Saturday, April 20, 2024

कोराना से निपटने की सरकारी नाकामी हो या वैकल्पिक राजनीति की दरिद्रता, दोनों का असल कारण है-हिन्दुत्व !

दुनिया में  हम सचमुच अनोखे देश हैं! इसलिए कई बार विश्वास नहीं होता कि आजादी के सात दशक बाद भी हम सही मायने में एक राष्ट्र बन पाये हैं! आजादी से पहले और उसके बाद देश के कई बड़े विचारकों, लेखकों, स्वाधीनता सेनानियों और संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्यों ने अपने-अपने ढंग और दृष्टिकोण से भारत के एक लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य बनने की चुनौतियों की चर्चा की थी। अलग-अलग दौर में की गई अपनी टिप्पणियों में उन विचारकों ने यह भी बताने की कोशिश की कि उन चुनौतियों को एक राष्ट्र के रूप में हमें कैसे संबोधित करना चाहिए? ऐसे विचारकों में महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, भगत सिंह, प्रेमचंद, रवींद्र नाथ टैगोर, पेरियार और डॉ बी आर अम्बेडकर जैसे कई प्रमुख नाम हैं। 

महात्मा गांधी ने आजादी से पहले एक नवोदित राष्ट्र के रूप में भारत की लोकतांत्रिक चुनौतियों पर यंगइंडिया में कई विचारोत्तेजक टिप्पणियां लिखी थीं। उनकी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी आज के संदर्भ में भी बेहद प्रासंगिक हैः ‘ अगर राष्ट्र की सत्ता और शक्ति में सबकी हिस्सेदारी नहीं है तो लोकतंत्र असंभव है। एक श्रमिक की भागीदारी भी अऩिवार्य है, जो आपके जीवन को आसान और संभव बनाता है। उसे भी हिस्सेदारी चाहिए-स्वराज या लोकतंत्र में!’ शहीदे-आजम भगत सिंह ने तो और साफ शब्दों में कहा था कि कांग्रेस जिस रास्ते चल रही है, उससे तो यही लगता है कि आजादी के बाद भारत की सत्ता पर गोरे अंग्रेजों की जगह भूरे अंग्रेज काबिज हो जायेंगे। भगत सिंह ‘आजाद भारत’ को देखने के लिए जीवित नहीं रहे। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए भारत को समाजवादी समाज बनाने के सपने के साथ शहादत दी। लेकिन तब उन्होंने जो कहा था, वह सच निकला। उस सच को देखकर ही आजादी के सूर्योदय में मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने अपनी मशहूर कविता-‘कौन आजाद हुआ’ लिखी थी। आज भारत के हालात कितने खतरनाक और खौफनाक हैं, यह पूरी दुनिया देख रही है। क्या हमारी हुकूमत अपने समाज और जनता के साथ एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश की सत्ता की तरह व्यवहार कर रही है? अस्पताल से श्मशान तक जो माहौल है-क्या वह किसी स्वतंत्र, सभ्य लोकतांत्रिक देश की छवि पेश करता है?

आखिर एक राष्ट्र के रूप में ऐसा क्यों नजर आ रहे हैं? हमारे निर्वाचित शासक इस कदर निरंकुश, बेफिक्र और अपने में मगन क्यों नजर आ रहे हैं? असंख्य जलती चिताओं से उठते धुंए और धुंध के बीच वे बंसी बजायें या न बजायें, अपने लिए 20 हजार करोड़ के खर्च से नया पीएम निवास, राष्ट्रपति भवन, नया संसद भवन आदि तो बना ही रहे हैं। निर्वाचित शासकों का यह आचरण क्या बंसी बजाने से ज्यादा खुदगर्ज, अशोभनीय और अमानवीय नहीं है? अपने निर्वाचित शासकों के पास विश्व का सबसे बड़ा राजनैतिक दल और सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। दोनों बेहद अमीर माने जाते हैं। फिर भी इस भीषण महामारी में वे न अच्छा शासन दे पा रहे हैं और न लोगों को जरूरी राहत! अगर वे दे रहे होते तो लोग सड़क, गली, अस्पताल, गाड़ी या रिक्शे पर आॉक्सीजन की कमी से नहीं मर रहे होते! आजादी से पहले या उसके बाद के आरम्भिक दशकों में शायद ही किसी विचारक ने ऐसे शासन और ऐसे शासकों की कल्पना की थी। लेकिन एक विचारक ने ऐसे तत्वों के शासन में आने की आशंका के मद्देनजर कुछ गंभीर सवाल जरूर उठाये थे। वह विचारक थे-डॉ बी आर अम्बेडकर!

