती थी।

(4) लम्बे संवाद : पारसी नाटकों के संवाद ऊंची आवाज में बोले जाते थे, इसलिए संवादों में अतिनाटकीयता भी रहती थी।

पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ़ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे। पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी। पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फिल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है। गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फिल्म को अधूरा मानते हैं। हमारी आधुनिक हिन्दी फिल्में पश्चिम के रिएलिज्म से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परम्परा को कायम रखे हुए है। हिन्दी फिल्मों की सफलता के लिए पासपोर्ट बन चुके ‘आइटम सॉन्ग’ की जड़ें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है।

पारसी रंगमंच शुरूआत में साधन-विहीन थे लेकिन धीरे-धीरे रंगमंच के संबंध में सभी उपकरण खरीद लिए। इन कंपनियों के पास विशेष प्रकार के यंत्र होते थे जिनके द्वारा देवों को हवा में उड़ता हुआ दिखाया जाता था, नायक को महल की दिवार से नदी में छलांग लगाते हुए दिखाया जाता था, परियों को आकाश से उतरते हुए दिखाया जाता था। चमत्कारिक दृश्य दिखाकर दर्शको को मनोरंजन पैदा करते थे। इस तरह का यंत्र का निर्माण उन्नीसवीं शताब्दी के लंदन ‘डूरीलेन थियेटर’ में दिखाया जाता था। इसका ही अनुकरण पारसी थियेटर ने किया था।

पारसी थिएटर कंपनियों के पास स्वतंत्र नाटककार और रंग-निर्देशक थे। स्त्री पात्र का अभिनय पुरुष पात्र ही करते थे कुछ दिनों के बाद नर्तकियाँ और वेश्याएँ भी सहभाग लेने लगी। पहले इस कंपनियों ने शेक्सपीयर के नाटक अंग्रेजी एवं गुजराती में प्रस्तुत किए। ईरानी नाटकों के फारसी गीतों को मराठी के लय या शैली में प्रस्तुत किए गए। पारसी थियेटर में क्रांति लाने वाले दादाभाई पटेल ने सन् 1870 ई. में फारसी गानों को हिंदी राग-रागिनियों में पेश किया। इस कंपनियों की नाटकों की भाषा साहित्यिक दृष्टि से परिनिष्ठित नहीं थी क्योंकि उसमें हिंदी, उर्दू एवं फारसी का मिश्रण रहता था। शैली सशक्त, कार्य-व्यापार प्रभावशाली एवं तीव्र थी, संवाद चुस्त रहते थे। नाटकों में हास्य अभिनय का प्रयोग अधिक मात्रा में रहता और नाटकों का विभाजन तीन-चार अंकों में होता था।

पारसी कंपनियों के नाटक रात के 10 बजे से सुबह 3-4 बजे तक चलते थे। नाटक की शुरूआत सामूहिक मंगलाचरण से होती थी। इन नाटकों में सुख-दुख का समन्वय रहता था। नाटकों में संगीत के लिए तबला, हारमोनियम, वायलिन का भी प्रयोग होता था। मार-पीट, हत्या, प्रेम-प्रसंग, युद्ध का वर्णन अत्यन्त मार्मिक ढंग से किया जाता था। नाटक देखने वाले दर्शक पहले से ही अभिनेता के बारे में जान लेते थे, तभी दर्शक भीड़ जमा करते थे। सफल नाटक एक-एक महीनों तक चलता था।

व्यावसायिक रंगमंच होने के कारण, जनसमुदाय अधिक आकर्षित करने के लिए, मनोरंजन के नाम पर पारसी रंगमंच अधिकाधिक तड़कीला-भड़कीला और फूहड़ दृश्य दिखाते गए। इसके कारण सभ्य, सुसंस्कृत समाज उससे कटता गया। कुछ विद्वानों ने उसे घटिया, बाजारू और अश्लील भी कहा।

पारसी थिएटर की प्रमुख मण्डलियाँ

हिन्दू ड्रैमैटिक कोर — 1853

पारसी थिएट्रिकल कम्पनी –1853

विक्टोरिया नाटक मण्डली — 1862

अल्फ्रेड नाटक मण्डली — 1871

ओरिजिनल विक्टोरिया नाटक मण्डली — 1877

हिन्दी नाटक मण्डली

रामहाल (राममहाल) नाटक मण्डली — 1900

व्याकुल भारत नाटक कम्पनी — 1921

द पारसी नाटक मण्डली — 1903

मूनलाइट थिएटर्स — 1939

पारसी थियेटर के लिए प्रमुख नाटककार एवं उनका नाट्य साहित्य

(1)) आगा हश्र कश्मीरी – ‘शहीदे नाज’, ‘सफेद खून’, ‘ख्वाबे हस्ती’, ‘सैदे-हबस’, ‘बिल्वमंगल’, ‘आँख का नसा आदि।

(2) नारायण प्रसाद ‘बेताब’ – ‘गोरखधन्धा’, ‘महाभास’, ‘कृष्णा सुदामा’, ‘रामायण’ आदि।

(3) राधेश्याम कथावाचक – ‘वीर अभिमन्यु’, ‘कृष्णावतार’, ‘श्रवणकुमार’, ‘मशरिकी हुर’ आदि।

(4) किशनचन्द्र जेबा – ‘शहीद संन्यासी’, ‘जख्मी हिंदू’ आदि।

(5) तुलसीदत्त शैदा – ‘जनक नंदनी’।

(6) जमुनादास मेहरा -‘कन्या विक्रय’, ‘देवयानी’, ‘आदर्श बंध’।

(7) मास्टर फिदा हुसैन – ‘नरसी मेहता’ ‘शाही फकीर’ आदि।

रामायण’, ‘मस्ताना’, ‘डाकू का लड़का’ जैसी फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय किया और गाने भी गाए।

इनके आगे का विकास मूवी थिएटर और सेलुलाईड फिल्मों में देखा जा सकता है।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं आजकल जयपुर में रहते हैं।) 

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