Saturday, April 27, 2024

सरकार की नाकामियों का ठीकरा आरबीआई के मत्थे मढ़ना चाहते हैं जेटली

अरुण माहेश्वरी
अरुण माहेश्वरी

रिजर्व बैंक और सरकार के बीच वाक्युद्ध का एक नया नाटक शुरू हुआ है । रिजर्व बैंक के एक उप-राज्यपाल ने आरबीआई की स्वायत्तता को एक ऐसे पवित्र स्थान पर रखा है मानो वित्त बाजार की सारी समस्याओं की जड़ में इस स्वायत्तता का हनन ही है ; अर्थात् वित्त बाजार की सारी बीमारियों की राम वाण दवा आरबीआई की स्वायत्तता है । दूसरी ओर अरुण जेटली, जो चल रहा है उसे ही तर्क-संगत साबित करने वाला एक पेशेवर वकील वित्त मंत्री है, सरकार के हस्तक्षेप को जायज बताते हुए आरबीआई के सामने प्रति-प्रश्न रखते हैं कि 2008-2014 के बीच जब बैंकों से मनमाने ढंग से कर्ज दिये गये थे, तब रिजर्व बैंक की स्वायत्तता क्या तेल लेने गई थी ? और इस प्रकार, बैंकों के संकट के मौके पर बैंकिंग जगत और सरकार की भूमिका पर विचार की जो एक जरूरत पैदा हुई है, मोदी के वकील जेटली उसे महत्वहीन साबित करके सरकार को पंगु छोड़ देते हैं ।

वे इस मोटी सी सचाई को भी नहीं देखते कि आखिर इन पांच साल में ही इतने बड़े पैमाने पर बैंकों का रुपया क्यों डूब रहा है और लोग रुपया लेकर आसानी से विदेश कैसे चले जा रहे हैं ? और कुछ नहीं तो इस काल में दिवालिया कानून में संशोधन का पूंजीपतियों की रुपया मारने की प्रवृत्ति पर क्या असर पड़ा है और पूंजीपतियों से नेताओं-मंत्रियों के प्रेम के कारण उनके लिये बैंकों का रुपया लेकर भाग जाना कितना सरल हुआ है, इस पर ही वे ठहर कर थोड़ा सोच सकते थे । बाकी मुद्रा नीति और कर्ज नीति की गहरी नीतिगत बातों को जाने दीजिए ! यह सच है कि यह पूरा विषय कोरी सैद्धांतिक बातों का विषय नहीं है । इन सैद्धांतिक बहसों से सिर्फ यही जाहिर होता है कि वित्त मंत्रालय बैंकों के कामों में कुछ ऐसी कारगुजारियां करता रहा है, जिनसे बैंक अधिकारी अब सहम गये हैं ।

उन्हें डर है कि इनके चलते होने वाली अनियमितताओं का ठीकरा अंतत: उनके सिर पर ही फूटेगा । लेकिन हमारी राय में नियमों का पालन करने या आरबीआई की कथित स्वायत्तता के होने मात्र से बैंकों और अर्थ-व्यवस्था में संकट टल जायेगा, यह सोचना भी कोरे बचकाने आर्थिक सोच के अलावा कुछ नहीं है । बैंकों के इस मौजूदा और लंबे समय से चले आ रहे स्थायी संकट का ही तकाजा है कि अर्थनीति और बैंकिंग संबंधी पूरे सोच को ही उसकी चौखटाबंद समझ के दायरे से बाहर निकाल कर समस्यामुक्त किया जाए । नियमों की पालना पर बल देते हुए भी आर्थिक जगत के विकासमान यथार्थ के उस अंतर्निहित सूत्र को भी देखा जाए जो बार-बार अर्थनीति के संकट के रूप में, और बैंकिंग में डूबत की खास समस्या के रूप में अपने को व्यक्त करता है ।

भारत में आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच आज विवाद की जड़ का स्थायी कारण जहां नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जिनके चलते सामाजिक विषमता को आर्थिक विकास का इंजन मान लिया गया है, वहीं भारत में इसका एक अतिरिक्त और तात्कालिक कारण है क्रोनी कैपिटेलिज्म, पूंजीवाद का एक सबसे आदिम रूप, सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट का पूंजीवादी आदिम संचय का रूप । लगातार तकनीकी क्रांतियों, तीव्र वैश्वीकरण और पूंजी की भारी उपलब्धता के कारण भारत की तरह की पिछड़ी हुई अर्थ-व्यवस्था का आकार-प्रकार भी स्वाभाविक रूप में काफी फैल गया है ।

पूंजी की उपलब्धता का बढ़ता हुआ आकार उसी अनुपात में उसके निवेश की एक नई विवेक दृष्टि की अपेक्षा रखता है । इसी से विकसित दुनिया में स्टार्ट्स अप्स का एक नया संजाल तैयार हुआ, गैरेजों में किये जाने वाले छोटे-छोटे प्रयोगों को विस्तृत सामाजिक फलक पर उतारने की संभावनाएं बनीं । और इसके साथ ही पश्चिम में, खास तौर पर अमेरिका में पिछले तीन दशकों में पूंजीपतियों की एक बिल्कुल नई पौध तैयार हो गई, इंटरनेट पर आधारित उद्यमों से जुड़ी पौध। इसने हर मामले में वहां के परंपरागत पूंजीपतियों को कोसों पीछे छोड़ दिया ।

