Thursday, April 25, 2024

बाबा साहेब के गहरे वैचारिक पक्षों को सामने लाती है ‘….आंबेडकर एक जीवनी’

डॉ. भीम राव आंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके अवदान को लेकर भारत के बौद्धिक वर्ग में आम तौर पर दो तरह का नजरिया देखने को मिलता है। पहला उनकी उपेक्षा करता है और उन पर बात ही नहीं करना चाहता, दूसरा उन्हें भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान साम्राज्यवाद का पक्षधर और भारतीय संविधान में मामूली अथवा जमींदारों (अयोध्या सिंह) पूंजीपतियों के पक्ष की भूमिका निभाने वाला बौद्धिक मानता है। रोचक बात यह है कि दूसरा नज़रिया कुछ दक्षिपंथी और वामपंथी बौद्धिकों में समान रूप से है (देखिये अरुण शौरी द्वारा लिखित ‘वर्शिपिंग फाल्स गॉड्स ‘ और रंगनायकम्मा द्वारा लिखित ‘जाति प्रश्न के समाधान के लिये मार्क्स ज़रूरी हैं)। आंबेडकर के लिये इस उपेक्षा और उन्हें मुक़म्मल तौर पर ख़ारिज करने वाले दो किस्म के नज़रियों के अलावा एक तीसरा नज़रिया भी है जो आंबेडकरवादी और कुछ नवबौद्ध दलित लेखकों द्वारा स्थापित होने की जद्दोजहद में है, जो आंबेडकर के संबंध में अब तक अछूती रह गई सामग्री और विचार के नए आयाम सामने लाते हैं लेकिन इस नज़रिये के साथ सबसे बड़ी समस्या इसका आंबेडकर के आभामंडल से अत्यधिक प्रभावित होकर, उनके प्रति अनालोचनात्मक हो जाना और तटस्थ ना रह पाना है।

भारतीय लेखकों के आंबेडकर को लेकर इस किस्म के असंतुलित और कुछ हद तक पूर्वाग्रही नज़रियों को देखते हुए इस बात में आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि आंबेडकर पर अपेक्षाकृत अधिक ठोस काम विदेशी अथवा विदेशी मूल के लेखकों द्वारा किया गया है जिनमें थॉमस मैथ्यू, गेल ओमवेट, इलिनियर ज़ैलियट और पैरी एंडरसन का नाम लिया जा सकता है, हालांकि हाल के दौर में भारतीय लेखकों द्वारा भी आंबेडकर को नए नज़रिए से देखने की कोशिश हुई है, सौम्यव्रत चौधरी की ‘आंबेडकर एंड अदर इम्मोर्टल’ अरुंधति रॉय की ‘द डॉक्टर एंड द सेंट ‘ आनंद तेलतुंबडे और सूरज येंगड़े द्वारा सम्पादित ‘द रेडिकल इन आंबेडकर’ जैसी किताबें हैं। इसके अलावा कुछ पहले आए उपेंद्र बक्शी के काम के अतिरिक्त आकाश सिंह राठौर की आम्बेडकर्स प्रीएम्ब्ल : द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन कंस्टीट्यूशन को देखा जा सकता है। लेकिन जीवनी साहित्य के रूप में आंबेडकर पर अब भी बहुत कम संतुलित काम हुआ है क्रिस्टोफ़ जाफ्रलॉ द्वारा लिखित ‘डॉ आंबेडकर एंड अनटचेबिलिटी: एनालाइजिंग एंड फाइटिंग कास्ट’ का हिंदी अनुवाद, ‘भीमराव अंबेडकर एक जीवनी: जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण’ पुस्तक इस कमी को बख़ूबी पूरा करती है लेकिन परम्परागत जीवनी साहित्य की लीक से एकदम ही हटकर। भारतीय लेखकों द्वारा लिखी गई आंबेडकर की जीवनियों में सबसे प्रसिद्ध धनंजय कीर द्वारा लिखित डॉक्टर आंबेडकर ‘लाइफ एंड मिशन है’। जिसके विषय में नामवर सिंह ने कहा था” अतिशयोक्ति न होगी यदि कहें कि आज भी इस जीवनी का स्थान लेने वाली कोई और कृति नहीं है”।