डॉ अम्बेडकर ने कहा थाः ‘अगर वास्तव में हिन्दूराज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें पर हिन्दुत्वस्वतंत्रता, समानताऔरभाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए यह सर्वथा अनुपयुक्त है। हिन्दूराज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ (बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड-15, पृष्ठ-365, प्रकाशक-डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार, नयी दिल्ली)। अम्बेडकर का मानना था कि हिन्दुत्व या हिंदू धर्म की व्यवस्था अपने विचार और मिजाज के स्तर पर लोकतंत्र के उल़ट है। यही नहीं, वह समाज-विरोधी है और सभ्य़ातगत मूल्यों के विस्तार के लिए भी बाधक है। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था आधारित इस धर्म के पास पब्लिक-स्पीरिट नहीं है। उसके पास जन-भावना नहीं, सिर्फ वर्ण-भावना है।

इसलिए वह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के महान् मूल्यों के खिलाफ है। (एनिहिलेशन आॉफ कास्ट, पृष्ठ-20-21, और पृष्ठ-26-27 प्रकाशक-क्रिटिकल क्वेस्ट, नय़ी दिल्ली)। आज के संदर्भ में डा अम्बेडकर की एक टिप्पणी और भी गौरतलब है। चूंकि उन्होंने हिन्दू धर्मग्रंथों को बहुत जतन से पढ़ा था, इसलिए उसकी एक-एक बारीकियों से परिचित थे। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म की बड़ी समस्या है कि उसमें सामाजिकता और समाज की सेवा के भाव का सर्वथा अभाव है।हिन्दू धर्म में समाज नहीं है, वह सिर्फ जातियों का झुंड है। इसलिए हिन्दू कभी भी समाज या राष्ट्र का गठन नहीं कर सकते क्योंकि इनकी वर्ण-व्यवस्था विचार के स्तर पर राष्ट्र और समाज के प्रतिकूल है। अम्बेडकर जैसे बड़े विद्वान ने बार-बार कहा कि भारत के एक राष्ट्र और सभ्य लोकतांत्रिक  समाज बनने की राह में सबसे बड़ी बाधा है-हिन्दू-वर्ण व्यवस्था यानी जाति व्यवस्था! 

हम इस कटु सत्य को स्वीकार करें या न करें पर सच ये है कि आज इस भयावह महामारी से निपटने में हम जिन कुछ प्रमुख कारणों से अपने को असमर्थ पा रहे हैं, उनमें एक प्रमुख कारण है-हमारा एक राष्ट्र और एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज की तरह व्यवहार न करना! देश की सरकार चलाने वाले हिंदुत्वके सबसे ‘प्रामाणिक प्रतिनिधि’ हैं जिनका राजनैतिक लक्ष्य है भारत को औपचारिक तौर पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना! इस भयावह महामारी से निपटने का उनका रिकॉर्ड आज पूरी दुनिया के सामने है। हाल के चुनाव(पंचायती चुनाव सहित) हों या कुंभ मेला हो, उन्हें मनुष्यता पर मंडराते खतरे की तनिक भी चिंता दिखी? ऐसे व्यवहार, सोच और संस्कृति के मूल में है-हिन्दू वर्णव्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक सोच और राजनीतिक मानसिकता! उन्हें लगता है देश या समाज का कितना भी बुरा हो जाय, मंदिर और हिंदुत्व के नाम पर वे अगला संसदीय चुनाव भी जीत जायेंगे! 

सोचिये, देश में इनसे सम्बद्ध बड़े-बड़े धर्मस्थल और धर्म-आधारित संगठन हैं। पर महामारी से पीड़ित समाज के लिए इनकी तरफ से क्या कुछ किया जा रहा है? वहीं केरल व तमिलनाडु की सरकार का काम देखिये। एक वामपंथी है और दूसरी पेरियार-वादी। इनके अलावा देश भर में गुरूद्वारों और सिखों द्वारा संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं का योगदान देखिये। वे अपनी हैसियत के हिसाब से बेहतरीन काम कर रहे हैं। कुछ अन्य अल्पसंख्यक समूहों से सम्बद्ध संस्थाओं ने भी राहत और बचाव के अच्छे काम किये हैं। देश और समाज का दुर्भाग्य है कि मानवीय सोच रखने और कल्याणकारी पहल करने वाले इन राज्यों, समूहों और संगठनों के बीच से केंद्रीय सत्ताधारियों का ऐसा ठोस विकल्प नहीं उभर पा रहा है, जिसे राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता मिले। ले-देकर विकल्प की जो झिलमिलाती सी तस्वीर दिखती है, वह लिबरल या नरमहिन्दुत्व के पैरोकारों की है। दुर्भाग्य है कि उसी हिन्दू-वर्णव्यवस्था की ‘संस्कृति’ के वाहक और रखवाले दोनों तरफ हैं: पक्ष में भी और विपक्ष के बड़े हिस्सों में भी! इसलिए दोनों हिस्सों में विवेक की जगह ‘भक्ति’ दिखती है! 

हिंदी भाषी-क्षेत्र के जो कथित सामाजिकन्यायवादी हैं, वे लगभग विचारहीन और व्यक्तिवादी हैं। तीन दशक पहले, किसी सामाजिक सुधार आंदोलन की पृष्ठभूमि के बगैर इन सामाजिकन्यायवादियों की रंग-बिरंगी राजनैतिक-पौध उगी थी। अब इनके वो रंग भी सूख रहे हैं! वे अपनी-अपनी बेवकूफियों और लिप्साओं के मारे हुए हैं। केरल जैसी संगठित वामपंथी राजनीति या तमिलनाडु जैसी सामाजिक न्यायवादी वैचारिकी का असर हिंदी-क्षेत्र में कभी नहीं रहा। कुछ अच्छी कोशिशों के बावजूद अभी किसी संगठन को बड़ी कामयाबी नहीं मिली है। 

सत्ता पर हिन्दुत्वके काबिज होने से ब्राह्मणवाद और महाजनवाद यानी हिन्दुत्वकारपोरेटगठबंधन बहुत मजबूत होकर उभरा है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह गठबंधन इस वक्त चुनौती-विहीन नजर आ रहा है। वजह साफ है-एक तरफ ‘सामाजिक न्यायवादी’ लगभग पस्त पड़े हैं और लिबरलयानरमहिन्दुत्व का खेमा सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें कर सकता है, बदलाव की राजनीति नहीं कर सकता। इनके समर्थक बौद्धिक इस देश के सबसे ढोंगी लोग हैं। उनके शब्द और कर्म बिल्कुल जुदा हैं। उच्च-वर्ण से आये एक दौर के महान् बदलाववादी-विचारक-लेखक राहुल सांकृत्यायन या दक्षिण के ईएमएस नंबूदरीपाद जैसे बड़े बौद्धिकों का आज अकाल सा है। आज के कथित लिबरल-सेक्युलर कुलीन बौद्धिकों या उनके हमजोली राजनेताओं की कथनी-करनी के भेद से अंततः हिन्दुत्ववादियों को फायदा मिला है। यह बात एक उदाहरण से समझियेः आप अपने आसपास के ‘प्रगतिशील बौद्धिकों’(लिबरल्स) या ‘विपक्षी राजनीतिज्ञों’ पर नजर डालिये। ऐसे बुद्धिजीवियों और नेताओं में गजब का साम्य दिखेगा। ऐसे लोग दफ़्तर में हों या घर में,  शराब के नशे में हों या ऊंघ रहे हों, उनसे कुछ जरूरी सवाल पूछेंगे तो उनका जवाब एक-सा होगा। मैंने कइयों से पूछकर देखा है। 

आपकी मदद के लिए ऐसे सवालों की एक सूची यहां पेश करता हूं—सत्ताधारी दल में प्रधानमंत्री मोदी का सबसे उपयुक्त वैकल्पिक नेता कौन है? विपक्ष का योग्य नेता कौन? अब तक के इतिहास में देश का श्रेष्ठतम राष्ट्रपति कौन? श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री? श्रेष्ठतम स्वाधीनता सेनानी? स्वाधीनता आंदोलन का सबसे बड़ा क्रांतिकारी? सबसे बड़ा शहीद? सबसे अच्छा पत्रकार? सबसे अच्छा समाजशास्त्री? और अर्थशास्त्री? अब क्षेत्र और विषय बदलकर कुछ अलग ढंग के सवाल करते हैं: हिंदी-अंग्रेजी में सबसे अच्छे एंकर कौन हैं? सबसे अच्छी अभिनेत्री? और अभिनेता? आईटी सेक्टर का सबसे अच्छा कारपोरेट हाउस? एनजीओ सेक्टर में सबसे अच्छा काम किसका? सबसे अच्छा टेनिस खिलाड़ी?

