Saturday, April 20, 2024

….तो भाजपा नेताओं के हाथ पांव फूले हुए हैं!

तो क्या यह मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश और इसके आगे-पीछे होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपना सफाया होना तय मानकर चल रही है और उसके हाथ पांव फुले हुए हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि एक ओर चुनाव की तैयारी चल रही है, तमाम विकास की घोषणाएं हो रही हैं, राम मंदिर और विश्वनाथ कॉरिडोर का शोर शराबा है और दूसरी ओर कहीं ना कहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव ओमिक्रान के नाम टालने की भी संभावना तलाशी जा रही है।

दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या गृहमंत्री अमित शाह या फिर सड़क परिवहन मंत्री गडकरी साहब या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा साहब हों, उनकी जनसभाओं में भीड़ नहीं उमड़ रही, बल्कि जो लोग ढोकर भी लाए जा रहे हैं, वह बीच में ही उठ कर वापस जाने लगते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके डिप्टी चीफ मिनिस्टर केशव प्रसाद मौर्य हों या दिनेश शर्मा हों या प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र सिंह हों, सभी की जनसभाएं और कार्यक्रम फ्लॉप जा रहे हैं। दूसरी ओर अखिलेश यादव हों या उनके चुनाव सहयोगी जयंत चौधरी हों या फिर कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी हों, इनकी जनसभाओं और कार्यक्रम में स्वत: स्फूर्त भारी भीड़ उमड़ रही है।

चुनाव आयोग की तैयारियों के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक सिंगल जज ने एक जमानत मामले में यूपी के चुनाव टालने पर विचार करने का अनुरोध चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कर दिया और इसे लेकर गोदी मीडिया उड़ गई कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ओमिक्रॉन को देखते हुए चुनाव टालने का अनुरोध किया है। इसके बाद चुनाव आयोग ने कह दिया कि इस पर वह बाद में घोषणा करेगा कि चुनाव टलेगा या चुनाव होगा।

अब इसे क्या कहा जाएगा की इस परिदृश्य के पहले पीएमओ ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य दो चुनाव आयुक्तों के साथ बैठक की। इस बैठक में क्या हुआ यह पब्लिक डोमेन में नहीं है। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि कहीं पीएमओ में चुनाव आयुक्तों को बुलाकर चुनाव टलवाने की संभावना पर तो  विचार नहीं किया गया या अपरोक्ष रूप से चुनाव टालने पर विचार करने के लिए तो नहीं कहा गया। दरअसल संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर और संविधान सभा ने भी यह परिकल्पना नहीं की थी कि कालांतर में चुनाव आयोग, जो संवैधानिक संस्था है, नौकरशाही के जूतों तले दब जाएगी।

पीएमओ द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल होने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त अंबेडकर के इस डर को साबित करते हैं कि चुनाव निकाय कार्यपालिका के अंगूठे के नीचे आ सकता है। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों ने पिछले महीने प्रधान मंत्री कार्यालय के साथ एक बैठक में भाग लिया, जो हाल ही में भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के पीछे संविधान सभा के इरादे के खिलाफ है, और कुछ विधानसभा सदस्यों द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं को वैधता प्रदान करता है।

16 जून 1949 को संविधान सभा में संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 289 (भारतीय संविधान का संबंधित अनुच्छेद अनुच्छेद 324 है) पर चुनाव आयोग पर चर्चा के दौरान डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने स्वीकार किया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त या अन्य चुनाव आयुक्त के पद पर एक अयोग्य व्यक्ति के नामांकन के खिलाफ कुछ भी सेफगार्ड नहीं है। उन्होंने यह स्वीकार करने के लिए पर्याप्त रूप से स्पष्ट किया कि संविधान में मूर्ख या ऐसे व्यक्ति को रोकने के लिए कोई प्रावधान नहीं है, जो कार्यपालिका के अंगूठे के नीचे होने की संभावना को शून्य कर सके। उन्होंने कहा कि मैं यह स्वीकार करना चाहता हूं कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसने मुझे बहुत सिरदर्द दिया है और मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह इस सदन को एक बड़ा सिरदर्द देने वाला है।

संविधान सभा में अम्बेडकर द्वारा इन चिंताओं को व्यक्त करने के बहत्तर साल से थोड़ा अधिक समय के बाद भारत में वास्तव में ऐसी परिस्थिति उस समय उत्पन्न हो गयी, जब पता चला कि मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्र, और दो चुनाव आयुक्त, राजीव कुमार और अनूप चंद्र पांडे इस साल 16 नवंबर को केंद्रीय कानून मंत्रालय से एक पत्र प्राप्त करने पर प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव के साथ एक ऑनलाइन बातचीत में भाग लिया कि मुख्य चुनाव आयुक्त से ऐसा करने की उम्मीद है। यह मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त का कार्यपालिका के अंगूठे के नीचे आने का प्रदर्शन था, जैसा कि 1949 में डॉ अंबेडकर ने माना था।

