Wednesday, April 24, 2024

शाहीन बाग से शुरू हुआ पढ़ने-पढ़ाने का भी आंदोलन

शाहीन बाग़ में किताबों का जो एक पौधा रोपा गया था, वो पेड़ की शक़्ल अख़्तियार कर रहा है। उसकी एक जड़ हौज़ रानी के गांधी पार्क में फूटी है, जैसे कि शाहीन बाग़ के आंदोलन की जड़ें यहां-वहां फूट रही हैं। आंदोलन का क्या हश्र होगा, कौन जानता है पर यह तय है कि शाहीन बाग़ दुनिया भर के डेमोक्रेसी रिसर्चर्स के पन्नों में जगह पाता रहेगा। उन पन्नों में फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी का नाम भी शानदार ढंग से दर्ज रहने वाला है।

फ़ातिमा शेख़ और सावित्री बाई फुले। हमारी दो महान पुरखिनें। हेजेमनी के संघर्ष में जितनी उपेक्षित की गईं, उतनी ही चमकती भी रहीं। फुले दंपती (जोति बा और सावित्री बाई) उसी दौर में थे, जिस दौर में विवेकानंद और दयानंद भी थे। दोनों हिन्दू संन्यासियों से इस मामले में भिन्न कि पुनरुत्थानवादियों और कट्टरवादी ताक़तों के लिए कहीं कोई नरम कोना नहीं। ब्राह्मणवाद से संघर्ष में और स्त्रियों, किसानों, शूद्रों, वंचित तबकों के अधिकारों, सांप्रदायिक सद्भाव और नवजागरण के मूल्यों के लिए निरंतर काम करने में फुले दंपती का शायद ही कोई सानी हो।

कुछ बरस पहले सोशल मीडिया पर सावित्री बाई फुले के साथ फ़ातिमा शेख़ का एक फोटो वायरल होना शुरू हुआ। इस बात पर हैरानी भी जताई गई कि स्त्रियों की शिक्षा के अभियान में सावित्री बाई फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहीं फ़ातिमा का नाम बहुजन समाज के नायक-नायिकाओं को सामने लाने के सिलसिले में भी क्यों उपेक्षित रहा।

तब पत्रकार दिलीप मंडल ने फ़ातिमा शेख़ को सामने न लाने का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ दिया था तो उनकी आलोचना भी हुई थी। एक काफी सजग लेखिका-अध्यापिका ने भी सावित्री बाई फुले के नाम के साथ फ़ातिमा शेख़ का नाम जोड़कर सवाल उठाए जाने पर काफ़ी निराशाजनक पोस्ट लिख डाली थी। आपको हैरानी हो सकती है कि शाहीन बाग़ बिना उत्तेजित हुए और बिना कोई दावा किए ऐसी तमाम भूल-ग़लतियों से आगे जाकर मिसाल पेश कर रहा है।

वहां आंदोलन के पोस्टरों-बैनरों में सावित्री बाई फुले और फ़ातिमा शेख़ बेहद प्रमुखता से साथ-साथ हैं। वहां आम्बेडकर हैं, गांधी हैं, मौलाना आज़ाद हैं, रोहित वेमुला हैं और ऐसे उपेक्षित नायक-नायिकाएं हैं जिन्हें सवर्ण वर्चस्व न छुपा लिया था। हिंदी पट्टी में आम जन के बीच इतने बड़े पैमाने पर इन नायक-नायिकाओं का इस तरह का वर्चस्व एक बड़ी और ऐतिहासिक चीज़ है।

यह अकारण नहीं है कि वैचारिक रूप से जागरूक युवाओं ने शाहीन बाग़ के आंदोलन स्थल पर लाइब्रेरी की शुरुआत की तो उसका नाम फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी रखा। लाइब्रेरी से जुड़े मो. आसिफ़ कहते हैं कि शाहीन बाग़ आंदोलन मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा संचालित आंदोलन है। यह घर के भीतर और घर के बाहर उनकी मोबिलिटी, दावेदारी, चेतना और उनके सामर्थ्य से भी जुड़ा है। ऐसे में, इस लाइब्रेरी को महिलाओं को शिक्षित और जागरूरक करने के लिए भयंकर तकलीफ़ों का सामना करने वाली देश की दो प्रथम शिक्षिकाओं के नाम पर शुरू करने से बेहतर क्या हो सकता था? 

इतिहास के अध्येता मो. आसिफ़ कहते हैं कि जनता के नायक-नायिकाएं तस्वीरों और प्रतीकों के रूप में सामने हैं। लाइब्रेरी लोगों को उनके विचारों और उनके कामों को गहराई से जानने का मौक़ा भी दे रही है। जिस संख्या में लोग किताबों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और इतने मुश्किल वक़्त में भी धैर्य के साथ पढ़ने के लिए वक़्त दे रहे हें, उससे हमारा उत्साह बढ़ा है। इसीलिए, हौज़ रानी के गांधी पार्क में चल रहे धरने में भी फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी शुरू कर दी गई है। हमारी इच्छा दिल्ली में जहां-जहां भी धरने चल रहे हैं, वहां-वहां लाइब्रेरी शुरू करने की है।

फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी चला रहे युवा जानते हैं कि किताबें पढ़ना-पढ़ाना प्रतिरोध का हिस्सा है। प्रतिरोध का अहिंसक, रचनात्मक और अनूठा तरीक़ा। आसिफ़ कहते हैं, सत्ताधारी वर्ग हमेशा ही आम लोगों को ग़ुलाम बनाए रखने के लिए शिक्षा से वंचित रखने का षड़यंत्र करता आया है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान नवजागरण का जो झोंका आया, वह वंचित तबकों के लिए शिक्षा के अधिकार के संघर्षों को भी लेकर आया था। फिलहाल पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के सर्वग्रासी सिद्धांतों पर चल रही देश की सत्ता आम लोगों के पढ़ने के रास्ते बंद करने पर आमादा है।

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के सर्वसुलभ रास्ते बंद कर महंगी प्राइवेट संस्थाओं को पोसने वाली नई शिक्षा नीति इसीलिए लाई गई है। एक जनांदोलन के बीच एक सार्वजनिक पुस्तकालय की उपस्थिति सभी के लिए मुफ़्त और बेहतर शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत के महत्व को भी दिखाती है। ऐसी शिक्षा कि जो इंसानी मूल्यों को आगे बढ़ाती है, जो व्यवस्था के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक आवाज़ों को पुख़्ता करती हो, जो सवाल करना सिखाती हो। लाइब्रेरी की शुरुआत 17 जनवरी को किए जाने का भी एक अर्थ है। यह दिन उन रोहित वेमुला की शहादत से जुड़ा है, जिन्हें अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की वजह से ही जान देने पर मज़बूर कर दिया गया था।

फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी के वॉलेंटियर पढ़े-लिखे जागरूक युवा हैं। सत्यप्रकाश जामिया से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएट हैं तो समीन रज़ा इग्नू से हिस्ट्री में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। हर्षित, आदित्य, सूफ़ियान, नूर आलम, अख़लाक़ वगैराह किसी भी युवक से बात कीजिए, वह प्रग्रेसिव जगह से बात करता मिलेगा। कई बार उस बातचीत की पहल करते हुए जिन्हें लेकर आप सवाल करने से भी बचना चाहते हैं।

मसलन, औरतों की आज़ादी को लेकर बुर्कानशीं महिलाओं को सवालों के घेरे में लेने वाले बयानों पर आसिफ़ कहते हैं कि पितृ सत्ता कोई एक दिन की चीज़ नहीं है। अपने परिवारों के अस्तित्व पर संकट के माहौल में औरतें घर से बाहर निकली हैं। इस तरह बाहर आकर किसी आंदोलन में शामिल होने का मौक़ा उन्हें पहली बार हाथ लगा होगा। बहुतों को इस तरह बाहर आने का भी। आप देखिए कि आंदोलन में बुर्कानशीं बीवियां भी हैं और बिना बुर्के वालीं भी।

देखने की बात यह है कि आंदोलन के बीच कंटेंट क्या हैं? आप देखेंगे कि मंच से किस तरह महिलाएं और युवतियां कार्यक्रम दे रही हैं, भाषण कर रही हैं, नाटक खेल रही हैं, कैसी-कैसी इंटलेक्चुअल हस्तियां अपनी बात रख रही हैं। आप क्या सोचते हैं कि यह औरतों के दिल-दिमाग़ को मथ नहीं रहा होगा? जो यह सुन रही हैं और जो बाहर आ रही हैं, वे आंदोलन ख़त्म हो जाए तो भी इसके असर से छुटकारा नहीं पाएंगी। उनका बाहर निकलना, खुले ख़्यालात की चाह के लिए संघर्ष करना, लड़कियों को बेहतर ढंग से समझना और उनके स्पेस की दावेदारी को अहमियत देना उनकी ज़िंदगी में दख़ल देगा।

