Friday, March 29, 2024

देश की फ़िज़ा से आज भी यह आवाज़ आती है कि ‘डरो मत’

पारंपरिक परिवार, रूढ़िवादी समाज से लेकर देश-दुनिया की तमाम हुक़ूमतें, सत्ता की तरफ़ से पैदा किए गए डर के ज़रिए चलायी जाती हैं। रामचरित मानस के महाकवि तुलसी दास ने भी सामान्य मनोविज्ञान को एक विशेष परिघटना के दौरान बताया है कि भय बिन होत न प्रीत। लेकिन, तुलसी के नायक राम के विपरीत छोटे-बड़े तमाम मक़सद के लिए सत्य से तपकर और अहिंसा अपनाकर स्वयं को कठोर पीड़ा से गुज़ारते हुए हुक़ूमतों की चूलें भी हिलायी जा सकती हैं, हुक़ूमतों को अनशन से भी कंपाया जा सकता है, उन्हें अपनी निडरता से घुटनों के बल खड़ा किया जा सकता है।

हिंसा और असत्य के ज़रिए मुट्ठी भर लोगों को प्राण गंवाने के लिए प्रेरित ज़रूर किया जा सकता है, लेकिन मास मूवमेंट और स्थायी बदलाव के लिए हिंसा और झूठ से कहीं ज़्यादा कारगर वे अहिंसा और सच हो सकते हैं, जिसे ईसा, बुद्ध और मार्क्स ने भी अपनाया है।

गांधी ने इसी सत्य और अहिंसा को ताक़त बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में पूरे देश को शामिल कर लिया था। लोगों के मन से इस क़दर भय निकाल दिया था कि उस वक़्त कमज़ोर माने जाने वाली आम महिलायें भी घर से निकलकर अंग्रेज़ों की लाठियों का सामना करना सीख लिया था। इसके लिए तीन कठिया के विरोध में चंपारण आंदोलन में गिरफ़्तार किये गये गांधी के उस वक्तव्य को बार-बार याद करने की ज़रूरत है, जिसे उन्होंने ज़िला मजिस्ट्रेट के सामने दिया था।

क्या था तीन कठिया प्रथा

आइये, सबसे पहले जान लेते हैं कि वह तीन कठिया प्रथा क्या थी, जिसके विरोध में गांधी का महात्मा बनने का सफ़र शुरू हुआ था। दरअसल तीन कठिया कोई क़ानून नहीं था, बल्कि फ़ैक्ट्री मालिकों ने अपने मुनाफ़े के लिए बतौर एक प्रचलन तैयार कर लिया था। इसके तहत किसानों को अपनी ज़मीन के प्रति बीघे, यानी 20 कट्ठे में से तीन कट्ठे में नील की खेती करने की बाध्यता थी। यह कोई क़ानूनी बाध्यता नहीं थी, बल्कि नील फ़ैक्टरी के मालिकों की इच्छा का परिणाम था।

इसके अलावे, सन् 1900 के बाद नील की फ़सल का सामना यूरोप के कृत्रिम नील से होने लगा था। इस वजह से बिहार की नील फ़ैक्टरियां नुक़सान में आने लगी थीं। इसी नुक़सान से बचने के लिए फ़ैक्ट्री मालिकों ने नील पैदा करने वाले किसानों के साथ अपने समझौतों को रद्द करना शुरू कर दिया। मगर, यह मुक्ति भी आसान नहीं थी। इस मुक्ति के लिए फ़ैक्ट्री मालिक किसानों से एक तावान, यानी हर्जाना वसूला करते थे। यह हर्ज़ाना 100 रूपये प्रति बीघा तक होता था। नक़द भुगतान नहीं कर पाने की हालत में हर साल 12 फ़ीसदी की ब्याज दर पर उन्हें हस्तांक-पत्र और बंधक ऋण पत्र थमा दिये जाते थे।

