Saturday, April 20, 2024

केंद्र ने समाप्त कर दी अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति

केंद्र की ओर से अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थियों को अभी तक कक्षा 1 से लेकर कक्षा 8 तक दी जाने वाली छात्रवृत्ति को बंद कर दिया गया है। इस विषय पर नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल में एक नोटिस के जरिये बताया गया है कि सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता एवं आदिवासी मामलों के मंत्रालय के दिशानिर्देश पर प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप को खत्म कर इसे अब सिर्फ 9वीं और 10वीं के विद्यार्थियों के लिए बरकरार रखा गया है। 

इसे खत्म करने के लिए आधार बनाया गया है शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 को, जिसके तहत देश में सरकार के द्वारा प्रत्येक बच्चे को कक्षा 1 से लेकर कक्षा 8 तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान पहले से लागू है। नोटिस को सभी संस्थानों के नोडल अधिकारी, जिला नोडल अधिकारी और राज्य के नोडल अधिकारियों को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के तहत प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए सिर्फ कक्षा 9 और 10 के विद्यार्थियों के आवेदनों पर ही विचार करने के लिए दिशानिर्देश जारी किये गये हैं।

इस खबर को आये 4 दिन बीत चुके हैं, और छिटपुट प्रतिक्रियाओं के सिवाय इस मुद्दे पर कोई ठोस विरोध देखने को नहीं मिला है। यही वजह है कि इसको लेकर गुजरात चुनावों में कोई प्रतिक्रिया नहीं सुनने को मिली, और बिना किसी शोर-शराबे के राजनीतिक पार्टियों की आपसी छींटाकशी के सहारे ही पहला चरण गुजर गया है। 

गौरतलब है कि वर्तमान में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का कार्यभार स्मृति ईरानी के पास है। इससे पहले यह मंत्रालय सितंबर 2017 से मुख्तार अब्बास नकवी के पास था, जिन्हें राज्य सभा के लिए दोबारा निर्वाचित नहीं किया गया और नतीजतन उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इससे पूर्व नजमा हेपतुल्ला यह मंत्रालय संभाल रही थीं।

इसी वर्ष मार्च में संसद में तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी ने बताया था कि 2014-15 से पूर्व जहाँ कुल 3.03 करोड़ छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी, उसकी तुलना इसके बाद की अवधि में यह संख्या बढ़कर 5.20 करोड़ तक पहुँच गई थी। इसको लेकर भाजपा समर्थकों के धुर-दक्षिणपंथी धड़े में काफी बेचैनी देखने को मिली थी, और कुछ हलकों में तो मोदी के विरोध के स्वर भी उभरे थे, जिसे समय की जरूरत बताकर किसी तरह शांत किया गया था। 

इस मुद्दे पर प्रमुखता से बात रखने वालों में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़के ने सवाल किया, “नरेंद्र मोदी जी, आपकी सरकार ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग से आने वाले छात्रों के लिए कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की छात्रवृत्ति खत्म कर दी है। इन गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति से वंचित करने के पीछे आपका क्या मन्तव्य है? इन गरीब विद्यार्थियों के हक का पैसा मारकर सरकार कितनी कमाई कर लेगी या बचा लेगी?”

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी इस कदम का विरोध किया है। एक बयान में बोर्ड के सदस्य डॉ. एसक्यूआर इलियास ने बताया है कि मुस्लिम छात्रों में अधिकांश ड्रॉप आउट की समस्या कक्षा 5 से कक्षा 8 के बीच में देखने को मिलती है। ऐसे में उनके बीच में ड्रॉपआउट की संख्या में बढ़ोत्तरी हो सकती है।

डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट, पंजाब के प्रदेश अध्यक्ष दिग्विजय पाल शर्मा और प्रदेश सचिव सरवन सिंह औजला के अनुसार उनका संगठन सरकार के इस फैसले की कड़ी निंदा करता है। उन्होंने कहा कि बेशक सरकार आठवीं कक्षा तक के छात्रों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करती है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र सरकार के तहत प्राप्त राशि से अपनी कॉपी, पेन और पेंसिल का खर्च वहन करते हैं।

उन्होंने कहा कि इस साल पहली से आठवीं तक के कई छात्रों के माता-पिता ने इस आर्थिक सहायता के लिए आवेदन किया था। माना जा रहा था कि सरकार इस आर्थिक सहायता के लिए आवेदन करने के तरीके को सरल करेगी। लेकिन सरकार ने 1000-1500 की आर्थिक सहायता की राशि को दोगुना करने के बजाय इस योजना को ही समाप्त कर दिया है। 

यहाँ पर यह भी गौरतलब है कि इसी प्रकार पिछले वर्ष जुलाई में केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी में भी भाजपा शासित सरकार ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की छात्राओं के लिए उच्चतर शिक्षा में प्राप्त होने वाली सहायता राशि को खत्म कर दिया था। 