भारत में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जुड़ कर शुरू-शुरू में कुछ खास टेलिकॉम कंपनियों, साफ्टवेयर कंपनियों और सस्ते श्रम के स्रोत बीपीओज का विकास हुआ । स्टार्ट्स अप्स के भी कुछ केंद्र विकसित हुए। लेकिन जल्द ही देखा गया कि यहां यह जगत मूलत: विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंग ही रह गया, पूरी तरह से राष्ट्रीय पूंजी के बल पर इनका कोई अपना स्वायत्त क्षेत्र नहीं बन पाया। इनका स्वयं में शक्तशाली केंद्र के रूप में विकास तभी मुमकिन था जब सरकार अपने बढ़े हुए संसाधनों के साथ ऐसे स्टार्ट्स अप्स के साथ खड़ी हो पाती और इन्हें भारत में विनिर्माण के व्यापक आधुनिकीकरण से जोड़ कर विनिर्माण के क्षेत्र को विस्तार दे पाती । जो काम चीन की सरकार ने किया, उसकी सारी संभावनाएं भारत में भी मौजूद थीं ।

लेकिन भारत सरकार इसी काम में पूरी तरह से विफल रही । उसके संसाधन उद्यमी और प्रतिभाशाली नौजवानों को उपलब्ध होने के बजाय राजनीतिज्ञों के दोस्तों और भाई-भतीजों को, जिन्हें क्रोनीज कहते हैं, सरकार की मदद से अर्थनीति को चूसने वाले परजीवी पूंजीपतियों को उपलब्ध होने लगे । परंपरागत पूंजीपतियों ने ही सरकार की कृपा से इंटरनेट आधारित उद्यमों पर भी अपना एकाधिकार कायम कर लिया और नई तकनीक के काल में अपने पुराने डूबते हुए उद्योगों के लिये सरकारी बैंकों से भारी धन बटोर लिया । परंपरागत उद्योगों के डूबने के पीछे पूंजी की कमी कभी जिम्मेदार नहीं थी, यह पूंजीवाद के कथित सर्जनात्मक विध्वंस का परिणाम था । फलत: पूंजीपतियों के कर्ज बढ़ते चले गये, उनके कुछ नये टेलिकॉम और इंटरनेट आधारित उद्योग तो फूले फले, लेकिन परंपरागत उद्योग अपने असाध्य से संकट से मुक्त नहीं हो पाए ।

इसी चक्कर में उद्यमशीलता को संरक्षण देने के नाम पर दिवालिया कानून में संशोधन करके पुराने कर्ज की जिम्मेदारी से पूंजीपतियों को को निजी तौर पर मुक्त करके वास्तव में उनके डूब रहे उद्योगों की जिम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया । इसी के बीच से केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने डूबती हुई कंपनियों को भी वित्त मुहैय्या कराने की एक नई जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली। कहा जा सकता है कि बैंकों की स्वायत्तता के अंत के प्रारंभ के लिये इतना ही काफी था । अब प्रधानमंत्री अपने साथ जिन क्रोनीज को लेकर विदेशी सफर पर जाने लगे, वित्त मंत्रालय के इशारों पर उनके लिये बैंकों के खजाने पूरी तरह से खुलने लगे । फलत: इस दौर में अंबानी की पूंजी में अकल्पनीय रेकार्ड वृद्धि हुई, तो अडानी नाम का मोदी का दोस्त भारत का नंबर एक उद्योगपति कहलाने लगा । मोदी के निकट के मेहुल भाई और नीरव मोदी को बैंकों से हजारों करोड़ रुपये उपहार में दिला कर विदेशों में बसाया जाने लगा । मोदी का यह सिलसिला आगे भी इसी प्रकार अबाध रूप से जारी रहता, यदि मोदी ने नोटबंदी के पागलपन से बैंकों और पूरी अर्थ-व्यवस्था को लाखों करोड़ की अतिरिक्त चपत न लगाई होती ।

आज बैंक कह रहा है हम डूबे हैं सरकार के चलते और सरकार कह रही है कि बैंकों का संकट उनके पास निवेश के विवेक की कमी से है । खास तौर पर आईएल एंड एफएस की तरह के इंफ्रा -स्ट्रक्चर से जुड़े गैर – बैंकिंग वित्तीय संस्थान के संकट ने पूरी अर्थ-व्यवस्था को एक प्रकार से पंगु बना दिया जब बाजार में वित्त के प्रबंधन में ऐसी कंपनियों के जरिये ही सामान्य तौर पर छोटे-बड़े नये उद्यमों को वित्त उपलब्ध कराया जाता हैं । इसने मूलत: पारंपरिक उद्योगों में हाथ जलाये बैठे राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपने संकट का एक नया बहाना प्रदान कर दिया ।

नये निवेश के व्याहत होने से अर्थ-व्यवस्था के संकुचन का एक नया संकट दरवाजे पर खड़ा दिखाई दे रहा है । सच यही है कि नोटबंदी से अचानक तीव्र हो गये इस संकट ने यदि मोदी सरकार के सामने इतना बड़ा गतिरोध पैदा न किया होता तो आज जो बहस चल रही है वह कभी पैदा नहीं होती। आदमी जब तक किसी प्रवाह में बहता रहता है, उसे किसी चीज का होश नहीं रहता । जब वह किसी बिंदु पर बुरी तरह से अटक जाता है, तभी अपने अंदर झांकने के लिये विवश होता है । हमारा दुर्भाग्य यही है कि केंद्र में अभी ऐसे उजड्ड तत्वों की सरकार है जो इस भारी संकट और गतिरोध की घड़ी में भी अपने अंदर में देखने की सलाहियत नहीं रखती है। न वह नव-उदारवाद के रास्ते को छोड़ने को तैयार है और न क्रोनीज्म को। आज आरबीआई और जेटली के बीच का सारा विवाद इसी समस्या की उपज है।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles