Friday, March 29, 2024

क्या बेगुनाहों को यूं ही चुपचाप ‘दफ्न’ हो जाना होगा!

‘‘कोई न कोई जरूर जोसेफ के बारे में झूठी सूचनाएं दे रहा होगा, वह जानता था कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है, लेकिन एक अलसुबह उसे गिरफ्तार किया गया।”
(‘Someone must have been telling lies about Joseph K, he knew he had done nothing wrong but one morning, he was arrested’)

यह शुरुआती पंक्तियां बहुचर्चित उपन्यासकार काफका के उपन्यास ‘द ट्रायल’ (The Trial) की हैं, जो लगभग एक सदी पहले 1925 में प्रकाशित हुआ था।

उपन्यास जोसेफ के इर्दगिर्द घूमता है, जो किसी बैंक में मुख्य कैशियर है, जिसे उसकी तीसवीं सालगिरह पर दो अनपहचाने लोगों द्वारा अचिन्हित अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाता है। उपन्यास उसकी उन तमाम कोशिशों पर केन्द्रित है, जिसमें वह उस पर लगे आरोपों का पता करने की कोशिश करता रहता है, जो कभी स्पष्ट नहीं होते, उपन्यास उसके उन बदहवास प्रयासों की बात करता है, जहां वह उन आरोपों से मुक्त होने की कोशिश करता है और उपन्यास का अंत उसके 31वें जन्मदिन से महज दो दिन पहले शहर के बाहर एक खदान के पास उसकी हत्या से होता है।

महान लेखक काफका को बीसवीं सदी के विश्व साहित्य की अज़ीम शख्सियत समझा जाता है। वह बहुत कम उम्र (1883-1924) में चल बसे। काफका चाहते थे कि उनकी तमाम पांडुलिपियां, जिसमें उनका यह अधूरा उपन्यास भी शामिल था, उनके मरने के बाद जला दी जाएं। यह अलग बात है कि उनके करीबी दोस्त मैक्स ब्रॉड, जिसे उन्होंने यह जिम्मा सौंपा था, उन्होंने उनके निर्देशों को नहीं माना और जिसका नतीजा था एक कालजयी किस्म की रचना जो असंवेदनशील और अमानवीय नौकरशाही तंत्र के सामने एक साधारण व्यक्ति के संघर्ष के बहाने उसको बेपर्दा करती है और नागरिक अधिकारों के व्यापक अभाव की स्थिति को रेखांकित करती है।

अगर हम अपने करीब देखें तो ऐसे तमाम लोग मिल सकते हैं जो इसी तरह व्यवस्था के निर्मम हाथों का शिकार हुए। मामूली अपराधों में न्याय पाने के लिए उनको लम्बे समय तक जेलों में सड़ते रहना या फर्जी आरोपों के चलते लोगों का अपनी जिंदगी के खूबसूरत सालों को जेल की सलाखों के पीछे दफना देना पड़ा।

पता नहीं लोगों को एक युवक आमिर का वह प्रसंग (सन् 2012) याद है कि नहीं, जिसे अपनी जिंदगी के 14 साल ऐसे नकली आरोपों के लिए जेल में गुजारने पड़े थे, जिसमें कहीं दूर-दूर तक उसकी संलिप्तता नहीं थी। उस पर आरोप लगाया गया था कि दिल्ली एवं आसपास के इलाकों में हुए 18 बम विस्फोटों में वह शामिल था। यह अलग बात है कि यह आरोप जब अदालत के सामने रखे गए तो एक-एक करके अभियोजन पक्ष के मामले खारिज होते गए और आमिर बेदाग रिहा हो गया।

यह अलग बात है कि इन चौदह सालों में उसके पिता का इंतक़ाल हो चुका था और मां की मानसिक हालत ऐसी नहीं थी कि वह बेटे की वापसी की खुशी को महसूस कर सकें। आमिर को जिस पीड़ादायी दौर से गुजरना पड़ा, जिस तरह संस्थागत भेदभाव का शिकार होना पड़ा, पुलिस की सांप्रदायिक लांछना को झेलना पड़ा, यह सब एक किताब में प्रकाशित भी हुआ है। ‘फ्रेमड एज ए टेररिस्ट’ (2016) शीर्षक से प्रकाशित इस किताब के लिए जानीमानी पत्रकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता नंदिता हक्सर ने काफी मेहनत की है।

कुछ दिन पहले डॉ. कफील खान की सात माह के बाद बेदाग रिहाई, दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि सरकारें किसी मासूम व्यक्ति के जीवन में कितना कहर बरपा कर सकती हैं। याद रहे कि उच्च अदालत के सख्त एवं संतुलित रवैये के बिना यह मुमकिन नहीं था, जिसने डॉ. कफील खान के खिलाफ खड़े इस केस को ही ‘अवैध’ बताया।

