Friday, April 26, 2024

शोकसंतप्त और शर्मिंदा गणतंत्र की ओर से एक नागरिक का माफ़ीनामा

श्रध्देय मृतक साथी गण

प्रणाम!!

यह पत्र मूलतः आपमें से उन मृतात्माओं के नाम है जिन्हें हमने बीते ढाई-तीन महीनों में खो दिया है। आपमें से कई साथियों के मृतक प्रमाण पत्र पर कोविड पॉजिटिव का उल्लेख है और कईयों के प्रमाणपत्र पर नहीं है। हो सकता है भूल वश या भय वश लिखने वाले की नजर उस कॉलम पर  ना पड़ी हो। आप तो जानते ही हैं, भूल और भय दोनों ही भावनाओं के पीछे प्रेरणा के स्रोत क्या और कौन हैं। हालांकि हाल के हफ़्तों में इसे ‘सिस्टम’ नाम की संज्ञा से संबोधित किया जाता है। आपमें से कई तो बिना इस आशय के किसी प्रमाणपत्र के ही देश की विभिन्न नदियों में तैरते पाए गए और इसी सिस्टम नाम के प्राणी की ओर से किसी ने कहा कि आप सब ने जल-समाधि ली होगी क्योंकि ऐसा हमारी परंपरा का हिस्सा रहा है। सिस्टम की ओर से अगर इतना पुख्ता पौराणिक आधार का तर्क है तो आगे प्रतिरोध की सम्भावना कम ही बचती है।

खैर! इस पत्र के पीछे मंशा यह नहीं है कि ‘सिस्टम सर’ की नाकामियों को आपके सामने उजागर करें, क्योंकि उनकी करतूतों का दस्तावेज़ लेकर ही आप स्वर्ग लोक गए हैं। बहरहाल आपको लिखे जा रहे इस पत्र के माध्यम से कुछ ऐसे गंभीर मसलों का ज़िक्र भी कर लिया जाए, जिन्हें बिसराकर अगर हम आपको श्रध्दांजलि देंगे तो वो बेईमानी होगी। सिस्टम के तो सात क्या सात लाख खून माफ़ हैं लेकिन ये विशेषाधिकार सिर्फ वहीं तक है।

स्वर्गलोक जाने से पूर्व आपने भी अनुभव किया होगा कि पिछले दस- बारह हफ्तों ने दुनिया को देखने और समझने की हमारी नींव को बिल्कुल झकझोर कर रख दिया। एक मुल्क और इसकी व्यवस्थाओं के बारे में जो भी हमें गुमान था वो सब ज़मींदोज़ हो गयी, क्या बड़े शहर, क्या छोटे शहर और क्या दूर-दराज़ के गाँव हर जगह की तस्वीरें उतनी ही तकलीफदेह और उतनी ही भयावह। अचानक से लगभग पूरे भारत वर्ष को ये महसूस हुआ कि तंगहाली और बदइंतजामी भी हमारी सामूहिक वेदना में एकता का प्रतीक हो चला है। क्या उत्तर प्रदेश, क्या बिहार, क्या मध्य प्रदेश और क्या ही दिल्ली, हर जगह से अस्पताल में एक बेड, एक ऑक्सीजन सिलिंडर या जीवन रक्षक दवाइयों की चीख- पुकार और उसके बीच में सरकारें कमोबेश लाचार ही दिखीं, या यूं कहूं की दिखी ही नहीं।

लेकिन ये निर्दोष लाचारी या अनुपस्थिति कतई नहीं थी, बल्कि इसके पीछे गलत प्राथमिकताओं और खोखले दंभ की एक लम्बी श्रृंखला है, जिसके गुनाहगारों में कई गणमान्य चेहरे हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि इन लाखों जिंदगियों के खात्मे को अगर सिर्फ कोरोना संक्रमण के माथे मढ़ा जाएगा तो यह बेईमानी होगी। लेकिन ये बेईमानी बदस्तूर ज़ारी है केंद्र और राज्य की सरकारें शरीक-ए-गुनाह हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और उपचार में देरी या उपचार ना हो पाना और इसमें अपनी लचर भूमिका की स्वीकारोक्ति अगर सरकारें नहीं करती हैं, तो ये और भी बड़ी बेईमानी होगी। लेकिन बेईमानी की ऑडिट की व्यवस्था अब हमारे लोकतंत्र से विलुप्त सी हो गयी है। ये सर्वविदित है कि कोरोना की इस दूसरी हिंसक और कातिलाना लहर ने गांव और ग्रामीण इलाकों में कहर बरपा दिया और किसी भी सरकार ने मौतों के सही आकलन की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित नहीं की।