सबसे अच्छा टेनिस प्रशिक्षक?  सबसे बड़ा क्रिकेटर? सबसे अच्छा गायक और गायिका? बेहतर हिंदी संपादक कौन? सबसे अच्छा अंग्रेजी संपादक? सबसे अच्छा अनुवादक?  सबसे अच्छा उपन्यासकार, सबसे अच्छा कवि, सबसे अच्छा कहानीकार? सबसे अच्छा प्रिन्सिपल? श्रेष्ठ कुलपति कौन? शहर या मोहल्ले का सबसे योग्य डाक्टर? सबसे बढ़िया पान-विक्रेता? बेहतरीन पापड़ निर्माता कौन? सबसे भरोसेमंद प्रॉपर्टी डीलर? मोहल्ले का सबसे अच्छा मैथ-ट्यूटर कौन? सबसे अच्छा यू-ट्यूबर? सबसे अच्छा न्यूजपेपर वेंडर? फिर थोड़ा बड़ा फलक लेते हैं। राज्य का सबसे ईमानदार नौकरशाह कौन? देश और प्रदेश में दक्षिणपंथी धारा का सबसे अच्छा नेता? वामपंथी धारा का सबसे योग्य और समर्थ नेता? भारत में अगर क्रांति होगी तो उसकी अगुवाई कौन कर सकता है? हमारा देश औपचारिक तौर पर हिंदू-राष्ट्र बना तो उसका सुप्रीमो  या महाराजाधिराज किसे होना चाहिए?

जानते हैं, हर सवाल के जवाब में ऐसे लोगों के जवाब एक जैसे होंगे। सबमें एक ही तरह के वर्ण की लोगों के नाम होंगे। मसलन-श्रेष्ठ राष्ट्रपति के लिए वे एस राधाकृष्णन का नाम लेंगे या शंकरदयाल शर्मा का। के आर नारायणन का नाम आप जैसे ही लेंगे, उनके दस अवगुण वे निकाल देंगे। हिंदी भाषी क्षेत्रों की ‘लिबरल-सेक्युलर बौद्धिकता’ या ‘राजनीतिक दायरे’ का यह प्रतिनिधि चेहरा और चिंतन है। ऐसे लोग आपको दिल्ली से पटना, जम्मू से जयपुर, भोपाल से लखनऊ और रांची से रायपुर, कहीं भी भारी संख्या में मिल जायेंगे! हिंदीभाषी राज्यों में जहां-जहां इन दिनों ‘गैर हिंदुत्व और कथित लिबरल’ पार्टियों की सरकारें हैं, वहां-वहां के मुख्यमंत्रियों या सरकारों के सबसे नब्बे निन्यानबे फीसदी सलाहकार ऐसे ही लोग हैं! ऐसे दलों की जो सरकारें पहले थीं, उनके तो प्रभारी और सलाहकार, सब ऐसे ही होते थे। ऐसों की सलाह पर चलने वाली ‘गैर हिदुत्ववादी दलों’ की सरकारें क्या सचमुच  ‘हिंदुत्वा-राज’ चलाने वालों का कारगर और टिकाऊ विकल्प तैयार कर सकेंगी? 

मेरे विचार से नयी वैकल्पिक राजनीति के लिए नया सामाजिक और आर्थिक विचार चाहिए। सामाजिकता का नया और व्यापक नजरिया चाहिए। वह किधर है? कहीं थोड़ा-बहुत दिखता भी है तो उसके असर का दायरा बहुत सीमित है! हमारे ‘कुलीन लिबरल’ नफ़रत की राजनीति के खिलाफ़ बहुत ताक़त के साथ बोलते हैं। वे भाजपा को सही ही नफ़रत की राजनीति का प्रतीक मानते हैं। लेकिन एक बात बिल्कुल समझ में नहीं आती कि ये उच्चवर्णीयहिंदूलिबरल दलितों-उत्पीड़ितों और शूद्रों से इस कदर क्यों चिढ़ते हैं?  उनकी यह चिढ़ नफरत की राजनीति करने वाले हिन्दुत्वादियों के लिए बहुत मुफीद साबित हो रही है। इसका वे जबर्दस्त फायदा उठा रहे हैं। यह जानना जरूरी है कि नफ़रतकीराजनीति के खिलाफ़ बहुत ताक़त से बोलने वालों में यह नफ़रत कहां से आई? निरंकुशयाकठोरहिन्दुत्व का विकल्प नरमयालिबरलहिन्दुत्व नहीं है। समस्या इस हिन्दुत्व में है। 

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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