गांधी और राजकुमार शुक्ल

तीन कठिया प्रथा को लेकर नील उगाने वाले किसानों के दो विद्रोह पहले भी हो चुके थे। मगर, इस बेरहम प्रथा के बारे में चंपारण के बाहर किसी को ज़्यादा कुछ पता नहीं था। गांधी जी ने ख़ुद ही कहा था- “मुझे यह क़ुबूल करना चाहिए कि मैं चंपारण का नाम भी नहीं जानता था, मुझे इसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी, और मैं शायद ही नील की खेती के बारे में जानता था”। गांधी जी तक यह जानकारी एक समृद्ध किसान राजकुमार शुक्ल ने पहुंचायी थी।

राजकुमार शुक्ल चंपारण के किसानों की इस बदहाली से परेशान थे। इस परेशानी का हल उन्हें महात्मा गांधी में दिख रहा था। वह गांधीजी को चंपारण आने और उत्पीड़ित किसानों के साथ खड़े होने के लिए राज़ी करना चाहते थे। शुक्ल ने पट्टेदारों के लिए मुकदमा लड़ने वाले एक जाने-माने वकील ब्रजकिशोर प्रसाद को साथ लिया और 1916 में लखनऊ में चल रही कांग्रेस की वार्षिक बैठक में गांधीजी से मिले।

लेकिन, गांधीजी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया और उन्होंने इन दोनों को साफ़-साफ़ बता दिया कि जब तक वह ख़ुद ही स्थिति का जायज़ा नहीं ले लेंगे, तबतक कुछ नहीं कर पायेंगे। गांधीजी ने अपनी सहमति के बिना ही कांग्रेस के उस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कराने के लिए कहा। ब्रजकिशोर प्रसाद ने चंपारण में किसानों की इस मुसीबत को लेकर प्रस्ताव रख दिया। शुक्ल ने इसका समर्थन करते हुए भाषण दिया।यह प्रस्ताव आख़िरकार सर्वसम्मति से पारित हो गया।

गांधी और ऐतिहासिक मुकदमा

चंपारण के किसानों के उत्पीड़न को समझने के लिए महात्मा गांधी 15 अप्रैल, सन् 1917 को चंपारण के ज़िला मुख्यालय मोतिहारी पहुंचे। उन्होंने सबसे पहले उस जसौली गांव का दौरा करने का फ़ैसला किया, जहां एक पट्टेदार के साथ दुर्व्यवहार की घटना हुई थी। लेकिन, गांव के रास्ते में ही एक सब-इंस्पेक्टर ने आकर उन्हें बताया कि धारा 144 के तहत एक फ़रमान जारी किया गया है और उसने गांधी से चंपारण छोड़ देने और ज़िला मजिस्ट्रेट से मिलने का अनुरोध किया।

गांधीजी बीच रास्ते से तो लौट आये। लेकिन, नोटिस का अनुपालन करने से उन्होंने इंकार कर दिया। उन्होंने मजिस्ट्रेट को लिखा कि वह चंपारण से हरगिज नहीं जायेंगे और इस नाफ़रमानी की सज़ा जो भी हो, उसे भुगतने के लिए तैयार हैं।

गांधीजी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत आरोप लगाये गये। अदालत के सामने किसानों की भारी भीड़ जमा थी। सरकारी वकील ने गांधीजी के ख़िलाफ़ मामला पेश किया। गांधीजी ने अपना बयान ख़ुद पढ़कर सुनाया। इस बयान में उन्होंने कहा कि उनका इरादा आंदोलन शुरू करने का बिल्कुल नहीं है।

उन्होंने अपने मक़सद को सामने रखते हुए कहा कि वह सिर्फ़ उत्पीड़ित किसानों की मानवीय और राष्ट्रीय सेवा करना चाहते हैं, जिसे वह आधिकारिक सहायता के साथ आगे बढ़ाने की इच्छा रखते हैं। उन्होंने अपने बचाव में कोई दलील तक पेश नहीं की। उन्होंने कहा कि उन्हें जेल जाने से कोई गुरेज नहीं है। वह जेल जाना चाहते हैं।