बल्कि सारा प्रशासनिक महकमा आंकड़ों के ‘कुशल’ प्रबंधन के माध्यम से अपने आकाओं की छवि की बनावट और बुनावट में लगा रहा। उत्तर भारत के कई ग्रामीण परिवारों में कोई भी नहीं बचा और जो बचे हैं उनमें से एक बड़ी आबादी के समक्ष भुखमरी का संकट है, जिसे उसकी व्यापकता और समग्रता में समझने को कोई भी सरकार तैयार नहीं है। खोखले और सांकेतिक राशन वितरण विज्ञापन में ज़रूर चमक रखते हैं, लेकिन भरे गोदाम से ख़ाली पेट तक की यात्रा आधी-अधूरी है या फिर है ही नहीं।

एक परिपक्व लोकतंत्र गंभीर से गंभीर चुनौतियों का सामना कर सकता है, क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय प्रतिभागियों के रूप में लोगों को लगता है कि इसमें उनकी भी हिस्सेदारी है। लेकिन लोगों की वास्तविक हिस्सेदारी की चर्चा करने को कोई भी तैयार नहीं, क्योंकि लोगों की वास्तविक भागीदारी तभी संभव है, जब लोकतंत्र को एक ऐसी इकाई के रूप में देखा जाए जो मतगणना के ठीक बाद समाप्त नहीं हो जाती है। बहुत लंबे समय से ‘हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं’ को बढ़ा-चढ़ाकर बताने में हमें अतिशय गर्व का अनुभव होता है, लेकिन क्या अब ये आतिशयोक्ति नहीं लग रही है। इस महामारी के दौरान हुए लोकतंत्र की फज़ीहत ने हमें स्पष्ट शब्दों में बता दिया है कि हमारा लोकतंत्र लगभग असफल सा हो गया है। फलस्वरूप हमारी सामूहिक चेतना की नींव और सामाजिक पूंजी का अवसान सा हो गया है और इसी में इस महामारी के समक्ष हमारी लचर व्यवस्थाओं के बीज छुपे हैं।

इस बात को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि जब महामारी अपने ‘पीक फेज’ में भारत के विभिन्न हिस्सों को तबाह कर रही थी, तब दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी सिर्फ अपने राजनीतिक कौशल और चुनाव जीतने की क्षमता को साबित करने के लिए प्रतिबद्ध थी। नागरिक समाज के विभिन्न वर्गों और विपक्ष के संदेशों को न केवल नजरअंदाज किया गया, बल्कि उनका उपहास भी किया गया। और तो और जानमाल पर आसन्न संकट के मध्य भी किसी काल्पनिक ‘टूल-किट’ पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित रहा।

हम बीते कुछ वर्षों में इस बात को बिसरा बैठे हैं कि संसदीय ढांचे के भीतर या बाहर विरोध या असहमति की आवाज लोकतंत्र को जिंदा और ऊर्जावान रखती है। ये कौन से नए लोकतंत्र की रचना हो रही है, जहां सरकार के आत्ममुग्धता से सराबोर एकालाप को वार्तालाप की संज्ञा दी जा रही है। कम्युनिकेशन का मूल आधार है कि ‘ट्रांसमीटर’ और ‘रिसीवर’ के बीच निरंतर फीडबैक के माध्यम से संवाद को मज़बूत किया जाए अन्यथा कम्युनिकेशन अर्थहीन और इकतरफा मन की बात बन कर रह जाता है। लेकिन जब लोकतंत्र में सुनाने की क्षमता पर अत्यधिक भरोसा हो जाए और सुनना भुला दिया जाये, तब लोकतान्त्रिक संवाद की अनूठी कहानियां सिर्फ अभिलेखागार की वस्तु बनकर रह जाती हैं।

अतः हे मृतक साथी गण! इस पत्र का आशय ये कतई नहीं था कि आपके स्वर्गलोक पहुंचने के पश्चात भी ज़मीनी हकीकत का इस प्रकार का चित्रण कर आपके या आपके परिजनों को और कष्ट पहुंचाया जाए। बस ये बतलाना भर था कि आपके मृत्यु प्रमाण पत्र पर मौत के कारण वाले कॉलम में कोरोना लिखा गया हो या ना लिखा गया हो, आपकी मृत्यु कोरोना से नहीं हुई है। आप लोगों की मृत्यु साधारण मौत भी नहीं कही जायेगी, बल्कि आने वाले दौर का इतिहास शायद इसे साफ़-साफ़ हत्या की श्रेणी में  रखेगा..सांस्थानिक या यूं कहें कि संस्थागत हत्या क्योंकि जिन संस्थाओं या संस्थानों से अपेक्षाएं थीं, उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और नज़रें फेर लीं। हां इस पत्र को एक शोकसंतप्त और शर्मिंदा गणतंत्र की ओर से एक नागरिक का माफ़ीनामा समझ लें।

(प्रो. मनोज कुमार झा राज्यसभा के सांसद और राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles