Friday, March 29, 2024

अदालतों से एक छोटा सा सवाल

सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज जब किसी लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील को सुनने के बाद अगर फैसले को खारिज करते हैं तो अक्सर कहते हैं कि जज डिड नॉट अप्लाई हिज माइंड, यानी जज ने फैसला सुनाते समय अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया। क्या सही मायने में निचली अदालतों के जज अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते हैं।

फादर स्टेन स्वामी के साथ हुए हादसे के बाद यह सवाल दिमाग को परेशान कर रहा है। एक छोटी सी घटना से इसकी पड़ताल करते हैं। फादर स्टेन स्वामी ने एक सिपर और स्ट्रा मांगा था। जज ने इसके लिए एनआईए से एक रिपोर्ट तलब की थी और एक माह दो दिनों बाद स्वामी को यह उपलब्ध कराया गया था। पढ़े-लिखे जज को यह बात समझ में क्यों नहीं आई पार्किंसन के मरीज अपने हाथों में कुछ नहीं थाम सकते हैं। आगरा जेल में करीब 20 साल से बंद 13 बच्चों को सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो मुकदमा कायम करने के बाद रिहा करने का आदेश दिया था। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब वे नाबालिग थे। किसी भी अपराधी को गिरफ्तार करने के बाद अदालत में पेश किया जाता है। उन्हें भी पेश किया गया होगा। पुलिस ने उन्हें बालिग बताया और जज साहब ने इसी आधार पर आदेश जारी कर दिया। इसके बाद बीस साल के दौरान उनके मुकदमे को कितने जजों ने सुना होगा यह कयास लगा सकते हैं।

फिर भी किसी जज को यह ख्याल नहीं आया कि बगैर किसी ट्रायल के ये इतने वर्षों से जेल में क्यों बंद हैं। जज बनने के लिए तो कानून की डिग्री हासिल करनी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन बंदियों के मामले में लीगल एड कमेटी बनाम केंद्र सरकार के एक मामले में कहा था कि बंदियों को ट्रायल शुरू होने का इंतजार करते हुए अनिश्चित काल तक जेल में बंद नहीं रखा जा सकता है। आगरा जेल में बंद विचाराधीन बंदियों के मामले की सुनवाई करने वाले जजों ने भी इसे पढ़ा होगा। संविधान की धारा 141 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून पर हाई कोर्ट सहित सभी अदालतों को अमल करना जरूरी है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इन दिनों निचली अदालत प्रॉसीक्यूशन और जांच करने वाली एजेंसियों के बयान पर ज्यादा भरोसा करने लगी हैं पत्रकार सिद्दीकी  कप्पन का मामला है इसकी एक मिसाल है। उन्हें राष्ट्र द्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया है और वे 08 माह से जेल में बंद हैं।

उनके एडवोकेट मधुबन दत्ता चतुर्वेदी कहते हैं कि कप्पन की जमानत याचिका पर सुनवाई किए बगैर ही उसे खारिज कर दी गई। अतिरिक्त सेशन जज ने कहा कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट जाने के लिए स्वतंत्र हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता उमर खालिद तीन सौ दिनों से भी अधिक समय से जेल में बंद है किसी भी जज ने न तो जमानत दी और ना ही सवाल किया कि ट्रायल कब शुरू होगा और अभी तक क्यों नहीं शुरू हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में अपने एक फैसले में कहा था कि जमानत तो कानून है और जेल अपवाद है। इसके बावजूद एक मजदूर नेता एन. के. इब्राहिम 2015 से केरल के एक जेल में बंद है। उन्हें यूएपीए (UAPA) के तहत माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इन 06 वर्षों में उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ चुका है फिर भी जेल में है, पर ट्रायल शुरू होने की कोई उममीद नजर नहीं आती है।

सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि पूरे देश में आज भी आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत लोगों को गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया जाता है। जज उनके खिलाफ दर्ज मामले की सुनवाई करने के बाद अभियुक्तों को जेल या पुलिस हिरासत में भेजने का आदेश दे देते हैं। हैरानी की बात यह है कि आदेश देते समय जज साहब को यह क्यों नहीं पता होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने करीब 06 साल पहले इस धारा को अवैध करार देते हुए रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी भी इस धारा के तहत गिरफ्तारी की जाने पर हैरानी जताई तो केंद्र सरकार ने कहा कि इस पर कार्रवाई की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर. एफ. नरीमन ने कहा कि यह शर्मनाक है।

जब अदालतों का यह हाल है तो ऐसे में किसी मामले को एनआईए को सौंपे जाने के औचित्य पर भला क्या विचार हो सकता है। एनआईए का गठन बहुत ही महत्वपूर्ण मामलों की जांच के लिए किया गया था पर अब यह एक राजनीतिक हथियार बन गया है। जब भी कोई मामला जांच के लिए एनआईए को अचानक सौंपा जाता है तब अदालत ने इसके सौंपे जाने के औचित्य पर विचार क्यों नहीं करती है। भीमा कोरेगांव एल्गार परिषद मामले को ही लें। जब महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनती नजर नहीं आई तो अचानक यह मामला एनआईए को सौंप दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस एनआईए को  सौंपे जाने की वकालत करने लगे।। जब उनकी सरकार थी तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इसे एनआईए को सौंपे जाने का विरोध किया था। क्या इस विरोध और समर्थन के पीछे से राजनीति झांकती हुई नजर नहीं आती है।

बंगाल में 2009 में जंगल महल में माकपा विधायक प्रवीण महतो की हत्या कर दी गई थी और विस्फोट के कारण ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी। इस मामले में पुलिस विरोधी संग्राम समिति के नेता छत्र धर महतो का नाम उभरकर सामने आया था। जेल से रिहा होने के बाद तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। अचानक 10 साल बाद इसकी जांच एनआईए को सौंप दी गई। इस मामले की सुनवाई करने वाले जज ने यह सवाल नहीं पूछा 10 साल बाद इसकी सुनवाई क्यों और किन नए तथ्यों के आधार पर एनआईए को सौंपी गई है। उन्होंने मामले की सुनवाई शुरू कर दी।  सच तो यह है कि महत्व जब छत्र धर महतो ने भाजपा का हाथ नहीं तो यह मामला एनआईए को सौंप दिया गया। पर यह बात इस मामले की सुनवाई करने वाले जज की समझ में नहीं आई।

भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर

हकीकत तो यह है कि निचली अदालतें हुक्मरानों के हुक्म का तामील करने लगी हैं। जैसे सांसद प्रज्ञा ठाकुर का ही मामला लें। स्वास्थ्य कारणों से अदालत ने उन्हें मालेगांव विस्फोट मामले में अदालत में हाजिर नहीं होने की छूट दे दी है। दूसरी तरफ से कहीं बास्केटबॉल खेलती तो कहीं वेडिंग में पार्टी में नृत्य करती नजर आती हैं। दूसरी तरफ स्टेन स्वामी को सिर्फ सिपर और स्ट्रा देने के लिए रिपोर्ट तलब की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि न्यायिक हिरासत में स्टेन स्वामी की हुई मौत एक दुःखद दुर्घटना है। इसे टाला जा सकता था। आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े सभी अंग इसके लिए जिम्मेदार हैं।

(कोलकाता से वरिष्ठ पत्रकार जेके सिंह की रिपोर्ट।)

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