निडरता, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह

गांधीजी की इस इच्छा से अफ़सरों के भीतर हड़कंप मच गया। लिहाज़ा, सज़ा सुनाने की प्रक्रिया को ही रोक दिया गया। डिप्टी गवर्नर ने गांधीजी के ख़िलाफ़ अपर्याप्त साक्ष्य और धारा 144 लागू करने की संदिग्ध वैधता की आड़ में स्थानीय प्रशासन को यह मामला वापस लेने का फ़रमान दे दिया। इतना ही नहीं गांधीजी को जांच करने की इजाज़त भी दे दी गयी।

इस तरह, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को आज़ादी हासिल करने के दौरान जिन दो नये और नायाब तत्वों का साथ मिला, वे थे- सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह। आज भी गांधी के दिए ये दोनों तत्व हुक़ूमत के सामने निडर होने का आह्वान करते हैं।

बयानों के बरक्स तिलक और गांधी

मैंने आपका क़ानून तोड़ा है, क्योंकि वह क़ानून बुरा है। मैं हर बुरे क़ानून के ख़िलाफ़ हूं। आपका क़ानून इस बात के लिए आज़ाद है कि आप मुझे गिरफ़्तार करें और क़ानून के हिसाब से सज़ा दे। ज़रूरत पड़ी तो, आपके हर एक बुरे क़ानून को फिर तोड़ूंगा।

गांधी का यह बयान बाल गंगाधर तिलक के उस बयान से बिल्कुल उलट था, जिसमें तिलक ने 1898 के रैंड हत्याकांड के सिलसिले में अपने ऊपर चले केस में अपने अख़बार केसरी में शिवाजी और अफ़ज़ल कांड के उद्धृत किये जाने की सोच से पलटते हुए कहा था कि चापेकर बंधुओं ने जिस हत्याकांड को अंजाम दिया है, उसके लिए मेरे ऊपर उकसाने का आरोप सरासर ग़लत है।

गिरफ़्तारी और जेल जाने से बचने के लिए तिलक ने अपनी दलीलें पेश की थीं, लेकिन गांधी जेल जाने को राज़ी थे और ज़रूरत पड़ने पर फिर से बुरे क़ानून को तोड़ने पर उतारू थे।

रैंड हत्याकांड में तिलक पर चले केस और चंपारण आंदोलन में क़ानून तोड़ने को लेकर गांधी पर चले केसों में दोनों ही आंदोलनकारियों की दलीलें दरअसल राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में बदलाव के भी प्रतीक हैं। गांधी के इसी बेख़ौफ़ सच का असर था कि देश में निडरता का एक माहौल तैयार हुआ और बाद में तो राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारी आंदोलन तक का एक सिलसिला ही चल पड़ा।

सुभाषचंद्र बोस ने ऐसे ही नहीं महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह दिया था। टैगोर ने उन्हें महात्मा ऐसे ही क़रार नहीं दिया था। गांधी की इन दोनों से कई मायनों में घोर असहमतियां थीं। मगर, दोनों ही इस बात से सहमत थे कि राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतंत्रता के मुहाने तक खींच लाने में गांधी ही वह समंदर थे, जिनमें हिंसा-अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाले आंदोलनों के बेशुमार ताल-तलैया और दरिया आकर मिल जाते थे।

पत्रकारिता,सच और गांधी की निडरता

“यंग इंडिया” एक साप्ताहिक समाचार पत्र था। मोहनदास करमचंद गांधी इसके संपादक थे और महादेव हरिभाई देसाई प्रकाशक थे। इस अख़बार में अहमदाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बीसी कैनेडी की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखी गयी एक चिट्ठी और उस पर टिप्पणी प्रकाशित कर दी गयी थी।

मजिस्ट्रेट कैनेडी ने वह चिट्ठी अहमदाबाद कोर्ट के उन वकीलों को लेकर लिखी थी, जिन्होंने “सत्याग्रह प्रतिज्ञा” पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। इसके ख़िलाफ़ गांधीजी और महादेव देसाई पर अवमानना का मुकदमा शुरू किया गया । यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक “O’Dwyerism in Ahmedabad” के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक “Shaking Civil Resistors” था।

