Wednesday, April 17, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: प्रतापगढ़ में सवर्णों का बर्बर हमला; तोड़फोड़, आगजनी समेत महिलाओं से बदसलूकी, 8 दिन बाद भी एफआईआर दर्ज नहीं

आपको सीधे एक घटना से जोड़ता हूँ। 22 मई 2020 को जिला प्रतापगढ़ के थाना कोतवाली पट्टी के ग्राम गोविंदपुर, धूईं, परसद में जातीय हिंसा हुई। कुर्मी जाति के लोगों (पटेल) के कुछ घर जला दिए गए। कुर्मियों के खेत में ऊँची जाति के सामंत किस्म के लोग जानवर छोड़ दे रहे थे। इसका दबा विरोध काफी दिनों से चल रहा था। 22 मई को एक-दो जानवरों को खेत के मालिक ने दौड़ा लिया। बस दबंग भड़क गए। पड़ोसी मजरों तक पटेलों को दौड़ाकर मारा। हमला बोल दिया। घर में घुसे। मारपीट, लूटपाट, छेड़छाड़ की। मवेशी जिंदा फूंक दिए। सबसे भीतर के कमरे में सोई महिला की छाती पर झपट्टा मारा। 3 माह का बच्चा माँ की छाती में चिपका था…दूध पीता हुआ अधसोया सा था। दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह माँ के आँचल में।

उस दुधमुंहे को दबंगों ने उठाकर फेंक दिया। वो कुएं की देहरी पर गिरा। महिला का ब्लाउज फाड़ दिया। वो बच्चे की तरफ भागी…उनमें से एक ने उसकी छाती ऐसी नोची की खून टपक पड़ा और जो जहां मिला उसे लाठी डंडों से पीटा गया। सिर फ़टे, इज्जत लुटी। एक युवक ने बचते बचाते वीडियो वायरल किया, पुलिस को फोन किया। पुलिस आई मगर यह तांडव न रुका। दरोगा-सिपाही की मौजूदगी में बर्बरता हुई। इसके बाद गांव में पटेल बिरादरी के नेताओं का जमघट लगा है। कुछ आंसू पोंछने गए, कुछ शोहरत बटोरने। अब वहां पुलिस का पहरा है।

जब मैं वहां गया, मतलब एक पत्रकार

29 मई 2020 की सुबह माननीय सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश अखबार में पढ़ा। इसमें मजदूरों की बदहाली के मामले को स्वत: संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कामगारों से ट्रेनों/बसों में किराया न लेने और उन्हें भोजन देने का आदेश सरकार को दिया है। कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल ने एक पत्रकार ‘केविन कार्टर’ का हवाला देते हुए कहा कि उस पत्रकार ने सूडान में अकाल के दौरान बच्चे पर मंडराते एक गिद्ध का फोटो खींचा था जो उस बच्चे के मरने का इंतजार कर रहा था। इस फोटो ने दुनिया भर में पत्रकारिता के प्रोफेशनल एथिक्स और मानवीय कर्तव्यों पर बहस छेड़ दी थी।

चार माह बाद उस पत्रकार ने ग्लानि में डूबकर यह कहते हुए आत्महत्या कर ली कि बच्चे पर एक नहीं दो गिद्ध मंडरा रहे थे। दूसरे गिद्ध के हाथ में कैमरा था। सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस के दौरान यह उद्धरण दिए जाने के बाद मैं सक्रिय पत्रकार और संवेदनशील इंसान होने के कारण फिर से भीतर तक दहल गया। मुझे लगा कि 30 मई को पत्रकारिता दिवस पर कुछ भी कहने से ज्यादा जरूरी है पत्रकारिता के मानवीय मूल्यों को बचाये रखना। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने की गरज से वहां गया।

कुछ नेता दूर से बरगला रहे थे, मुख्य धारा की मीडिया गई नहीं, इसलिए हमारा जाना जरूरी था…

29 मई 2020 की सुबह आदतन किसान नेता चौधरी चरण सिंह को श्रद्धांजलि दी। दोपहर में युवा इंजीनियर सुनील पटेल के साथ हम निकले। यह सज्जन कुर्मी क्षत्रिय महासभा के पदाधिकारी हैं। पड़ोसी हैं इसलिए हक के साथ उनकी कार में लिफ्ट मांगी। उनके दूसरे साथी डॉ. हरिश्चंद्र पटेल भी वहां भोजन सामग्री, दवाएं और आर्थिक मदद के लिए ड्राफ्ट लेकर आ गए थे। जब मैं गोविन्दपुर गांव पहुंचा, इरादा था कि सामन्तों और पुलिस की बर्बरता का शिकार हुए पीड़ितों के हालात की रिपोर्टिंग करूंगा और उनको कुछ मदद भी करूंगा। मेरे एक हाथ में कैमरा था और साथ में भोजन सामग्री, आर्थिक सहयोग का एक बैंक ड्राफ्ट भी।

दरोगा की दबंगई, पेशबंदी देखिए

इस गांव की सीमा पर तैनात पुलिस इंस्पेक्टर सुशील कुमार सिंह और उनके साथ मौजूद सब इंस्पेक्टर बच्चन राम और अन्य सिपाहियों ने गांव के अंदर घटना स्थल तक जाने से रोक दिया। इंस्पेक्टर ने कहा कि कोई गाँव के अंदर नहीं जा सकता। मैंने बताया कि पत्रकार हूँ। उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से अधिमान्य भी हूँ। अगर जिला मजिस्ट्रेट का ऐसा कोई आदेश हो कि पत्रकार घटना स्थल पर नहीं जाएगा तो दिखाया जाए। इंस्पेक्टर एक घण्टे तक धमकाते रहे, जलील करने की कोशिश की, मुकदमे की धमकी देते हुए वीडियोग्राफी कराते रहे और कहा कि जो मैं कह रहा हूँ, होगा वही। उन्होंने ताना दिया कि पत्रकार हैं तो कानून तोड़ेंगे। मैंने कहा कि मुझे घटना स्थल तक जाने दें, तन्हा एक आदमी हूँ, अकेला जाऊंगा। परन्तु इंस्पेक्टर लगातार कहते रहे कि 10 गाड़ी में 100 आदमियों के साथ आये हो।

जबकि डॉ. हरिश्चन्द्र पटेल लगातार इसका वीडियो बनाते रहे, सही तथ्य भी रखते रहे। तब तक गांव की पीड़ित महिलाएं भी पुलिस बैरिकेडिंग तक आ गईं। डॉ. पटेल ने मेरे हाथों में चेक और ड्राफ्ट पकड़ाया। मैंने उन्हें आर्थिक मदद का ड्राफ्ट और कुछ भोजन सामग्री वहीं पर दी। डॉ. पटेल ने भी यही किया। मैंने फिर निवेदन किया कि मुझे घटना स्थल तक जाने दें। इंस्पेक्टर ने मेरे कान के पास आकर कहा कि क्यों जेल जाना चाहते हो, ऊपर से आदेश है। अंदर गए तो मुकदमे के लिए तैयार रहना।

मैंने कहा कि पहचान पत्र की फोटो ले लीजिए। लाठी मत तानिये और विधि सम्मत जो भी करना हो वह कीजिये। मैं घटना स्थल तक जाऊंगा ज़रूर। मीडिया पर बन्दिश का कोई आदेश दिखा देंगे तो यहीं से लौट जाऊंगा। इस पर इंस्पेक्टर बोले, जाओ करो नेतागीरी….जाओ 100 लोग लेकर जाओ….धमकी देकर इंस्पेक्टर ने बैरिकेडिंग खोल दी तो मैं पैदल ही घटना स्थल के लिए चल दिया। अभी तक मुझे नहीं मालूम कि पुलिस ने कोई रिपोर्ट दर्ज की या सिर्फ डरा धमकाकर इंस्पेक्टर मुझे वहीं से वापस कर देना चाहते थे।

पुलिस की मिलीभगत, पत्रकार गए नहीं
यह वाकया बताने के पीछे मेरा सिर्फ यही मकसद है कि प्रतापगढ़ में पुलिस के संरक्षण में गोविंदपुर गांव में सामन्तों ने पटेल बिरादरी के किसानों-मजदूरों के घर जलाये हैं। इस आगजनी/ बर्बरता की रिपोर्ट स्थानीय पुलिस ने 8 दिनों तक नहीं दर्ज की। जबकि हमलावर पक्ष की रिपोर्ट भी लिखी और पीड़ितों में से कई को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। तथ्यों की पड़ताल में यह सामने आया कि कुछ महिलाएं और लड़कियां कई दिनों हवालात में रखी गईं। बाद में पीड़ित परिवारों की जाति के कुछ सांसद-विधायक और दूसरे लोग गांव गए तो पुलिस ने हवालात में अवैध रूप से बंद की गईं लड़कियों को छोड़ दिया।