जाहिर है, मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों का आचरण सवालों के घेरे में आ गया और चुनाव आयोग की कार्यपालिका से स्वतंत्रता पर उंगलियां उठ गईं हैं। पांच पूर्व सीईसी ने चुनाव आयोग को कानून मंत्रालय के पत्र को अस्वीकार्य बताया और इसे आयोग की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में निरुपित किया है।

ऐसे समय में जब भारत को “आंशिक रूप से स्वतंत्र देश” के रूप में डाउनग्रेड किया गया है और एक ‘निर्वाचित निरंकुशता’ के रूप में वर्णित किया गया है, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव की अध्यक्षता में एक बैठक में भाग लेने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त का आचरण स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के लिए अच्छा नहीं है। निष्पक्ष चुनाव को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना जाता है। यह मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का “कार्यपालिका के अंगूठे” के नीचे आने का प्रदर्शन था, जैसा कि 1949 में डॉ अंबेडकर ने आशंका व्यक्त की थी।

वर्ष 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और हिमाचल प्रदेश सहित कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ, प्रधान मंत्री कार्यालय द्वारा बुलाई गई बैठक में मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त की उपस्थिति को सही आशंका के साथ देखा जा रहा है। यह निश्चित रूप से कार्यपालिका से चुनाव आयोग की स्वतंत्रता के संबंध में एक गलत संदेश देता है।

संविधान सभा के वाद-विवाद में झांकना हमें संविधान निर्माताओं द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं के बारे में जानकारी देता है कि चुनाव आयोग की संस्था, संवैधानिक रूप से गारंटीकृत स्वतंत्र स्थिति के बावजूद, भविष्य में कुछ शासनों से अपनी निष्पक्षता और तटस्थता के लिए खतरों का सामना कर सकती है। पक्षपातपूर्ण हितों से निर्देशित हों और इसे अपने श्रुतलेखों के आगे झुकने के लिए सभी प्रकार की तकनीकों को नियोजित करें।

गौरतलब है कि 15 जून 1949 को संविधान सभा में प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना ने संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 289 पर चर्चा में भाग लेते हुए इस बात का भय व्यक्त किया कि भविष्य में यह बहुत संभव है कि कोई दल सत्ता में हो और अगला चुनाव जीतना चाहता है, वह एक कट्टर पार्टी व्यक्ति को मुख्य आयुक्त के रूप में नियुक्त कर सकता है। उन्होंने विवेक के साथ यह भी कहा कि जवाहरलाल नेहरू जैसा प्रधान मंत्री नहीं हो सकता है, जो स्वतंत्रता और निष्पक्षता के लिए जाने जाते हैं, और कमजोर साख वाला कोई और व्यक्ति उस पद पर कब्जा कर लेगा और एक अयोग्य व्यक्ति को सीईसी के रूप में नियुक्त करके अपने अधिकार का दुरुपयोग करेगा, जो बदले में चुनावी प्रक्रिया पर कहर बरसा देगा।

सक्सेना की इन आशंकाओं के जवाब में डॉ. अम्बेडकर की उपरोक्त टिप्पणियों कि सीईसी या ईसी के रूप में नियुक्त एक अयोग्य व्यक्ति “कार्यकारी के अंगूठे के नीचे” आ सकता है,कहे गए थे।

वर्ष 1949 में बोले गए वे शब्द आज भी भारत में गूंजते हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा नियुक्त सीईसी और दो चुनाव आयुक्त जब प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव द्वारा बुलाई गई बैठक में भाग ले रहे होते हैं तो वे सक्सेना की आशंकाओं को सही सिद्ध कर रहे होते हैं। इसने चुनाव आयोग की स्वतंत्र स्थिति को जो क्षति पहुँचायी है, उससे संकेत मिलता है कि अम्बेडकर और सक्सेना दोनों ही चुनाव आयोग पर सरकार के प्रभाव के संभावित प्रतिकूल प्रभाव के बारे में अपनी चिंताओं में सही थे।

संविधान सभा का मजबूत रुख था कि एक चुनाव आयोग तत्कालीन सरकार से पूरी तरह से स्वतंत्र हो। पीएमओ द्वारा बुलाई गई बैठक में सीईसी और ईसी की उपस्थिति को संविधानसभा की इस मंशा की कसौटी पर कसा जाना चाहिए।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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