बहुजन से जाति और अब ब्राम्हण

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आरम्भ में कांशीराम जी ने बामसेफ बनायी जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र में हुई और उसके बाद उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फैला। जितनी दलित जातियाँ जुड़ीं लगभग पिछड़े भी उतने साथ आये और अल्पसंख्यक वर्ग का भी अच्छा ख़ासा साथ मिला। पहली लोकसभा की सीट बिजनौर से निकली जहाँ पर मुसलमानों ने बढ़- चढ़कर के साथ दिया और उसके बाद कुर्मी बाहुल्य क्षेत्र रीवा, मध्यप्रदेश से बुद्ध सेन पटेल जीत कर आये। कांशीराम जी जब वी. पी. सिंह के खिलाफ इलाहबाद से चुनाव में उतरे तो मुख्य सारथी कुर्मी समाज के थे। इस तरह से कहा जा सकता है कि शुरू में जैसा नाम वैसा काम दिखने लगा। एक नारा उन दिनों बहुत गूँज रहा था, पंद्रह प्रतिशत का राज बहुजन अर्थात पचासी प्रतिशत पर है। पार्टी का विस्तार यूपी और पंजाब में इसी अवधारणा के अनुरूप बढ़ा और उसी के प्रभाव से 1993 में समाजवादी पार्टी से यूपी में समझौता हो सका। 1994 में प्रथम बार जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो बहुजनवाद में संकीर्णता प्रवेश करने लगी। लोग राजनीतिक रूप से कम और सामाजिक रूप से ज्यादा जुड़े थे, इसलिए उपेक्षित होते हुए भी साथ में लगे रहे। समाज ने यह भी महसूस किया कि अपना मारेगा तो छाँव में। जो भी हो मरना जीना यहीं है।

जैसे- जैसे सत्ता का नशा चढ़ता गया, बहुजनवाद जाति में तब्दील होता चला गया। जाति के आधार पर बड़े-बड़े सम्मेलन होने लगे और जो जातियां सत्ता के लाभ से वंचित थीं वो बहुत तेजी से जुड़ती चली गयीं। उदाहरण के लिए राजभर, कुशवाहा, मौर्या, कुर्मी, पासी, नोनिया, पाल, कोली सैनी, चौहान आदि। आन्दोलन ने इन जातियों में जागृति पैदा होने के साथ नेतृत्व भी उभरा जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भारी भागीदारी की बात ने भी खुद अपील किया, सबको मान- सम्मान और साझीदारी का वायदा किया। अब तक नेतृत्व मायावती के हाथ में आ गया था और इन्हें इस बात का अहसास हो गया कि लोग जायेंगे कहाँ या लोगों को जिस तरह से चाहे उस तरह हांका जा सकता है। मंच पर मायावती जी और कांशीराम जी की कुर्सी लगने लगी। सांसद- विधायक भी जमीन पर बैठने लगे। बहुत दिनों तक लोग भावनाओं के मकड़जाल में नहीं रह सकते। उनमें छटपटाहट का होना लाजिमी था। इसको समझने के लिए यह कहा जा सकता कि जैसे दावत का निमंत्रण दे दिया लेकिन थाली में कुछ डाला नहीं।

दलित-पिछड़ों कि जो तमाम उपजातियां जुड़ी थीं अब वो तलाश में लग गयी कि उनको मान-सम्मान या भागीदारी कहाँ मिल सकती है। जाहिर है कि सबने अपनी जाति के आधार पर संगठन खड़ा किया और इस तरह से दर्जनों पार्टियां बन गयीं और जहाँ भी सौदेबाजी का मौका मिला वहां तालमेल बैठाना शुरू कर दिया। इस तरह से बहुजन आन्दोलन जाति तक सीमित हो गया।

