Thursday, April 25, 2024

लोकतंत्र के ‘असली हत्यारे’ के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो!

मद्रास हाई कोर्ट ने कोरोना महामारी के महासंकट के लिए चुनाव आयोग को जिम्मेदार ठहराते हुए उसके अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने की तीखी टिप्पणी की है, जिससे देश में एक नई बहस शुरू हो गई है और अब उन लोगों को भी  स्थिति की गंभीरता का एहसास होने लगा है जो अब तक यह मानकर चल रहे थे कि कोरोना पर भारत ने विजय पाल ली है,  लेकिन मद्रास हाईकोर्ट ने इस पूरे संकट के असली हत्यारे की तरफ अभी इशारा नहीं किया है। हाई कोर्ट के इस फैसले से जहां एक अपराधी की शिनाख्त की गई, लेकिन उससे भी बड़े अपराधी को एक तरह से बचा लिया गया है।

राज्यों के हाई कोर्ट की एक न्यायिक सीमा होती है और शायद इसलिए मद्रास हाई कोर्ट ने अपनी सीमा के भीतर यह टिप्पणी की है, लेकिन उसने इस अपराध के जिन जिम्मेदार व्यक्तियों को अपराधी बताने की कोशिश की है, अगर उसी तरह उच्चतम न्यायालय भी इस पूरे संकट के ‘असली हत्यारे’ की शिनाख्त करता और वह भी मद्रास उच्च न्यायालय की तरह कोई टिप्पणी करता तो शायद देश में एक दूसरी स्थिति होती, एक दूसरी बहस शुरू होती, पर वह बहस अभी पूरी तरह शुरू नहीं हुई है। गोदी मीडिया असली हत्यारे को बचाने में लगा है और इस पूरे संकट का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ने में लगा है। 

पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह उच्चतम न्यायालय की साख गिरी है, उसमें उस से ऐसी टिप्पणी की उम्मीद करना  अवांछित होगा। मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने कल एक टीवी  प्रोग्राम में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सरकार से डरते हैं। जाहिर है हम किसी मुख्य न्यायाधीश से ऐसी स्थिति में कोई उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन इस पूरे प्रकरण में ‘असली हत्यारा’ अभी भी परदे के पीछे छिपा हुआ है। आजादी के बाद हमने यही देखा है कि लोकतंत्र के असली हत्यारे कोई और होते हैं और वे हमेशा पर्दे के पीछे रहते हैं। बल्कि उनके इशारों पर दूसरे हत्यारे पकड़ लिए जाते हैं।

असल में हत्यारे भी कई तरह के होते हैं, इसलिए उनकी पहचान करना बहुत जरूरी है। आजादी के बाद अपने देश में लोकतंत्र के इतने सारे हत्यारे पैदा हो गए हैं और इन सारे हत्यारों का अपना एक गठबंधन भी बन गया है। उनका आपसी रिश्ता लगातार मजबूत होता जा रहा है। मेलजोल भी बढ़ता जा रहा है। उनकी आपसी मिलीभगत भी है और इसलिए एक हत्यारा ‘दूसरे हत्यारे’ की मदद भी करता है। 

कई बार ऐसा देखा गया है के सिस्टम का बचाव करने के लिए विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका एकजुट भी हो जाती हैं, लेकिन जब उनके अधिकारों के बंटवारे को लेकर खींचतान   होती है तो वे एक-दूसरे पर हमला भी करते हैं। न्यायपालिका और विधायिका के बीच कई बार हमने इस खींचतान और आरोप-प्रत्यारोप तथा हमले को देखा है, लेकिन इस मौजूदा स्थिति में न्यायपालिका भी महीनों तक तमाशा देखती रही।

जब स्थिति हद से गुजर गई और सर के ऊपर पानी बहने लगा तो कई उच्च न्यायालयों की नींद टूटी, लेकिन उच्चतम न्यायालय अभी भी सोया हुआ है। अब सोशल मीडिया पर बहस खड़ी हुई है कि सिस्टम फेल हो गया है। दरअसल जब मध्य वर्ग को अस्पताल में बेड, वेंटीलेटर नही मिला, ऑक्सीजन नहीं मिली तब उसे लगा कि सिस्टम फेल हो गया है। उसे तब यह दिखाई नहीं दिया, जब लाखों लोग गत वर्ष अपने पैदल गांव   जा रहे थे। सिस्टम उसी दिन फेल हो गया था, लेकिन तब गरीब इसके शिकार थे आज पूरा मध्यवर्ग हो गया है।

इस पूरे प्रकरण में विधायिका चुपचाप बैठी तमाशा देखती रही। इस देश को चलाने का काम विधायिका ही करती है। सरकार में विधायिका के लोग होते हैं। यहां तक कि अब न्यायपालिका को भी विधायिका ही संचालित करने लगी है। ऐसे में न्यायपालिका से उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह असली हत्यारे की शिनाख्त करे, लेकिन यह होता नहीं दिखता है। पर मद्रास हाई कोर्ट की इस टिप्पणी से देश का अब ध्यान चुनाव आयोग पर  केंद्रित हुआ है, लेकिन चुनाव आयोग भी अब सरकार के हाथों में एक कठपुतली बनकर रह गया है।