निश्चित ही धनंजय कीर द्वारा लिखित पुस्तक जो कि आंबेडकर की प्रामाणिक जीवनी मानी जाती है, अपनी सुघटता, ब्यौरे और विस्तार के कारण जीवनी साहित्य में एक विशेष स्थान रखती है, लेकिन अन्य कई अच्छी बातों और विशेषताओं के अलावा भाववाद और अवैज्ञानिकता किस तरह से इस पुस्तक में समाई है इसके लिए एक उदाहरण देना समीचीन होगा-” उन्होंने (रामजी सकपाल) वैरागी साधु से यह प्रार्थना की कि वे उनके घर पधारें………. उन्होंने घर आने से इनकार कर दिया, तथापि उन्होंने स्वतः स्फूर्ति से सूबेदार को आशीष वचन दिया कि अपने कृतित्व से इतिहास पर चिरंतन छाप डालकर अपने घऱाने का नाम अमर करने वाला एक पुत्र तेरी गोद में पैदा होगा”( संदर्भ डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जीवन चरित पृष्ठ 10, 11) धनंजय कीर, आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द चमत्कारपूर्ण अति मानवीय संदर्भों का जुड़ जाना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा, क्रिस्टोफ़ जाफ्रलॉ द्वारा लिखित भीमराव आंबेडकर एक जीवनी में इस तरह की बातों के लिए कोई जगह नहीं है और यही इस किताब की सबसे बड़ी विशिष्टता है।

हिंदी में राजकमल प्रकाशन से आई इस पुस्तक का अनुवाद योगेंद्र दत्त ने किया है, गहन शोध और एक नई विचार दृष्टि से संपन्न यह किताब आम परम्परागत जीवनी साहित्य से बिल्कुल अलग है। जैसा कि लेखक ने स्वयं ही किताब की शुरुआत में आभार में लिख कर स्पष्ट किया है ” मैंने यह किताब काफी स्पष्ट उद्देश्य और जीवनी लेखकों के मुकाबले बिल्कुल अलग दृष्टिकोण से लिखी है……. सबसे पहले तो मैंने यह किताब लिखने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि मैं भारतीय इतिहास के उस समय तक के एक बेहद हाशियाई मगर अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व को इतिहास में उसके न्याय संगत स्थान पर देखना चाहता था……मेरी दिलचस्पी डॉ. आंबेडकर के समाजशास्त्रीय  चिंतन में थी। जातिगत उत्पीड़न से लड़ने के लिए उन्होंने मुक्ति की जो रणनीतियां विकसित कीं वह मेरी वरीयता में दूसरे स्थान पर थी। यह किताब इन्हीं मुद्दों पर रोशनी डालती है। यह किताब आंबेडकर के जीवन का क्रमवार ब्यौरा नहीं देती और इस लिहाज से यह किताब कालक्रम के अनुसार नहीं, बल्कि रणनीतियों के क्रम में व्यवस्थित की गई है”।