सीएए, एनपीआर, एनआरसी को लेकर चल रहे आंदोलन की ख़ास बात यही है कि वह इंसान की आज़ादी के व्यापक सवालों को अपने घेरे में ले रहा है। अगर कोई सार्थक ढंग से देखने की क़ूव्वत रखता है तो वह इस आंदोलन में देश की आज़ादी की लड़ाई की झलक देख सकता है जब राष्ट्रीय आंदोलन के बीच प्रग्रेसिव नज़रिए से महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों के सवालों को लेकर जद्दोजहद खड़ी हो रही थी।

भले ही पिछड़ी और पुनरुत्थानवादी ताक़तें भी बाधाएं पैदा करने में पीछे नहीं थीं। फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी के पास खड़े होकर आप देख सकते हैं कि एक तरफ़ आंदोलन पर हिंसा के इस्तेमाल की आशंका लोगों को बेचैन किए हुए है और दूसरी तरफ़ लड़के-लड़कियां, स्त्री-पुरुष, बूढ़े किताबों को निहारते हैं, कोई एक किताब चुनते हैं और कोई अकेला तो बाज़ जन मिल-जुलकर पढ़ने लगते हैं। उन्हें संविधान की ज़रूरत महसूस हो रही है।

संविधान की किताब को बूढ़े लोग उलटते-पलटते हैं और किसी उम्मीद में पढ़ने लगते हैं। आंबेडकर, जवाहर लाल, गांधी की किताबें तो हर कोई पढ़ रहा है। प्रेमचंद वगैरह की भी। बहुत सी शख़्सियत तो पोस्टर के जरिये ही सही पहली बार आपके सामने आती हैं। नॉर्थ ईस्ट के ऐसे कई हीरोज़ की तस्वीरें लाइब्रेरी में टंगी हुई हैं।

फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी में पढ़ते लोगों को देखकर चिंता होने लगती है कि उन्हें यह मौक़ा जाने कब तक नसीब होगा। आंदोलन तो ख़त्म होना ही चाहिए। लेकिन, यह इंसाफ़ के रास्ते से होगा या दमन कर दिया जाएगा? क्या होगा, इन किताबों का क्या होगा, इन किताबों से पैदा हो रही उम्मीद का क्या होगा? आसिफ़ के लिए भी सवाल है, आपको डर नहीं लगता कि क्या होगा? आसिफ़ हंसते हैं, अंजाम को अंदाज़ा हो तो डर ख़त्म हो जाता है।

अंजाम यह होगा कि पढ़ने से लोगों की समझ बढ़ेगी। वे अपनी बेहतरी के लिए बेहतर सवाल करना सीखेंगे, बेहतर रास्ते चुनना। आसिफ़ कहते हैं पर उन्हें टोक देता हूं, हां वो तो है पर दमन हुआ तो लाइब्रेरी का क्या होगा? आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से ख़त्म हुआ तो भी? आसिफ़ कहते हैं कि फ़िलहाल, वे हर धरना स्थल पर लाइब्रेरी शुरू करने के बारे में सोच रहे हैं। धरने के तौर पर आंदोलन भले न रहे पर फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी के तौर पर बना रहेगा।

शाहीन बाग़ दुनिया भर के लिए अध्ययन की चीज़ बना रहेगा। कोशिश होगी कि इस इलाक़े में फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी स्थायी तौर पर स्थापित हो। महज़ लाइब्रेरी के रूप में ही नहीं, इस आंदोलन के तथ्यों के संग्रह के रूप में, इसके विभिन्न पहलुओं के दस्तावेज़ों के रूप में, प्रमाणिक स्मृतियों के रूप में जहां पाठक भी आते रहें और रिसर्चर्स भी।

और आसिफ़ टोकते हैं, लोगों से फ़ातिमा शेख़-सावित्री बाई लाइब्रेरी के लिए किताबें डोनेट करने की अपील करना मत भूलिएगा।

(जनचौक के रोविंग एडिटर धीरेश सैनी की रिपोर्ट।)

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