Friday, April 19, 2024

प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर विशेष: नागरिक समाज की पक्षधरता ही मीडिया के निष्पक्षता की है कसौटी

दुनिया के दूसरे समुदायों की तरह हिन्दू और मुसलमान समुदायों के बीच यूं तो ऐसे कई शैलीगत फ़र्क़ है, जिनसे उनकी पहचान बनती है और जिन्हें उनकी ख़ासियत की तरह देखा जाना चाहिए। लेकिन, दोनों के बीच सतह पर दिखने वाला एक ऐसा फ़र्क़ है, जिसे उनकी खोट की तरह देखा जाना और पेश किया जाना चाहिए और वह है दोनों के बीच की अपनी-अपनी कट्टरता और विविधता को लेकर अपनाया जाने वाला अनादर का भाव। सच्चाई का दूसरा पहलू यह भी है कि अधिकांश हिन्दुओं में विविधता के लिए आदर, और बदलाव के लिए आग्रह होता है। वहीं ज़्यादातर मुसलमानों के बीच इस विविधता को लेकर बेफ़िक्री, और बदलाव नहीं करने को लेकर एक तरह की कट्टरता होती है। यह कट्टरता जितना ख़ुद के धर्म-मज़हब के लिए होती है, उतना ही दूसरे मज़हब को देखने-समझने को लेकर है।

इसके लिए शायद हिन्दुओं का बहुदेववाद और मुसलमानों का एकेश्वरवाद भी ज़िम्मेदार है। एक ख़ास फूल वाले चंद बाग़, मसलन गुलाब वाटिका, कभी-कभार के लिए सुंदर दिख सकता है। लेकिन बाग़ की असली प्रकृति उसमें क़िस्म-क़िस्म के फूलों का होना है। मान्यतायें जितनी ज़्यादा होंगी, विचारधारायें जितनी ही अधिक होंगी, व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-दुनिया उतना ही तर्कपूर्ण होगा, क्योंकि ऐसे में हमारे देखने का रेंज उतना ही विशाल और व्यापक होगा। अपनी भावनात्मक अवस्था में माता-पिता की नज़रों से जब तक हम चांद को देखते हैं, वह चांद, चंदा मामा होता है। किताबों और सूचनाओं के ज़रिये अपनी बौद्धिकता के साथ जैसे ही हम उस चांद को देखना शुरू करते हैं, तो वह चंदा मामा से धरती के एक उपग्रह में बदलता चला जाता है। चांद वही होता है, हमारी समझ के बदलते जाने से चांद को लेकर हमारी मान्यता भी बदलती जाती है। चांद को ज़िंदगी भर चंदा मामा मानने की ज़िद ही कट्टरता है, और उस चंदा मामा से उसके उपग्रह होते जाने की मान्यता की तरफ़ की बौद्धिक यात्रा असल में उदारता की तरफ़ की हमारी उदारता है।

छूटती भावुकता से समझ के साथ बढ़ती हमारी इसी उदारता की यात्रा ने हमारी ज़िंदगी को आसान बनाया है। आज हम फटे कपड़ों के सिलने वाले सूई से लेकर अंतरिक्ष की खोज में लगे मशीनों के ईजाद जैसी उपलब्धियां इसी सफ़र में पायी है। यह सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुई है। संभावनायें कभी ख़त्म नहीं होतीं। इसलिए संभावनाओं को खिलने देना ज़रूरी है। इसके लिए शर्त वही है-ठहरी हुई मान्यताओं में तर्क की जुंबिश, फिर वह रफ़्तार पकड़ लेती है।इसके बावजूद, तब भी याद रखा जाना ज़रूरी है कि इस रफ़्तार का प्रारंभिक बिन्दु वह ठहरी हुई मान्यता ही थी। इसलिए, मनुष्य की ज़िंदगी से वह ठहरी हुई मान्यता कभी ख़त्म नहीं होती, ख़त्म होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि वह बताती है कि हमने कितनी दूरी तय कर ली है।

जब हम मान्यता की उस बिन्दु से आगे का सफ़र करते हैं, तो सामने अक्सर मान्यता को जकड़ने वाला सिस्टम खड़ा हो जाता है। सिस्टम कभी नहीं चाहता कि मान्यतायें बदले, क्योंकि उसके पास उस मान्यता की अपनी तरह से व्याख्या करने वाले लोग होते हैं, इसी के लिए उसके पास विशिष्ट मानव संसाधन होता है। समय के साथ कभी वह अमीर-उमरा हो जाता है, तो कभी वह ब्यूरोक्रेट के नाम से जाना जाने लगता है। मगर, इस मानव संसाधन का मक़सद सिस्टम को टिकाये रखने का होता है। ऐसा सिर्फ़ सरकारों में ही नहीं होता, बल्कि समाज से लेकर समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार तक में होता है और कई बार तो मनुष्य के भीतर ख़ुद ही होता है। इससे रोज़ लड़ने की ज़रूरत है।