जैसा कि अब सभी लोग इस बात को मानते हैं कि भारत को यदि वास्तव में विश्व में अपनी छाप छोड़नी है तो उसे सबसे पहले शिक्षा और स्वास्थ्य को अपनी सबसे पहली प्राथमिकता पर रखना ही होगा। इस बारे में दुनिया भर में तमाम शोधों और एशिया में चीन, वियतनाम, दक्षिण कोरिया के उदाहरण हमारे लिए एक जीती-जागती मिसाल बने हुए हैं। इतना ही नहीं भारत में भी क्षेत्रवार इस बारे में तुलनात्मक अध्ययन किया गया है और यह साबित हो चुका है कि केरल और तमिलनाडु ने किस प्रकार से बाकी राज्यों की तुलना में शिक्षा और स्वास्थ्य को तरजीह देकर खुद को विकास के मानकों पर ऊँचे मुकाम तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की है। 

तमिलनाडु ही वह प्रदेश था जिसने सबसे पहले अपने यहाँ मध्यान्ह भोजन को सभी सरकारी स्कूलों में शुरू किया था। तमिलनाडु की सफलता से सीखते हुए ही यूपीए सरकार ने इसे देशभर में लागू करने का फैसला लिया था। 

वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में पिछले तीन महीनों से योगी आदित्यनाथ सरकार के द्वारा “गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों” का सर्वेक्षण कार्य चलाया जा रहा था। अब वहां पर मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 का हवाला देते हुए कक्षा 1 से 8 के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति पर रोक लगाने के निर्देश दिए जा चुके हैं। सरकारी अधिसूचना के मुताबिक, चूँकि कक्षा 1 से आठ तक के सभी विद्यार्थियों को शिक्षा, मध्यान्ह भोजन एवं अन्य सुविधायें मुफ्त में प्रदान की जा रही हैं, ऐसे में छात्रवृत्ति को जारी रखने में कोई तुक नहीं है। इसमें कक्षा 1 से 5 तक 1,000 रूपये वार्षिक छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी, और कक्षा 5 से 8 तक के विद्यार्थियों को विषय के चयन के आधार पर छात्रवृत्ति का आवंटन किया जाता था। सरकारी आंकड़ों के आधार पर कह सकते हैं कि अकेले यूपी में 16,558 मदरसों के लगभग 5 लाख विद्यार्थियों को इस आदेश से प्रभाव पड़ने जा रहा है। 

मदरिस अरबिया, यूपी के महासचिव दीवान साहब ज़मान खान के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 2018 में अपने भाषण में कहा था कि ‘मुस्लिम अपने एक हाथ में कुरान और दूसरे में कंप्यूटर चलाएंगे।’ इसका आशय था कि उनके शासनकाल में मुस्लिमों का सशक्तिकरण संभव होगा, लेकिन 8 साल बाद उसके उलट उन्हें जो कुछ यूपीए सरकार ने सुविधा मुहैया कराई थी, उससे भी वंचित किया जा रहा है।

वहीं यह भी कहा जा रहा है कि प्राइवेट मदरसों को सरकार की ओर से कोई मदद नहीं प्रदान की जाती है। प्रदेश में 16,513 मान्यता प्राप्त मदरसे हैं, जिनमें से मात्र 560 को ही राज्य सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त होती है। छात्रवृत्ति पाने का आधार 50% अंक प्राप्त करना और हर साल 10 महीने की यह छात्रवृत्ति पाने का आधार रहा है। यह गरीब परिवारों में बच्चों के लिए उत्साहवर्धन और पढ़ाई को लेकर गंभीरता पैदा करता था। कई लोग केंद्र सरकार के इस कदम को यूपी में योगी सरकार के मदरसों पर चलाए गये सर्वेक्षण से भी जोड़कर देख रहे हैं। 

बताते चलें कि तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने राज्य सभा में एक प्रश्न के जवाब में बताया था कि उनके मंत्रालय ने छह अधिसूचित अल्पसंख्यक समूहों, जिनमें बौद्ध, ईसाई, जैन, मुस्लिम, पारसी और सिख शामिल हैं, को देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इसमें शामिल किया है। इसका उद्देश्य कमजोर तबकों के छात्रों को शैक्षणिक रूप से सशक्त बनाना है। इसमें आगे बताया गया था कि 2014-15 के बाद से 5.1 करोड़ से अधिक छात्रवृत्ति नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर के तहत जारी की गई थी, जिसमें 52% से अधिक लाभार्थी छात्राएं थीं। 

एक ऐसे दौर में जहाँ पिछले दो वर्षों से कोरोना वायरस महामारी के कारण समूचे देश में बच्चों की शिक्षा बुरी तरह से बाधित हुई हो, बाल-विवाह और ट्रैफिकिंग में बड़ा इजाफा देखने को मिला है। भारत में शिक्षा की गुणवत्ता पर लगातार प्रश्न खड़े होते हों, बच्चों में ड्रॉपआउट को रोकने के लिए छात्रवृत्ति को बल देने की जरूरत थी, ताकि समाज के वंचित तबके मजबूरी में बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के बजाय उन्हें बचपन से ही छोटे-मोटे काम-धंधों में डालने के बजाय आगे पढ़ा सकें, आज सरकार ही उन्हें परोक्ष रूप से शिक्षा से वंचित किये जाने के लिए पहल कर रही है, तो देश कैसे वास्तव में एक प्रमुख शक्ति बन सकता है?

(रविंद्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।) 

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