किताब की प्रस्तावना में भी लेखक ने लिखा है…“किताब का मकसद इस बात पर रोशनी डालना है कि अस्पृश्यों की मुक्ति में और सामान्य रूप से भारत के सामाजिक और राजनीतिक रूपांतरण में आंबेडकर का क्या योगदान रहा है” लेखक ने किताब को अपने बेटे मिलन को समर्पित करते हुए यह लिखा है “ यह किताब मिलन को समर्पित करते हुए,मैं आशा करता हूं कि डॉ. आंबेडकर के जीवन को निरपेक्ष दृष्टि से देखने पर भी हमारे भीतर उदास भावनाएं पैदा होती हैं उनको एक दिन मिलन भी आत्मसात करेगा”। डॉक्टर आंबेडकर को निरपेक्ष दृष्टिकोण से देखने का प्रयास और ऐसा करने से यह पाठक के मन में पैदा होने वाली उदात्त भावनायें ‘यही वह बात है जो इस किताब की खासियत है, किताब आम जीवनियों से हटकर आंबेडकर के ‘आंबेडकर’ बनने की प्रक्रिया, उसकी परिस्थितियां, आंबेडकर के अपने असाधारण प्रयासों के अलावा अन्य कारकों पर भी पर्याप्त ध्यान देती है। लेखक ने अपनी पड़ताल से यह जानने की कोशिश की है आंबेडकर के उभार के समय महाराष्ट्र में समाज सुधार और ब्राह्मण विरोधी आंदोलन किस चरण पर था, नए विकसित होते पूंजीवादी संबंधों ने किस तरह स्वतंत्र दलित नेतृत्व के उभरने की पृष्ठभूमि तैयार की, आंबेडकर से पहले दलितों के स्वतंत्र आंदोलन किस रूप में चल रहे थे, आंबेडकर का आंदोलन किस तरह से इनसे जुड़ा हुआ एवं किस तरह से इनसे स्वतंत्र था,  महाराष्ट्र से पैदा होने वाले गैर ब्राह्मण आंदोलन ने क्यों और किस तरह से आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व के उभरने में मदद की।

शुरुआती अध्याय में लेखक इसी बात को समझने की कोशिश करता है, कि आधुनिक भारतीय इतिहास में बकौल उपेंद्र बख्शी ‘आंबेडकर (जो कि) सिरे से विस्मृत व्यक्तित्व हैं ‘( भीमराव अंबेडकर एक जीवनी, क्रिस्टोफ जैफ़रलॉ पृष्ठ 14 में उद्धृत), वर्तमान समय में कैसे शोषण के तमाम रूपों को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध लोगों में से कईयों के आदर्श और कई अन्यों के प्रेरणा स्रोत के साथ समाज विज्ञान में विद्या की अलग- अलग विधाओं के विशेषज्ञों और शोधार्थियों की पहली पसंद बन गए हैं।

किताब की शुरुआत सुप्रसिद्ध मराठी लेखक दया पवार के एक मर्मस्पर्शी संस्मरण से होती है। जिसमें बाबा साहब के देहांत के समय के माहौल का जिक्र है, जिसमें लेखक दया पवार ने उनकी मृत्यु के धरती फटने जैसा एहसास बताया है। इसके बाद आंबेडकर के बचपन उनकी शिक्षा, उनकी असाधारण अकादमिक उपलब्धियों, उनके कड़वे अनुभवों, उनके सामाजिक आंदोलन, राजनीतिक गोलबंदी , गांधी के साथ संघर्ष, श्रमिक केंद्रित उनकी राजनीति, दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक वजूद के लिए उनका संघर्ष, संविधान निर्माण में उनकी भूमिका, हिंदू कोड बिल संबंधित उनकी प्रतिबद्धता, उनके इस्तीफे और अंततः उनके द्वारा बौद्ध धर्म अपना लिये जाने  का फैसला,  आदि का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इन सूचनाओं को प्रस्तुत  कराने के दौरान ही लेखक अंबेडकर को लेकर यह टिप्पणी करता है-” आंबेडकर भारतीय समाज के तमाम विकृतियों को मुकम्मल तौर पर खत्म करने के लिए कृतसंकल्प थे”( वही पृष्ठ 18) लेकिन वह एक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सुधारक और कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक असाधारण बौद्धिक भी थे।