फिर हम उसी हिन्दू और मुसलमानों के लिहाज से हो रही चर्चा पर आते हैं। इस लिहाज से पहले की सरकार और मौजूदा सरकार के बीच एक भेद है। पहले की सरकार मुसलमानों के पिछड़ेपन और उसकी कट्टरता पर लगातार मौन रही, और कभी-कभार हिन्दुओं की मान्यताओं के ख़िलाफ़ मुखर रही । मगर, मौजूदा सरकार मुसलमानों की मान्यताओं के ख़िलाफ़ मुखर होते-होते हिन्दुओं की बढ़ती कट्टरता पर मौन हो गयी है। दोनों सरकार के मौन के अपने-अपने सियासी मतलब हैं। अपनी ही तरह के सिस्टम को टिकाये रखने के लिए एक ने मुसलमानों को हथियार बना लिया था, दूसरे ने हिन्दुओं को हथियार बना लिया है। दोनों ही बातें उस विविधता के ख़िलाफ़ जाती हैं, जो लोकतंत्र के लिए एक ज़रूरी शर्त है।

विविधता पर जब ख़तरा पैदा होता है, तब डर पैदा होता है। डर पैदा होने पर सिर्फ़ सरकारी फ़ेवर की बातें होती हैं। ये तत्व राज्य सरकारों से लेकर स्थानीय सरकार और परिवार सरकार के चरित्र तक में पाये जाते हैं। या तो यह हमारा नागरिक चरित्र है, जो सरकारों के चरित्र का निर्माण करता है या फिर सरकारों का ही चरित्र है, जो हमारे नागरिक चरित्र का निर्माण कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह दोतरफ़ा गति है। नागरिक चरित्र से बनने वाले सरकारों के चरित्र के गठन की प्रक्रिया लम्बी होती है, जबकि सरकारों के चरित्र से बनने वाला नागरिक चरित्र बहुत छोटे से दरम्यान में बनता है। इसकी वजह है-सरकारों के पास प्रचुर संसाधनों का होना। सरकारें अपने इन्हीं संसाधनों के बूते एक स्वतंत्र मीडिया की गुंज़ाइश भी बनाती हैं और घुटने पर खड़ा हो जाने वाले मीडिया का भी निर्माण करती हैं।

पहली वाली स्थिति में काम करने वाला मीडिया सरकारों की कमियां सामने लाता है, बिना डरे नागरिकों के पक्ष में सूचनायें इकट्ठा करता है, उन सूचनाओं से नागरिकों को समृद्ध करता है, उसे शिक्षित-प्रशिक्षित करता है, समुदायों के बीच एक पुल का काम करते हुए समन्वय स्थापित करता है, और नागरिक के मनोरंजन के स्तर को  ऊपर उठाते हुए एक ज़िम्मेदार नागरिक समाज के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाता है। मीडिया के निष्पक्ष होने का असली मतलब नागरिक बोध के पक्ष में होना होता है। इस पक्षधरता को जिन सरकारी क़दमों से नुकसान पहुंचता है, उन सरकारी क़दमों के ख़िलाफ़ में होना होता है।

भारत का नागरिक समाज एकस्तरीय नहीं, बल्कि बहुस्तरीय है। यह नागरिक समाज जाति-प्रजाति, जनजाति, दलित-शोषित, अलग-अलग धर्म-मज़हब और समुदाय से बना है। ज़ाहिर है, इस बहुस्तरीय नागरिक समाज में सबकी स्वतंत्रता और समानता के मायने अब भी अलग-अलग हैं। यही वजह है कि सरकारों पर इस बात का दबाव बनाये रखना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि वह दलितों-शोषितों-अल्पसंख्यकों को विशिष्ट सुविधाओं से सुसज्जित करते हुए उन्हें उस आदर्श समानता-स्वतंत्रता के स्तर पर ले आये, जो सब नागरिकों के लिए बराबर के मायने रखते हों। इस कोशिश में मीडिया को निडरता और इस निडरता के साथ की जाने वाली आलोचना क्षमता से सशक्त होना बहुत ज़रूरी है।

हालांकि एक सप्ताह पहले आयी रिपोर्ट्स विदाउट बोर्डर द्वारा जारी मीडिया की स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर है। पहले के जारी सूचकांक से दो स्थान और नीचे। जब तक ये पोजिशन खिसकती रहेगी, हम बतौर नागरिक कम होते जायेंगे और सरकारों से हांके जाने वाली भीड़ में और बदलते जायेंगे। इस समय की सबसे बड़ी चुनौती इसी हंकाये जाने के ख़िलाफ़ कहने-बोलने और अडिग रहने की है, क्योंकि मीडिया की निष्पक्षता, उसके नागरिकों के पक्ष में बने रहने की है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)        

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