इस घटना के तक़रीबन दो महीने बाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल की ओर से गांधी को एक चिट्ठी मिली। उस चिट्ठी में गांधीजी से 20 अक्टूबर, 1919 को चीफ़ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होकर अख़बार के प्रकाशन और उस पर की गयी टिप्पणियों को लेकर अपनी सफ़ाई पेश करने को कहा गया था। गांधीजी ने बिना देर किये तार भेजकर रजिस्ट्रार जनरल को सूचित कर दिया कि वह पंजाब जा रहे हैं और यह पूछते हुए लिखा कि क्या लिखित सफ़ाई पर्याप्त होगी। रजिस्ट्रार जनरल अपने जवाब में कहा कि चीफ़ जस्टिस को लिखित जवाब से कोई परहेज़ नहीं है।

गांधी ने अपनी उस सफ़ाई में कहा था कि उन्होंने अपने अधिकारों के तहत ही उक्त चिट्ठी को प्रकाशित किया है और उसी अधिकारी के तहत उस पर टिप्पणी भी की है और उस चिट्ठी को पाने के लिए उन्हें किसी तरह की कोई गंभीर कोशिश नहीं करनी पड़ी थी। ऊपर से वह चिट्ठी निजी भी नहीं थी। उन्होंने लिखा था, “मेरी विनम्र राय यही है कि बतौर पत्रकार उक्त चिट्ठी को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा यक़ीन था कि वह चिट्ठी सार्वजनिक महत्व की है और उस पर सार्वजनिक आलोचना स्वाभाविक है।”

इसका जवाब देते हुए रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी को लिखा कि चीफ़ जस्टिस उनकी इस सफ़ाई से संतुष्ट नहीं हैं। रजिस्ट्रार जनरल ने ‘क्षमा-पत्र’ का एक प्रारूप दिया और उसे ‘यंग इंडिया’ के अगले अंक में प्रकाशित करने का आदेश दिया। गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को लिखी अगली चिट्ठी में उस ‘माफ़ीनामे’ को प्रकाशित करने से इनकार कर दिया।

उन्होंने लिखा, “माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस सज़ा को भुगतना चाहूंगा, जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।” इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। दोनों अदालत के सामने पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने ज़िला जज पर जो टिप्पणी की थी, वह बतौर जज नहीं, बल्‍कि बतौर एक व्यक्ति की थी।

अपने बयान में गांधी ने अपने ख़िलाफ़ जारी किये गये अदालत के आदेश के सिलसिले में कहा था- आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है। 11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं, क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उनके विषय में टिप्पणी करके कोई क़ानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है।

मुझे यक़ीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफ़ी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्‍ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करती हो, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है। मैं इसलिए हर्ष और सम्मान के साथ उस सज़ा को क़ुबूल करूंगा कि जिसे माननीय न्यायालय कानून की महिमा के पु‌ष्टि के लिए मुझ पर लगाकर खुश होगा। मैं श्री महादेव देसाई को प्रकाशक के रूप में दिए गए नोटिस के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि उन्होंने इसे केवल मेरे अनुरोध और सलाह पर प्रकाशित किया था।”

वहीं महादेव देसाई का बयान था- “अदालती आदेश के संदर्भ में मैं यह बताने की विनती करता हूं कि मैंने यंग इंडिया के संपादक द्वारा दिए गए बयान को पढ़ा है और खुद को उनकी ओर से दिये गये तर्क और उनकी कार्रवाई के औचित्य से संबद्ध किया है। इसलिए मैं सम्मानपूर्वक किसी भी दंड का पालन करूंगा कि, ‌जिसे माननीय अदालत मुझे देने की कृपा करेगी।”