वैसे तो आयोग बार-बार कहता रहा है कि वह स्वायत्त और  स्वतंत्र संस्था है। क्या व्यवहारिक रूप से वह कोई निर्णय लेने में स्वतंत्र है? अगर होता तो चुनाव स्थगित कर देता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। हाल के वर्षों में चुनाव आयोग पर यह आरोप कई बार लगे हैं कि वह सरकार के इशारे पर काम करता है। अगर ऐसा है तो इस महामारी का असली अपराधी चुनाव आयोग नहीं है बल्कि वह सरकार है जिसके इशारे पर आयोग काम कर रहा है, इसलिए हमें लोकतंत्र में ‘असली अपराधी’ ‘असली हत्यारे’ की खोज जरूर करनी चाहिए और प्राथमिक जिम्मेदारी उस पर ही निर्धारित की जानी चाहिए, क्योंकि इस देश को चलाने का काम ‘शीर्ष नेतृत्व’ ही करता है। वही नीतियां  बनाता है और वही बजट की भी व्यवस्था करता है और वही उसे नौकरशाही के माध्यम से लागू भी करवाता है। इसलिए अगर शीर्ष नेतृव सजग होता तो यह नौबत नहीं आती, लेकिन उसके अत्यधिक आत्मविश्वास उसकी लापरवाही, उसकी  आत्ममुग्धता, उसकी असंवेदनशीलता उसको ही नहीं पूरे मुल्क को ले डूबा और इस तरह देश में ‘जनसंहार’ हुआ।

आखिर इसके लिए दोषी कौन है? आज फटाफट बैठकें बुलाई जा रही हैं और ऑक्सीजन के लिए रेलगाड़ियां चल पड़ी हैं। प्लांट की घोषणा हो रही है। राज्यों को ऑक्सीजन आवंटन बढ़ाया जा रहा है। यह सब बताता है कि सरकार कान में तेल डाले बैठे रही। क्या यह काम पिछले एक साल में नहीं हो सकता था? अब प्रधानमंत्री pm care’s fund   का हिसाब क्यों नहीं देते? क्यों यह घोषणा करते कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिलिटी का फंड इस महामारी पर खर्च किया जाए? वह उद्योगपतियों से covid सरचार्ज क्यों नहीं ले रहे? लेकिन सरकार ‘जब आग लगी तो कुआं खुद लोग निकले’ की तर्ज पर काम कर रही है। अब पूरी दुनिया में भारत की थूथू हो रही है और जग हंसाई हो रही है। 

कल तक मोदी जी इस बात के लिए अपनी पीठ खुद ठोंके जा रहे थे कि उन्होंने इस महामारी के खिलाफ जंग जीत लिया है और टीका बनाकर दुनिया को एक नया रास्ता दिखाया है। कहा जा रहा है कि नोबेल पुरस्कार लेने की होड़ में मोदी जी ने  तमाम देशों को टीके भी निर्यात किए, ताकि उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि बने, लेकिन अब उनकी बाजी पलट गई है, पासा पलट गया है और भारत पूरी दुनिया से मदद के लिए गुहार लगाने की स्थिति में पहुंच गया है। यूरोपीय यूनियन से लेकर अमरीका रूस और ब्रिटेन सभी भारत को मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं, लेकिन अभी भी हमारा शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह जगा नहीं है।

उसने स्थिति की गंभीरता को पहचाना नहीं है, क्योंकि शीर्ष  नेतृत्व से जुड़े हुए लोगों को इलाज आदि की सुविधा उपलब्ध है, उन्हें अस्पताल में बिस्तर का वह संकट नहीं है। उन्हें ऑक्सीजन मिलने की दिक्कत नहीं है। उनके पास डॉक्टर से लेकर सब कुछ उपलब्ध है और जब तक उनकी जान खतरे में नहीं आती तब तक वे इस महामारी के खतरे को महसूस नहीं कर पाते। वह इतने संवेदनशील नहीं हैं कि समझ सकें कि गरीब आदमी को इस दौर में क्या-क्या झेलना पड़ा है।

जब उसे अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहा है, ऑक्सीजन भी नहीं मिल रहा है। दवा दारू और टीके भी नहीं मिल रहे हैं और तो और अब एक मई के बाद से टीकाकरण अभियान में इतनी भीड़ देखने को मिलेगी कि बहुत सारे लोग भीड़ में शायद टीका लगाना भी उचित नहीं समझे। इन सारी बातों को देखते हुए मद्रास हाई कोर्ट ही नहीं बल्कि देश के तमाम हाई कोर्टों को चाहिए ‘असली हत्यारे’ की पहचान करें और उन सभी हत्यारों के खिलाफ ‘सामूहिक एफआईआर’ दर्ज कराने का निर्देश दें, तभी शायद लोकतंत्र के हत्यारों को पकड़ा जा सकेगा और उन्हें बेगुनाह लोगों की मौत का दोषी करार दिया जा सकेगा।

इसलिए लोकतंत्र के ‘असली हत्यारों’ को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं आना चाहिए। अगर देश में ऐसी कोई अदालत होती जो पूरी तरह पारदर्शी स्वतंत्र और होती तो लोकतंत्र के असली हत्यारे को पकड़ा जा सकता था, लेकिन अब जनता अपनी अदालत में इन मुजरिमों को सजा सुनाएगी। यह उम्मीद की जा सकती है।

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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