2017 में भाजपा ने इस अंतर्विरोध को अच्छे ढंग से समझा और गैर- यादव, गैर– चमार जातियों को टिकट बांटे और बड़ी कामयाबी मिली। जब जातीय आधार पर सम्मेलन हुए थे तो उस तरह की चेतना का निर्माण होना स्वाभाविक था। चेतना के अनुसार अगर उनको समाहित नहीं किया गया तो असंतुष्ट होना भी स्वाभाविक था। और जो उनको संतुष्ट कर सकता था, उनसे जुड़ गए। इसका मतलब यह नहीं कि उनके जाति का कल्याण का उत्थान हुआ बल्कि कुछ विशेष व्यक्ति जो ब्लॉक प्रमुख, विधायक, मंत्री बन पाए। मनोवैज्ञानिक रूप से जाति को भी संतोष मिला कि हमारी जाति का व्यक्ति भी संसद-विधानसभा में पहुँच गया।

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का जनाधार 2017 के चुनाव में धीरे से खिसक गया। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो उन जातियों के मंत्री, विधायक व अन्य लोगों को सम्मानित पद मिला जिससे उनकी जातियां खुश हो गयीं। इतनी चेतना वाली ये जातियां नहीं हैं कि विश्लेषण कर सकें कि जाति का भला हो रहा है या दो- चार व्यक्ति का। भारतीय समाज में जाति कि पहचान बहुत ही चट्टानी है तो उन्हें लगता है कि जो सपा–बसपा नहीं दे सकी उससे ज्यादा भाजपा ने दिया है। जब जाति भावना से चीजें देखी जाने लगती हैं तब शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भागीदारी जैसे सवाल पीछे छूटते चले जाते हैं। भाजपा ने इनको खुश भी कर दिया और धीरे से जो भी उपलब्धि या लाभ पहुँच रहा था वो निजीकरण से समाप्त कर दिया। गत चार साल में 40,842 डॉक्टर के प्रवेश के पिछड़ों की सीटों को ख़त्म कर दिया तो क्या इन्हें अहसास भी हुआ। यूपी में हर अहम पद पर पंद्रह प्रतिशत वालों का कब्जा ज्यादा हुआ है। लेकिन इन पिछड़ों और दलितों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। यूँ कहा जाए कि भाजपा ने कुछ व्यक्ति विशेष को सम्मानित जगह पर बिठा कर के उनके पूरे समाज को ही संतुष्ट कर दिया।

अयोध्या से बहुजन समाज पार्टी ने ब्राम्हण जोड़ो अभियान शुरू किया है। 2005 में ब्राम्हण सम्मेलन किया था और 2007 में बसपा अपने बल पर सरकार को बना पाई। कहा जाने लगा कि ब्राम्हणों के समर्थन से ही बसपा का सरकार बनना संभव हुआ। उस समय नारा दिया गया कि ब्राम्हण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जायेगा। सच्चाई यह है कि 2005 के ब्राम्हण सम्मेलन में पीछे और मध्य की जो भीड़ थी बहुजन समाज की थी ना कि ब्राम्हण समाज की। बसपा अगर विचारधारा के अनुसार चली होती तो आज वोट की तलाश में ब्राम्हण के पास पहुंचने की जरुरत न पड़ती। दलित की सभी जातियों को संगठन से लेकर सत्ता में संख्या के अनुरूप भागीदारी दी होती तो आज जो ब्राम्हण के पीछे भागकर जनाधार की पूर्ति की कवायद हो रही है, उसको ना करना पड़ता। इसी तरह से अन्य सभी जातियों को भी सत्ता, संगठन में भागीदारी दिया होता तो वोट की कमी को पूरा करने के लिए ब्राम्हण के पास जाने की जरुरत न भी पड़ती। तीसरा विकल्प यह भी था कि मुस्लिम समाज को सत्ता एवं संगठन में आबादी के अनुपात में संयोजन हुआ होता तो ब्राह्मण वोट लेने के लिए इस तरह से भागना न पड़ता। सूझबूझ और ईमानदार एवं शिक्षित नेतृत्व होता तो ऐसा ही करता लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है तो ब्राम्हण के पास जाना मजबूरी हो गयी। चुनाव अभी आने वाला है तो देखना दिलचस्प होगा कि ब्राम्हण मिलता है या नहीं।

(लेखक डॉ. उदित राज पूर्व आईआरएस व पूर्व लोकसभा सदस्य हैं, वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)

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