एक समाज वैज्ञानिक के रूप में अंबेडकर की भूमिका के विषय में लेखक इस रूप में  विचार व्यक्त करता है,“राजनेता आंबेडकर और कार्यकर्ता आंबेडकर की छवियों के पीछे एक चिंतक आंबेडकर की छवि प्रायः छिपी रह जाती है और यह अफसोस की बात है, क्योंकि उनकी बहुत सारी रचनाएं बहुत अव्वल दर्जे की बौद्धिक कृतियां हैं। फिर भी दूसरे चिंतकों के विपरीत उनका लालन-पालन और हालात ऐसे रहे कि वह समाजशास्त्री के रूप में अपनी प्रतिभा का प्रयोग अपने सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य के लिए कर पाए: उन्होंने जाति की संरचना की चीर फाड़ इसलिए की ताकि ऊंच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को जड़ से खत्म कर सकें और इस मिश्रित पद्धति की वजह से ही उन्हें एक विशुद्ध समाज वैज्ञानिक के रूप में मान्यता नहीं मिल पाई।”( वही पृष्ठ 19)

अध्याय एक में लेखक ने समाज सुधार और ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के समय महाराष्ट्र के सामाजिक राजनीतिक माहौल का जायजा लेने की कोशिश की है जिससे वह जान सके कि वह परिस्थितियां और पृष्ठभूमि क्या थी, जिसमें आंबेडकर का उभार संभव हुआ। अपने विश्लेषण में लेखक यह पाता है-” आंबेडकर भारत के पहले अस्पृश्य नेता थे। वो लगभग एक पहेली की तरह सामने आते हैं: अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि से निकलकर किस तरह वह इस आला हैसियत तक पहुंचे और सही मायनों में राजनेता बने? यहां हम उनके व्यक्तित्व के बेमिसाल गुणों के सहारे उनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या करके संतोष नहीं कर सकते। बेशक उनके पास एक विलक्षण मस्तिष्क और चट्टानी आत्मबल था। वह अपनी सारी ऊर्जा को एक व्यापक परियोजना पर केंद्रित कर सकते थे। और उनकी संकल्प शक्ति कभी कम नहीं पड़ी। मगर यह विशिष्टता भी उनके करियर के उठान को समझने के लिए काफी नहीं है।”( वही पृष्ठ 21)

आंबेडकर के असाधारण व्यक्तित्व के निर्माण और उनकी उपलब्धियों को समझाने के लिए लेखक ने तत्कालीन महाराष्ट्र की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था, ब्राह्मण विरोधी आंदोलन, ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रभाव,  मिशनरियों की सक्रियता, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, महत्वपूर्ण कारक के रूप में ज्योति राव फुले के आंदोलन के प्रभाव, साथ ही गैर ब्राह्मण शूद्र शासकों द्वारा आंबेडकर की अलग-अलग तरीकों से मदद किया जाना, एवं बलूतेदारी व्यवस्था में आंबेडकर की अपनी जाति महार को मिला हुआ अपेक्षाकृत पेशागत लचीलापन( जिसमें जूठन उठाने एवं मरे हुए मवेशियों को ढोने और उनका मांस खाने के अस्वच्छ कामों से लेकर सरकारी हरकारे का काम भी महार करते थे) एवं इस व्यवस्था के टूटने से महारो को  अन्य अस्पृश्यों की तुलना में अधिक फायदा पहुंचना, आदि कई कारकों की शिनाख्त की है। लेखक अपने कहे अनुसार ही आंबेडकर को लेकर किसी रूमानी नज़रिये के पक्ष में नहीं है वह तथ्यों, परिस्थितियों, साक्ष्यों की पड़ताल कर आंबेडकर नामक परिघटना की जेनेसिस को समझाना चाहता है और इस क्रम में अपने पाठक को नई- नई जानकारियों से समृद्ध करता है।