इसके बाद भी गोविंदपुर के पीड़ित पक्ष की रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई। गोविंदपुर गांव की सीमाओं पर पुलिस का पहरा लगा दिया गया। जो भी लोग पीड़ितों से सहानुभूति जताने गए, उनके खिलाफ अलग-अलग धाराओं में मुकदमे दर्ज कर दिए गए। मुख्य धारा के मीडिया से जुड़े पत्रकार एक हफ्ते में इन पीड़़तों के पास नहीं गए। ऐसे में पत्रकारिता दिवस की बधाइयां मैं सभी को कैसे दूं। मगर इस उम्मीद से दे रहा हूँ कि अगर पत्रकारिता मर गई तो लोकतंत्र बचेगा नहीं।

मंत्री पर भी संदेह, डीएम-एसपी झांकने नहीं गए
पीड़ितों ने इस जातीय बर्बरता के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री पर मिलीभगत के आरोप लगाए हैं। जिले के एसपी और डीएम का पीड़ितों के पक्ष में कोई वैधानिक कदम न उठाया जाना इस आरोप को और बल दे रहा है। मंत्री के खिलाफ लगातार सोशल मीडिया पर आरोप लग रहे हैं। पुलिस ने जातीय टिप्पणियों पर कुछ लोगों के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज की हैं। पीड़ित पटेल जाति के लोग और हमलावर जाति के लोगों की टिप्पणियों, बयानों से समाज में जातीय वैमनस्यता फैल रही है।

यह दूसरे गांवों से होते हुए अन्य जिलों तक भी पहुँच रही है। इस दौरान कोरोना बीमारी के कारण शहरों से तमाम मजदूर- कामगार गांवों में लौट रहे हैं। इन्हें मनरेगा से काम दिए जाने का क्रम भी चल रहा है। इस दौरान भी जातीय गुस्सा उबाल मारने के खतरे बढ़ गए हैं। गोविन्दपुर में जातीय हिंसा की घटना का शुरुआती कारण खेत में जानवरों का घुसना और फसल खराब करना ही बताया गया है। दबंग लोग पटेलों के खेतों में जानवर छोड़ रहे थे। सोशल मीडिया पर एक हफ्ते से जातीय टीका- टिप्पणी हो रही है। इससे समाज की सद्भावना खत्म हो रही है।

जांच के नाम पर सिर्फ खेल, एफआईआर के नाम पर बरगला रहे

जातीय हिंसा की इस भयानक घटना के 8 दिनों बाद भी 30 मई तक गोविंदपुर के पीड़ितों की रिपोर्ट नहीं लिखी गई। मेरे बनाये वीडियो में महिलाएं यह सच बताती हुई दिखेंगी। सोशल मीडिया में कुछ लोग क्रेडिट के लिए भले नए नए वीडियो जारी करते हुए दिखें।
हकीकत ये है कि
घटनास्थल तक न जिले के पुलिस कप्तान गए न ही जिलाधिकारी। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा इस घटना का स्वत: संज्ञान लेकर 25 मई 2020 को डीएम से रिपोर्ट तलब की गई तो उन्होंने दूसरे दिन मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश कर दिए। एक विधायक के पत्र पर एडीजी ने पुलिस क्षेत्राधिकारी के नेतृत्व में जांच के आदेश कर दिए। मगर इन जांच आदेशों के 4- 5 दिन बीत जाने के बाद भी कोई जांच अधिकारी घटना स्थल पर नहीं पहुँचा।।

कुएं की सजावट देखकर गांव के लोगों की फितरत दिखेगी

गाँव में भारी दहशत है। बर्बरता की तस्वीरें, लोगों में खौफ देखा जा सकता है। बताऊं कि जिस कुएं की तरफ तीन माह के बच्चे को दबंगों ने फेंका था। उस कुएं में वहीं की लड़कियों/ महिलाओं के रंग भरे हैं। लाल, गुलाबी, पीले….तमन्नाओं के रंग से कुएं को सजा रखा है। उसी से पटेलों की बस्ती पानी पीती है। दबंगों ने घरों का सामान, साइकिल और आटा, बर्तन सब इसी कुएं में फेंके हैं। मेरी तस्वीर में यह सच आपको दिखेगा।

हैंडपम्प तोड़े, खेत सूखे

दबंगों ने इस बस्ती के हैंड पम्प तोड़ दिए। उखाड़ नहीं सके तो पाइप काट दिए। सहन में लगे कटहल के पेड़ पर सामन्तों की क्रूरता दिखी। एक युवती के वक्ष स्थल पर दराती लेकर दबंग ने हमला बोलना चाहा तो बुढ़िया मां बीच में आ गई। उसे जमकर पीटा। डराया। कटहल के फलों को वक्ष की तरह काटने हुए इस दबंग ने कहा…ज्यादा बोलेगी तो पूरे मोहल्ले की लड़कियों का यहीं ”खतना” कर दूँगा। खता सिर्फ इन औरतों की इतनी है कि ये गरीब, पिछड़ी जाति की हैं और खेतों में जानवर जाने से मना कर रही थीं।

हमारे तरह घर बनाओगी मादर..…..