जस्टिस मार्टन, हेवार्ड, काजीजी की तीन जजों की पीठ ने अवमानना मामले का फ़ैसला किया। जस्टिस मार्टन ने पत्र के प्रकाशन को अवमानना क़रार दिया। उन्होंने कहा कि “एक पत्रकार की वैध स्वतंत्रता के रूप में उत्तरदाताओं के मन में कुछ अजीब गलत धारणाएं हैं।” जज ने कहा, “हमारे पास बड़ी शक्तियां हैं और उचित मामलों में अपराधी को ऐसी अवधि के लिए जेल में डाल सकते हैं जैसा कि हम उचित समझते हैं और ऐसी राशि का जुर्माना लगा सकते हैं जैसा कि हम सही मानते हैं।

उन्होंने आगे कहा कि लेकिन, जिस तरह हमारी शक्तियां बड़ी हैं, मुझे लगता है कि, उन्हें विवेक और संयम के साथ उपयोग करें, यह याद रखना है कि हमारा एकमात्र उद्देश्य सार्वजनिक लाभ के लिए न्याय के उचित प्रशासन को लागू करना है। वर्तमान मामले में, न्यायालय ने बहुत गंभीरता से विचार किया है कि क्या उत्तरदाताओं में से एक पर, यदि दोनों पर नहीं, पर्याप्त जुर्माना नहीं लगाना चाहिए। हालांकि मुझे लगता है कि न्यायालय के लिए कानून को उन शब्दों में बताना पर्याप्त होगा, जिससे मुझे उम्मीद है कि भविष्य में संदेह के लिए कोई जगह नहीं होगी, और उत्तरदाताओं को गंभीर रूप से फटकार लगाने और भविष्य के आचरण के संदर्भ में सावधानी बरतने तक आदेश को सीमित रखना चाहिए।”

अन्य जजों ने जस्टिस मार्टन की जांच और निष्कर्ष के साथ सहमति व्यक्त की। जस्टिस हेवार्ड ने लिखा, “उन्होंने औपचारिक रूप से माफी मांगने में असमर्थता व्यक्त की है, हालांकि, उन्होंने किसी भी सज़ा के लिए खुद को पेश करने की अपनी तत्परता का प्रदर्शन किया है। यह संभव है कि संपादक, प्रतिवादी गांधी को एहसास नहीं था कि वह क़ानून तोड़ रहे हैं और यदि ऐसा था, तो यह प्रकाशक, देसाई ने महसूस नहीं किया।

उत्तरदाताओं ने ख़ुद को क़ानून तोड़ने वाले के रूप में नहीं, बल्कि क़ानून के निष्क्रिय प्रतिरोधी के रूप में पेश किया है। इसलिए, यह पर्याप्त होगा कि मेरी राय में इन मामलों में…उनकी कार्यवाही के लिए उन्हें कड़ी फटकार लगायी जाये। संक्षेप में, हाईकोर्ट ने आरोपों को प्रमाणित पाया था, फिर भी गांधी और देसाई को कड़ी फटकार लगाते हुए अवमानना के उस मामले को बंद करने का फ़ैसला किया और दोनों को उनके भविष्य के आचरण के प्रति आग़ाह करके छोड़ दिया गया।

निजी और सार्वजनिक मामले की यह लकीर आज हुक़ूमत ने इतनी पतली कर दी है कि क़ानून की ज़द में किसी को भी लाया जा सकता है। ऐसे में गांधी का जीवन और उनका दर्शन संपूर्ण समाज और राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक साबित हो सकते हैं, जिनके मूल में है- बड़ी से बड़ी ताक़त के सामने सच के साथ अडिग रहना, अहिंसा के बूते उनका मुक़ाबला करना और हुक़ूमत के दिखाये जाने वाले डर से इन्कार कर देना।

30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या कर दी गयी। इस समाचार से पूरा देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भी स्तब्ध रह गयी थी, क्योंकि जिसने सत्य और अहिंसा के पैग़ाम को ख़ुद जिया था, वह ख़ुद झूठ और अहिंसा का शिकार हो गया था। माउण्टबेटन ने तब अपने शोक संदेश में कहा था कि इतिहास बतायेगा कि एक दिन महात्मा गांधी की जगह वही होगी, जो ईसा और बुद्ध को हासिल है।

(उपेंद्र चौधरी स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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