लेखक ने इस बात समझने की कोशिश की है कि गैर ब्राह्मण मराठा शासकों ने क्यों आंबेडकर के प्रति संरक्षणवादी एवं सहयोगात्मक रवैया अपनाया। किताब की खासियत यह है कि नए किस्म की ऐतिहासिक सामग्री वाले संदर्भों का नये तरीके से इस्तेमाल किया गया है। पूरी किताब में इस तरह की सामग्री का जिक्र कई जगह है।आंबेडकर की अन्य जीवनियों में गैर ब्राह्मण मराठा शासकों द्वारा आंबेडकर की मदद का जिक्र तो है लेकिन प्रस्तुत किताब की तरह उसके सामाजिक राजनीतिक कारकों और आयामों को संदर्भ एवं विवरण सहित सामने नहीं लाया गया है इस लिहाज से भी यह किताब और भी पठनीय हो जाती है। मेरी मुझे समझ में किताब का तीसरा अध्याय सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है, अध्याय का शीर्षक है। ‘जाति के प्रभावी उन्मूलन के लिए उसका विश्लेषण और नृजातीयकरण’।इस अध्याय में ही आंबेडकर की जाति को लेकर समझ की गतिशीलता और जाति उन्मूलन को लेकर उनके प्रयासों की निरंतरता और उसमें आने वाले बदलावों का विश्लेषण किया गया है।

भारतीय जातिव्यवस्था को लेकर किए गए महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय एवं मानवशास्त्रीय अध्ययनों का जिक्र करते हुए लेखक एक और रोचक बात से पाठकों को अवगत कराता है वह लिखते है-” गोविंद महाशिव घुर्ये को जाति व्यवस्था की जड़ों पर शोध करने वाला पहला भारतीय मानव शास्त्री माना जाता है। उनकी ‘कास्ट एंड रेस इन इंडिया ‘नामक किताब 1932 में प्रकाशित हुई थी। मगर गौर करने वाली बात है कि आंबेडकर ने घुर्ये से भी एक दशक पहले जाति व्यवस्था की जड़ों पर शोध करना शुरू कर दिया था। इसके बावजूद जैसा कि समाजशास्त्र के क्षेत्र में आंबेडकर को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए अपना प्रयास शुरू करने से पहले आलिवये हैरेश्मिड्ट ने रेखांकित किया है, भारतीय समाजशास्त्र में  अंबेडकर के योगदान को बहुत सालों तक नजरअंदाज किया जाता रहा। भारतीय मानव शास्त्र के संस्थापक मसलन एमएन श्रीनिवास व लुई ड्यूमों और उनके ज्यादातर उत्तराधिकारी भी आंबेडकर को नजरअंदाज करते रहे।

हालांकि सच्चाई यह है कि आंबेडकर के काम में इन लोगों के बहुत सारे तर्कों का पूर्वाभास मिल जाता है।” इस तरह लेखक ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भारतीय समाज की तथाकथित गतिहीनता या दीर्घ सातत्य के कारणों की भी पड़ताल करने की कोशिश की है, और आंबेडकर के बौद्धिक एवं कार्यकर्ता के बतौर किए गए प्रयासों के माध्यम से इस गतिहीनता को तोड़ने की जो कवायद हुई है उसका एक तार्किक खाका खींचने की कोशिश की है। एक राजनीतिक व्यक्तित्व के बतौर आंबेडकर की सक्रियता का दिलचस्प ब्यौरा किताब में दिया गया है। अंबेडकर का दृष्टिकोण राजनीतिक रूप से एकदम साफ है।

आंबेडकर इस बात को लेकर स्पष्ट थे कि दलित वर्ग को अपना राजनीतिक नेतृत्व अपने पास ही रखना होगा। और इसके लिए राजनीतिक रूप से पृथक पहचान आवश्यक है। और इसी बुनियादी सोच के चलते आंबेडकर का पृथक निर्वाचन मंडल के सवाल पर गांधी के साथ तीव्र संघर्ष हुआ। जिसे किताब में बहुत विस्तार से, कई महत्वपूर्ण ब्यौरों के साथ प्रस्तुत किया गया है। जिससे गुजरने के बाद पाठक को गांधी का रुख बहुत ही अतार्किक दिखाई देता है। इसके बाद आंबेडकर के विरुद्ध हिंदू राष्ट्रवादियों की मोर्चाबंदी होती है और साथ ही आंबेडकर के प्रतिद्वंदी दलित नेताओं को हिंदू राष्ट्र वादियों द्वारा आंबेडकर के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है। गांधी के साथ अपने तीव्र मतभेद और संघर्ष के बाद आखिरकार आंबेडकर को उनके अनशन के सामने झुकना पड़ता है, किताब में इस पूरे घटनाक्रम को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है स्वतंत्र पाठक के मन में गांधी के प्रति वितृष्णा ही पैदा होगी।

इस किताब में एक बार फिर सुस्पष्ट साक्ष्यों के द्वारा इस तथ्य को सामने लाया गया है कि कम्युनल अवार्ड के विरुद्ध गांधी का अनशन का उद्देश्य सवर्ण हिंदुओं के विरुद्ध दलितों एवं मुस्लिमों की एकता को न पनपने देना था। ताकि राजनीतिक रूप से सामान्य हिंदुओं के वर्चस्व को बचाए रखा जा सके। गौरतलब है कि हिंदू महासभा भी ऐसा ही मानती थी। किताब के पांचवें अध्याय में एक श्रमिक नेता के रूप में आंबेडकर के उभार एवं उनका फिर से शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के रूप में जाति आधारित संगठन की ओर झुकाव को,इस पूरे घटनाक्रम की परिस्थितियों एवं जिम्मेदार कारकों के साथ समझाया गया है।

इस किताब में अंबेडकर द्वारा श्रमिक वर्ग का नेतृत्व अपने हाथ में लेने की कोशिश करना, दलितों एवं अन्य मेहनतकश लोगों के बीच सामान्य साझेदारी विकसित करने की कोशिश करना,  खोटी व्यवस्था और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के खिलाफ संघर्ष में कांग्रेसी सरकार के विरुद्ध किसान मजदूरों का नेतृत्व करना और समकालीन कम्युनिस्ट नेताओं के साथ कम से कम कुछ सवालों पर साझा मोर्चा तैयार करने की कोशिश करना, इन समस्त पहलुओं को विश्वसनीय ब्योरे के साथ प्रस्तुत किया गया है। संविधान सभा में आंबेडकर की भूमिका पर अन्य तमाम बातों के अलावा लेखक ने एक दिलचस्प विश्लेषण प्रस्तुत किया है। लेखक का यह मानना है कि भारतीय संविधान में अंतर्निहित मूल्य आंबेडकर की अपनी निजी प्रज्ञा से गहरे प्रभावित हैं और आंबेडकर भारतीय संविधान में गांधी और गांधीवाद, जोकि गांव को सार्वजनिक जीवन की इकाई मानता है, को बहुत हद तक हाशिए में रख पाए। भारतीय संविधान पर आंबेडकर के इस प्रभाव को लेखक ने उनके द्वारा गांधी से पूना पैक्ट का एक तरह से प्रतिशोध लिया जाना कहा है…  हिन्दू कोड बिल पर आंबेडकर की सक्रियता के बावजूद बिल पास नहीं हुआ, आंबेडकर ने इस मुद्दे पर इस्तीफ़ा दे दिया… प्रस्तुत किताब में इस बिल को लेकर अलग-अलग लोगों की बयानों का दिलचस्प ब्यौरा दिया गया है।