17 साल की लड़की को सिपाही के हाथ में रखा बांस का बेंत दिखाते हुए एक एक दबंग ने धमकाया था कि यही लट्ठ ऐसी जगह डाल दूंगा कि बच्चा पैदा करने लायक नहीं बचोगी मादर… यह हल्ला मचाते हुए दबंगों ने सामने के घर में लगे नए बिजली के बॉक्स, टाइल्स, टीवी, पंखे इसलिए तोड़ और नोच दिए कि मड़ई की जगह पक्के घर में सुहाग रात मनाओगे….गांव की औरतों ने मुझे जो बताया वह सब मैं लिखकर मर्यादा से बाहर नहीं आना चाहता।

आंख बेशर्म होती तो उसके छाती के घाव दिखाता आपको…

एक महिला रोती हुई पांव पर गिर पड़ी। साहब बलात्कार से ज्यादा हुआ है हमारे साथ……बस ”वही” रहा गया था करने को। तभी बगल में खड़ी बूढ़ी औरत ने उसका आँचल हटाने को कहा…..बोली दिखा इनको पाव भर हल्दी लेपनी पड़ी है उसकी छाती पर… नाखून से नोचने के घाव हैं… आंख लजा गई, भर आईं। बेशर्म होता तो आपको उसके भी फोटो शेयर कर देता। पर मैंने नहीं खींचे। मुझे अपनी मां नजर आई उस औरत में….

नेताओं के झूठ पर वही भरोसा है उनको

पत्रकार जानकर औरतें, लड़कियां आईं। बोली घर के 5 लोग जेल में हैं। मिलाई करवा देव साहब। मैंने यूपी के जेल मंत्री से बात करने का वचन दिया उनको ( पत्रकारिता के प्रोफेसर मुझे ज्ञान न दें कि मुझे सिर्फ रिपोर्ट करनी चाहिए थी या मदद भी?) मैं कानपुर उस मरहूम पत्रकार प्रमोद तिवारी का साथी हूँ जो डाइरेक्ट जर्नलिज्म की बात करता रहा…..मैं उसी दिशा का एक पथिक हूँ। ऐसे में direct journalism के लिए मैं इन पीड़ितों के हक में रिपोर्ट भी लिखूंगा, उनकी तहरीर भी। उनके मुआवजे की मांग करती हुई चिट्ठी भी। जरूरत हुई तो गणेश शंकर विद्यार्थी को याद करते हुए धरना भी दे सकता हूँ। दिया भी और आगे भी पत्रकारीय सरोकार निभाने को संकल्पित हूँ। आप तमाम पत्रकारों से भी यही आग्रह करूंगा कि तटस्थ न रहिये। सच के लिए लड़िये…उसका उद्घाटन कीजिये। झूठे नेताओं के नकाब नोचिये। जालिम दरोगाओं के बिल्ले नोचिये; पर हाथ से नहीं: कलम से।

देखिए जाकर वहाँ, खेत सूख गए हैं, आंखें गीली हैं…

पीड़ित किसानों के सब्जी के खेत इसलिए सूख रहे हैं कि गांव के मर्द पुलिस के खौफ से भागे हैं और पम्पिंग सेट चलाने के लिए डीजल लाने वाला कोई नहीं। एक युवती साइकिल से डीजल लाई तो उसे एक सिपाही ने ही फेंक दिया। रोते हुए लोगों की आंख का खारा पानी देखने के लिए वहां कोई तो जाए।
इस जातीय हिंसा के समाचार भी देश की कथित मुख्य धारा की मीडिया ने सिर्फ पुलिस की एफआईआर के आधार पर ही लिखे। वह भी जिले स्तर पर ही कवर किए गए। यह भी पीड़ितों के साथ अन्याय की तरह है।