सरकारें जब एक खास किस्म के एजेंडे से भर जाती हैं और लोगों की शिकायतों के प्रति निर्विकार हो जाती हैं तो ऐसे ही नज़ारों से हम बार-बार रूबरू होते रहते हैं।

डॉ. कफील खान को रिहा हुए तीन सप्ताह से अधिक वक्त गुजर गया है, इसलिए किसी को यह चर्चा थोड़ी पुरानी लग सकती है, लेकिन फिर भी उनकी ‘अवैध’ गिरफतारी और उन्हें झेलनी पड़ी यातना की बात करना जरूरी है, क्योंकि ऐसा किस्सा किसी के साथ भी हो सकता है।

याद करें हमारी पुलिस एवं न्याय प्रणाली में डॉ. कफील खान का प्रसंग अपवाद नहीं है। उनका नाम कभी इफ्तिखार गिलानी भी हो सकता है, जिन्हें कभी ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट’ के तहत जेल में डाल दिया गया था और फिर बाइज्जत रिहा किया गया या उस स्थान पर छत्तीसगढ़ के किसी आदिवासी का नाम भी चस्पा हो सकता है, जिसे इसी तरह सालों साल जेल में गुजारने पड़े हों और फिर बिना किसी सबूत के अभाव के बरी कर दिया गया हो।

मालूम हो कि डॉ. कफील खान को उस भाषण के लिए गिरफ्तार किया गया था, जो उन्होंने दिसंबर माह में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने दिया था, जब सीएए के खिलाफ पूरे मुल्क में आंदोलन खड़ा हुआ था। इस भाषण के दो माह बाद पुलिस ने उन्हें ‘शांतिभंग’ के आरोप में बंद किया था। उपरोक्त व्याख्यान को जिसने भी सुना था, वह जानता था कि डॉ. कफील खान के भाषण के चुनिंदा हिस्सों के आधार पर ही उन्हें प्रताडित किया जा रहा है, क्योंकि उनका पूरा भाषण देश की एकता एवं अखंडता की रक्षा की बात करता था, अमन-चैन भाईचारा बनाए रखने की बात करता था। उच्च अदालत ने डॉ. कफील खान के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज करते हुए जो लिखा है वह पूरा पढ़ा जाना चाहिए।

अदालत ने कहा कि इस भाषण को पूरा सुनने के बाद कहीं से भी नहीं लगता कि वक्ता नफरत को बढ़ावा दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिला मैजिस्ट्रेट ने भाषण के मूल मकसद की उपेक्षा करके उसमें उल्लेखित चुनिंदा बातों पर ही गौर किया है।’’

सवाल यह उठता है कि आखिर इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाए कि आने वाले वक्त़ में किसी निरपराध को डॉ. कफील खान या आमिर जैसी स्थिति से गुजरना न पड़े, और क्या तरीका हो सकता है कि इन बेगुनाहों को झूठे आरोपों के इस बोझ के साय से, भले ही वह कानूनन मुक्त हो गए हों, कैसे मुक्ति दिलाई जा सकती है।

शायद सबसे आसान विकल्प है ऐसे लोगों को, जिनके साथ व्यवस्था ने ज्यादती की, आर्थिक मुआवजा देना, जैसा कि पिछले माह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने किया, जब उसने छत्तीसगढ़ सरकार को यह निर्देश दिया कि वह उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विदुषियों को मुआवजा प्रदान करे, जिन पर वर्ष 2016 में झूठी एफआईआर दर्ज की गई थी। मालूम हो कि अध्यापकों, कार्यकर्ताओं का वह दल, जिसमें प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, प्रो. अर्चना प्रसाद, कामरेड विनीत तिवारी, कामरेड संजय पराते आदि शामिल थे, मानवाधिकारों के हनन की घटनाओं की जांच करने वहां गया था।

मानवाधिकार आयोग ने कहा, ‘‘हमारी यह मुकम्मल राय है कि इन लोगों को इन झूठी एफआईआर के चलते निश्चित ही भारी मानसिक यातना से गुजरना पड़ा, जो उनके मानवाधिकार का उल्लंघन था और राज्य सरकार को उन्हें मुआवजा देना ही चाहिए।’’

क्या ऐसा मुआवजा वाकई उन सालों की भरपाई कर सकता है, उस व्यक्ति तथा उसके आत्मीयों को झेलनी पड़ी मानसिक पीड़ा का भुला सकता है, निश्चित ही नहीं!

मुआवजे की चर्चा चल रही है और बरबस एक तस्वीर मन की आंखों के सामने घूमती दिखी जो पिछले दिनों वायरल हुई थी। इस तस्वीर में एक अश्वेत व्यक्ति को बेंच पर बैठे दिखाया गया था, जिसकी बगल में कोई श्वेत आदमी बैठा है और उसे सांत्वना दे रहा है। ख़बर के मुताबिक श्वेत व्यक्ति ने उसके सामने एक खाली चेकबुक रखी थी और कहा था कि वह चाहे जितनी रकम इस पर लिख सकता है, मुआवजे के तौर पर।

अश्वेत आदमी का जवाब आश्चर्यचकित करने वाला था, ‘‘सर, क्या वह रक़म मेरी पत्नी और बच्चों को लौटा सकती है, जो भयानक गरीबी में गुजर गए, जिन दिनों मैं बिना किसी अपराध के जेल में सड़ रहा था।’’

ध्यान रहे कि गलत ढंग से फंसाए गए बेगुनाहों को मुआवजा देने की बात यहां कानून की किताबों में दर्ज नहीं हो सकी है।

याद करें कि तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने मानवाधिकार समूहों द्वारा निरंतर डाले गए दबाव के बाद वर्ष 2007 के मक्का मस्जिद बम धमाका केस में पकड़े गए 16 बेगुनाहों को मुआवजा देने का एलान किया था। मुआवजे का भुगतान इस बात की ताईद कर रहा था कि उन्हें गलत ढंग से फंसाया गया था।  (The Hindu, Masjid blast: Rs.3 lakh for acquitted, HYDERABAD:, JANUARY 05, 2012)

मुआवजा दिए जाने के डेढ़ साल के अंदर ही उच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और इस मुआवजे के आदेश को खारिज किया और कहा कि जिन लोगों को मुआवजा दिया गया है, उसकी वापसी करवाई जाए। अदालत का कहना था, ‘‘आपराधिक केस से दोषमुक्त हो जाना या बरी हो जाना, यह कोई आधार नहीं हो सकता मुआवजा प्रदान करने का।’’

https://www.firstpost.com/india/mecca-masjid-blast-hc-cancels-compensation-to-muslims-wrongly-arrested-1114203.html

दरअसल हम सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य फैसले (2014) को याद कर सकते हैं, जिसने मुआवजे की तमाम दलीलें इस वजह से सिरे से खारिज की थीं कि उसका कहना था कि इससे एक गलत नज़ीर कायम हो सकती है।

तय बात है कि ऐसी तमाम गैरकानूनी गिरफ्तारियों एवं यातनाओं से अगर छुटकारा पाना हो तो जनतंत्र के विभिन्न खंभे, वे तमाम संस्थागत प्रणालियां जिन्हें संविधान के निर्माताओं ने कायम किया है, जिसमें एक दूसरे के बीच संतुलन पाने की भी कोशिश है, वे सही ढंग से काम करती रहें, यही हो सकता है। अगर कार्यपालिका किसी के मानवाधिकार का उल्लंघन करती दिखती है तो न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है या विधायिका मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपने प्रभावों का इस्तेमाल कर सकती है।

यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह तमाम प्रणालियां आसानी से सुगम और पारदर्शी बनी रहें, ताकि भटकी बेगम जैसी कोई महिला को 19 साल से न्याय के इन्तज़ार में भटकते न रहना पड़े। मालूम हो कि मीडिया में कश्मीर के रफियाबाद के टागपोरा की सत्तर साल की उम्र की भटकी बेगम की ख़बर छपी है, जिसका 28 साल का बेटा मंजूर अहमद वानी सेना की हिरासत से ही (2001) लापता हो गया था। हाल में ही एक इखवानी, जो सरेंडर्ड मिलिटेंट होते हैं, जो उनके बेटे के अपहरण में शामिल था उसे इस अपराध के लिए दंडित किया गया है।

https://thewire.in/rights/kashmir-after-19-years-victory-for-mother-of-man-who-disappeared-in-army-custody

दरअसल, एक न एक दिन इस मुल्क की विधायिका को ऐसे तमाम अधिकारियों के बारे में, जो व्यक्तियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन में शामिल पाए जाते हैं, एक फैसला लेना ही होगा और यह तय करना होगा कि उन्हें अनुशासित करने के लिए वह क्या कदम उठाने वाली है। निश्चित ही यह एक चुनौती भरा काम है, जिसे अक्सर यह कहते हुए खारिज किया जाता है कि इससे पुलिस या नौकरशाही का मनोबल गिर जाएगा।

शायद वक्त़ आ गया है कि हम संविधान की धारा 21 के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का नए सिरे से इजहार करें जो इस बात को रेखांकित करती है कि ‘कानून द्वारा सम्मत प्रक्रिया के अपवाद को छोड़ कर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन से या उसकी निजी आज़ादी से वंचित नहीं किया जाएगा’।

क्या इस मुल्क के कर्णधार इसके लिए तैयार हैं?

(सुभाष गाताडे लेखक-चिंतक और स्तंभकार हैं आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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