Friday, April 19, 2024

मुंडा समुदाय के असंख्य बलिदानों और लंबे संघर्षों का नतीजा है सीएनटी एक्ट

1765 ई0 में जब मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से बंगाल की दीवानी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने ले ली। उसी दीवानी अधिकार के तहत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के जंगलमहल, धालभूम, मानभूम, मिदनापुर, बांकुड़ा, पचेत के इलाकों में यहां के लोगों से जबरन लगान वसूलना शुरू किया। भूमिज मुंडा जमींदारों और जोतकारों ने इस जबरन लगान के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया। जो लंबे समय तक चलता रहा।

इसकी पहली बड़ी आग 1769 में जंगल महल में फैली, जिसे चुआड़ विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इसके बाद के सालों में पलामू पर आक्रमण और चेरो विद्रोह (1771-1819 ), पहाड़िया विद्रोह (1784), तमाड़ विद्रोह (1782-98), सिंहभूम का हो विद्रोह (1820-21), कोल विद्रोह (1831-32), मानभूम-सिंहभूम भूमिज विद्रोह (1832-33) जैसे विद्रोह होते चले गये।

मतलब शुरुआत के विद्रोह को चुआड़ विद्रोह और अंतिम विद्रोह को भूमिज विद्रोह कहा जाता है। मूलतः वह भूमिज मुंडाओं का ही विद्रोह था। इस विद्रोह के शुरु होने का परिणाम यह हुआ कि इससे सटे मुंडा बाहुल्य इलाके पुरुलिया, चांडिल, तमाड़, खूटी इत्यादि क्षेत्रों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जहाँ-तहाँ मुंडा आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया। ब्रिटिश इंडिया कंपनी की ओर से लगान वसूली करने के खिलाफ और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अधीनता मानने से मुंडाओं ने इन्कार कर दिया। इस तरह मुंडाओं के विद्रोह के प्रभाव में आकर अन्य स्थानों में छिटपुट विद्रोह शुरु हुआ।

अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आदिवासियों के विद्रोह की एक लंबी फेहरिश्त है जो 1782 ई0 से लेकर 1820 ई0 तक भोलानाथ सिंह मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह, 1789 विष्णु मुंडा के नेतृत्व में तमाड़ में मुंडा विद्रोह, 1793 में शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में राहे परगना में मुंडा विद्रोह, 1796 से 1798 में विश्वनाथ सिंह मुंडा के नेतृत्व में राहे परगना और सिल्ली परगना में मुंडा विद्रोह, 1797 में मानकी विष्णु मुंडा के नेतृत्व में बुंडू परगना में मुंडा विद्रोह, 1798 – 1799 में दुर्जन सिंह, लाल सिंह, मोहन सिंह (सभी भूमिज मुंडा) के नेतृत्व में बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में चुआड़ विद्रोह, 1800 में पलामू में चेरो विद्रोह, 1807 में मानकी दुखन सिंह मुंडा के नेतृत्व में पांच परगना और रामगढ़ में बृहद मुंडा समुदाय का विद्रोह, 1819 से 1820 ई तक पाहन रुदू मुंडा और कोंता मुंडा के नेतृत्व में पांच परगना और सिंहभूम में कोल विद्रोह, 1820-1821 में हो आदिवासियों का विद्रोह, 1832 में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में सिंहभूम, मानभूम और धनबाद क्षेत्रों में भूमिज मुंडाओं का विद्रोह, 1832 ई0 में बुधु भगत का विद्रोह, 1832-1833 ई0 में खरवार विद्रोह, 1855-1856 ई0 में सिद्धू- कान्हू, चांद-भैरव के नेतृत्व में संथाल विद्रोह और 1874 में पुनः खरवार विद्रोह हुआ।

इसी तरह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी राज के खिलाफ आदिवासियों का विद्रोह तो लगातार यहां चलता रहा। लेकिन जब इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राज को खत्म कर शासन को अपने हाथों में ले ली। उसके बाद भी मुंडा बाहुल्य इलाकों में पुनः मुंडा समुदाय के लोगों ने अपनी जमीन की वापसी और मालिकाना हक, अपनी शासन व्यवस्था पर बाहरी हस्तक्षेप के खिलाफ लंबी लड़ाई छेड़ दी। इस लड़ाई को मुंडा सरदारों ने बड़े पैमाने पर शुरु किया था। जिसे सरदारी विद्रोह भी कहा जाता है। जो तीन चरणों में चला। पहला चरण 1858-1881 दूसरा चरण 1881-1890 तीसरा चरण 1890-1895 तक चलता रहा।