जीरो FIR के आदेश हैं, 8 दिन में रिपोर्ट नहीं

सुप्रीम कोर्ट कई बार आदेश दे चुका है कि पीड़ितों की प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) हर हाल में दर्ज की जाए। जीरो एफआईआर का भी प्रावधान है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ खुद भी कह चुके हैं कि एफआईआर दर्ज हो। डीजीपी ने थाने में रिपोर्ट दर्ज न होने की बढ़ती शिकायतों के आधार पर पुलिस कप्तानों के दफ्तर में ही एक विशेष सेल बनाकर रिपोर्ट दर्ज किए जाने की व्यवस्था की है। इसके बाद भी गोविन्दपुर गाँव के पीड़ितों की रिपोर्ट न लिखना पुलिस की भूमिका को संदेह में लाती है। हमलावर पक्ष की तरफ से इसी पुलिस ने 11 नामजद और 50 अन्य लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करके कई लोगों को जेल भेज दिया है। इस पूरे मामले में पुलिस का ख़ुफ़िया विंग भी खामोश है। थाने मे बनी शांति समिति की बैठक तक नहीं बुलाई गई है।

किसी मंत्री ने नहीं पूछे हाल, न आरोपित मन्त्री ने दी सफाई

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने प्रदेश के हर जिले में एक मंत्री को प्रभारी बनाया है। मुख्य सचिव ने भी एक एक जिले की जिम्मेदारी शासन में बैठे अफसरों को दे रखी है। इसके बाद भी बर्बर जातीय हिंसा के घटना स्थल तक न डीएम गए न एसपी। मीडिया पर कोतवाल सुशील कुमार सिंह ने पाबन्दी लगा रखी है।

कौन लगा रहा मुख्यमंत्री की साख पर बट्टा

प्रतापगढ़ में हुई जातीय हिंसा ने कुर्मी समाज के अंदर मौजूदा सत्ता के शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी बढ़ाने का काम किया है। मुख्यमंत्री ने अपने सूचना सलाहकार भी रखे हैं। इनमें से एक मृत्युंजय कुमार भी हैं। यह मुख्यधारा और हाशिये के अखबार/ पोर्टल से जुड़े रहे हैं। पत्रकारिता में रचे बसे हैं। मगर 8 दिन के अंदर एक जिले में हुई जातीय हिंसा की रिपोर्ट। मुख्यमंत्री तक न पहुँच पाना सरकार के तंत्र पर भी सवाल उठाती है और पहुंचाने वालों की नीयत पर भी। अखबार व्यंग्य कॉलम लिखते हैं।

गॉशिप कॉलम लिखते हैं। इनके जरिये भी सत्ता के गलियारों के चर्चे सामने आते हैं। मुझे कई पढ़े लिखे नौजवान पट्टी में एक चाय की दुकान पर मिले। दो जोड़ा आलू की टिकिया भी उनके संग खाई। इनका कामन सेंस गजब का था। बोले, प्रतापगढ़ की जातीय घटना पर अखबार के मसखरे भी खामोश हैं, यानी कहीं कुछ बड़ा हो रहा है जो मुख्यमंत्री तक नहीं पहुँचने दिया जा रहा है। गृह सचिव अवनीश अवस्थी की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा भी कि अरे पत्रकार गवर्न करने वाली बॉडी के नेता भी वही और पुलिस की नकेल भी।

जनता का मांग पत्र भी खबर बन सकता है


पीड़ित पक्ष के कुछ समझदार युवाओं ने चलते चलाते वाट्सएप पर एक मांग पत्र भी भेजा। इसे मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
इनका कहना है कि प्रतापगढ़ के डीएम और एसएसपी और इंस्पेक्टर सुशील कुमार सिंह पर सख़्त करवाई की जाए।
गोविंदपुर गाँव में हुई इस बर्बरता की पूरी जांच सीबीआई से हो।
मंत्री और अधिकारियों की भूमिका वास्तविक रूप में सामने आये। पीड़ितों के परिजनों के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द कराने के साथ ही मुआवजा दिया जाए।

दूसरी जाति के प्रतिनिधि मंडल भी जाएंगे

इस गाँव से लौटते वक्त मैं एक चौपाल नुमा बैठक के सामने रुका। रानीगंज के पास। घटना का जिक्र किया। पहले सब संकोच में थे, बताया पत्रकार हूँ। तो बोले कि एक जाति पर हमला हुआ है तो दूसरी जातियों के प्रतिनिधि मंडल जाकर भी तो जायजा लें। हमला तो हमला है, आज पटेलों पर हुआ, कल तेलियों पर होगा या परसों काछियों पर…कानून की नजर में तो सब बराबर हैं।

(ब्रजेंद्र प्रताप सिंह पेशे से पत्रकार हैं और हिंदुस्तान टाइम्स से जुड़े रहे हैं।)

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