हिंदू कोड बिल को लेकर किताब में दिए गए ब्योरे से स्पष्ट होता है कि संविधान सभा के अधिकतर कांग्रेसी सदस्य रूढ़िवादी थे, पटेल, प्रसाद, पंत, सब बिल के खिलाफ थे। बिल के पक्षधर नेहरू आधुनिक थे, लेकिन वो आंबेडकर की तरह मजबूत और दृढ़ प्रतिज्ञ आधुनिक नहीं थे, जहाँ आधुनिकता शब्दों से परे जाकर अपना सब कुछ दांव पर लगाने की मांग करती है वहां नेहरू कमज़ोर साबित हुए….और यही बात नेहरू और आंबेडकर के संबंध विच्छेद का कारण भी बनती है…इसके उपरांत आंबेडकर धर्म परिवर्तन , जो कि उन्होंने वर्षों पहले घोषित कर दिया था, को कार्य रूप में परिणत करते हुए बौद्ध धम्म अपना लेते हैं, आंबेडकर के द्वारा बौद्ध धर्म अपना लिए जाने का विश्लेषण करते हुए गेल ओमवेट कहती हैं-” बौद्ध धर्म को अपनाकर आंबेडकर ने वही हासिल कर लिया था, जो फुले और पेरियार हिंदू धर्म के विरुद्ध अपने सारे प्रतिरोध के बावजूद हासिल नहीं कर पाए थे। आंबेडकर ने भारत में एक गैर हिंदू पहचान, एक सामूहिक शक्ति और रेडिकल ऊर्जा पैदा कर दी थी”।

यह किताब आंबेडकर के प्रति श्रद्धा रूमानियत अथवा पूर्वाग्रहों को बिल्कुल किनारे रखकर लिखी गई एक उत्कृष्ट रचना है। जो तथ्यों, तर्क, साक्ष्यों, और प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर, आंबेडकर द्वारा अपनाई गई रणनीतियों के सहारे आंबेडकर को समझने का प्रयास करती है, स्वाभाविक है कि आंबेडकर को अति मानव का दर्जा तो नहीं देती, लेकिन उनके करिश्माई व्यक्तित्व,  उनके बेमिसाल चारित्रिक बल और असाधारण इच्छाशक्ति की बदौलत समता स्वतंत्रता एवं बंधुत्व की व्यवस्था स्थापित करने के उनके प्रयासों को ईमानदारी के साथ सामने लाती है। लेखक ने आंबेडकर को निजी रूप में बेहद ईमानदार और निजी महत्वाकांक्षाओं से रहित पाया है। एक बड़े उद्देश्य को पाने के क्रम में अंबेडकर ने अपनी रणनीतियां जरूर बदली, लेकिन उनके कार्यकलापों का विश्लेषण करते हुए उन पर कोई निजी आरोप नहीं लगाया जा सकता।

आधुनिक भारतीय इतिहास में सिरे से विस्मृत इस करिश्माई व्यक्तित्व को तटस्थता से और तर्क पूर्ण रूप में समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है। साथ ही ज्यादा महत्वपूर्ण रूप में यह बात गौर करने लायक है कि भविष्य में भारत को अधिक समतामूलक बनाए जाने के आंबेडकर की अनिवार्यता इस किताब से एक बार फिर से स्थापित होती है। मेरे निजी दृष्टिकोण में इस किताब की सीमाएं बहुत कम हैं। यह किताब एक जागरूक पाठक को हर लिहाज से समृद्ध करती है. जैसा कि लेखक ने  प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया था इस किताब का उद्देश्य आंबेडकर के निजी जीवन का क्रमवार ब्योरा प्रस्तुत करना नहीं है। बल्कि उनके द्वारा अपनाई गई रणनीतियों के मद्देनजर आंबेडकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ ही भारत को आधुनिक लोकतांत्रिक एवं समतावादी बनाने में उनके योगदान का विश्लेषण करना है। किताब अपने उद्देश्य में सफल हुई। यह एक हर हाल में पढ़े जाने लायक किताब है।

 किताब का नाम – भीमराव आंबेडकर

                           एक जीवनी

         जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण( मूल कृति Dr Ambedkar and untouchability: Analysing and fighting caste का हिंदी अनुवाद)

लेखक            -क्रिस्टोफ़ जाफ्रलॉ

अनुवादक       – योगेंद्र दत्त

प्रकाशक         – राजकमल

ISBN            -978-93-88753-90-6

पृष्ठों की संख्या – 208

(लेखक और टिप्पणीकार मोहन मुक्त की यह समीक्षा समयांतर में प्रकाशित हो चुकी है।)

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