बताते चलें कि राष्ट्रीय आदिवासी मुंडा परिषद, रांची के तत्वावधान में धुमकुड़िया भवन, करमटोली, रांची में सीएनटी एक्ट की 114 वीं वर्षगांठ मनाया गया। इस वर्षगांठ समारोह में “सीएनटी एक्ट के 114 वीं वर्षगांठ और उसकी प्रासंगिकता” विषय पर एक विचार – गोष्ठी आयोजित की गई।

इस पर विषय प्रवेश कराते हुए लक्ष्मीनारायण मुंडा ने कहा कि सीएनटी एक्ट कानून मुंडा आदिवासी समुदाय की असंख्य बलिदान और लंबे संघर्षों का परिणाम है। जब से अंग्रेजों ने आदिवासी इलाकों में प्रवेश किया और शासन करने, लगान वसूलने का प्रयास किया। तब से यहां के आदिवासी समुदाय ने भी इसका प्रतिरोध किया। इन संघर्षों में संथाल, भूमिज मुंडा, हो, खड़िया, उरांव, चेरो, खरवार सब शामिल थे। लेकिन सबसे लंबी लड़ाई मुंडा समुदाय ने ही लड़ी है।

लक्ष्मीनारायण मुंडा ने कहा कि इन्हीं मुंडा विद्रोहों और मुंडा आदिवासियों के जनविक्षोभ को समेटकर बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ महाउलगुलान शुरू किया। अंग्रेजी हुकूमत और उनके द्वारा थोपे गए पिट्ठू जमीदारों, महाजनों के शोषण के खिलाफ मुंडा आदिवासियों का इन्हीं विद्रोहों के कारण अंततः बाध्य होकर ब्रितानी हुकूमत को सीएनटी एक्ट को बनाना पड़ा। इन विद्रोहों का मूल कारण आदिवासियों की लूटी जा रही जमीन को बचाने, जमीन पर मालिकाना अधिकार को पुनः हासिल करने और पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था पर हस्तक्षेप किए जाने के खिलाफ था। अंग्रेज जब इन बातों को समझ गए। तब उन्होंने यहां की आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए विशेष भूमि अधिकार कानून बनाया। इस कानून की विशेषता सामुदायिक, स्वामित्व और आदिवासियों की जमीन को गैर आदिवासियों के पास हस्तांतरण से रोकने के लिए था।

इस अवसर पर विचार गोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रेम शाही मुंडा ने कहा कि आदिवासी समुदाय को इस कानून को बनाने के मूल उद्देश्य को समझना होगा। आज इस कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करके आदिवासियों की जमीन लूटा जा रहा है। इस लूट में जमीन माफिया, असामाजिक तत्त्वों, पुलिस अधिकारी और अंचल अधिकारी – कर्मचारी सभी शामिल हैं। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के लोग अपने ही समाज की जमीन लूटवाने में शामिल हैं या रुपये कमाने की धुन में खुद जमीन दलाली में शामिल हैं। आज आदिवासियों की सामुदायिक, सामाजिक जमीन को भी बेच दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि ऐसे तत्त्वों के खिलाफ आदिवासी समुदाय को खड़ा होने की ज़रुरत है।

इनके अलावे विचार गोष्ठी को अन्य कई लोगों ने भी संबोधित करते हुए आदिवासी विद्रोह व सीएनटी एक्ट पर अपनी बात रखी।

कार्यक्रम शुरू होने से पहले उपस्थित लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अपनी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था और जमीन बचाने के लिए संघर्ष में शहीदों को याद किया।

इस अवसर पर आगामी 3 जनवरी 2023 ई0 को एक राष्ट्रीय सम्मेलन करने का निर्णय लिया गया। इसमें झारखंड, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, असम, अरुणाचल, नेपाल, बांग्लादेश से प्रतिनिधियों को बुलाने का निर्णय लिया गया।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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