Friday, March 29, 2024

बजट 2022:  ग्रामीण मजदूरों, किसानों और कृषक समाज की  घोर बेकदरी

किसानों, श्रमिकों, कर्मचारियों, नौजवानों एवं गृहणियों के लिए इस साल के बजट में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे लगे कि सरकार उनके बारे में कुछ भी सोच रही है, वे भी इसी देश के वासी हैं और यह देश उनसे ही मिलकर बना है। देश की 99 प्रतिशत आबादी के प्रति सरकार की ऐसी बेरुखी जहाँ एक ओर चौंकाती है वहीं डराती भी है। पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बावजूद सरकार की ओर से इस बजट में आम लोगों को राहत पहुंचा कर उनका दिल जीतने की कोशिश नहीं की गई है, और न ही कोई जन-पक्षीय घोषणा ही की गई है।

आम लोगों के दुःख-तकलीफों के प्रति सरकार की ऐसी निर्मम निर्लिप्तता की एक और व्याख्या संभव है। वह यह है कि, मौजूदा सरकार लोगों के आर्थिक जीवन की बेहतरी को अपनी चुनावी सफलता के लिए गैर-जरूरी मानती है। भाजपा सरकार का विश्वास है कि इस देश का बहुसंख्यक वर्ग तमाम आर्थिक दुश्वारियों के बावजूद धर्म और संप्रदाय के आधार पर मतदान करेगा। अपने सभी कष्टों को भुलाकर वह अपने काल्पनिक शत्रुओं पर हो रहे अत्याचारों में परपीड़क आनंद को तलाशेगा।

बजट में सरकार कहीं भी गरीब, कमजोर और हाशिये पर खड़े लोगों के साथ खड़ी दिखाई नहीं देती। मनरेगा के लिए वित्तीय वर्ष 2022-23 में 73000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है, जो मनरेगा के जानकारों की दृष्टि में बेहद निराशाजनक है। पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन की तुलना में वर्तमान बजट में मनरेगा के मद में आवंटित राशि में 25.51 प्रतिशत की कटौती की गई है। कोविड-19 के इस भयावह दौर ने मनरेगा के महत्व को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है, और यह आशा की जा रही थी कि न केवल सरकार इसे पहले से अधिक मजबूती प्रदान करेगी, बल्कि शहरी इलाकों के लिए भी इसी के समान कोई  योजना लायेगी। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कोविड-19 के चलते लगाये गये लॉक डाउन के दौर में मनरेगा की जीवन-रक्षक भूमिका के मद्देनजर सरकार ने इसके लिए अतिरिक्त चालीस हजार करोड़ रूपये का आवंटन दिया और इस प्रकार मनरेगा के लिए वित्तीय वर्ष 2020-21 में कुल आवंटन राशि एक लाख दस हजार करोड़ रूपये थी। इसके बावजूद मनरेगा के लिए आवंटित धनराशि कम पड़ गई, और मौजूदा वित्तीय वर्ष के लिए लंबित देनदारियां 17 हजार करोड़ रुपए हैं। वर्ष 2021-22 में मनरेगा के लिए बजट को घटाकर 73000 करोड़ रुपए कर दिया गया था, जिसका नब्बे प्रतिशत हिस्सा मात्र 06 महीने में ही चुक गया। हालत यह थी कि देश के इक्कीस राज्यों के पास मनरेगा चलाने के लिए आवश्यक धन ही नहीं था। पीपुल्स एक्शन फ़ॉर एम्प्लायमेंट गारंटी एवं नरेगा संघर्ष मोर्चा के विशेषज्ञों द्वारा न्यूनतम मजदूरी, एक्टिव जॉब कार्ड तथा 100 दिन के काम को आधार बनाकर की गई गणना के मुताबिक, मनरेगा के लिए 2.64 लाख करोड़ रुपए की दरकार है। पीपुल्स एक्शन फ़ॉर एम्प्लायमेंट गारंटी के विशेषज्ञ इस वर्ष 21,000 करोड़ रुपए की लंबित देनदारियां रहने का अनुमान लगा रहे हैं। यदि इन्हें घटा दिया जाए तो शेष 52000 करोड़ रुपयों में केवल 22 दिन मनरेगा योजना चलाई जा सकती है। हो सकता है कि सरकार वर्ष 2021-22 के 25,000 करोड़ रुपए की भांति इस वर्ष भी कुछ अतिरिक्त राशि की घोषणा करनी पड़े, किंतु कुल मिलाकर सौ दिन रोजगार देने की संवैधानिक बाध्यता से सरकार साफ़-साफ़ मुंह मोड़ रही है।

नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम के तहत केंद्र सरकार बीपीएल (BPL) परिवारों को नाममात्र की (200-300 रुपए) मासिक पेंशन देती है। इसका बजट 9,652 करोड़ रुपए पिछले 15 वर्षों से जस के तस है। स्वाभाविक है कि पेंशन की राशि में भी कोई इजाफा नहीं हुआ है।

चूँकि यह बजट लंबे किसान आंदोलन के बाद आया था तो ऐसे में उम्मीद थी कि किसानों और सरकार के बीच हुए समझौते के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता इसमें परिलक्षित होगी। किंतु बजट का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों के साथ हुआ सरकार का समझौता, आंदोलन को किसी तरह खत्म कराने के लिए अपनाई गई एक धूर्त रणनीति मात्र थी। किसानों की मांगें पूरी करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है।

कृषि एवं सहायक गतिविधियों के लिए इस वर्ष कुल बजट का 3.84 प्रतिशत आवंटन किया गया है, जबकि विगत वर्ष यह 4.26 प्रतिशत था। ग्रामीण क्षेत्र के लिए बजट आवंटन 2021-22 में संशोधित आकलन के बाद 2,06,948 करोड़ रुपए था, जो इस वर्ष के बजट एस्टीमेट में घटकर 2,06,293 करोड़ रुपए है। विगत वित्तीय वर्ष में ग्रामीण क्षेत्र के लिए बजट कुल बजट का 5.59 प्रतिशत था जो अब घटकर 5.23 प्रतिशत रह गया है।

वर्ष 2018 से किसानों को दी जा रही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के बजट में हुई मामूली वृद्धि से किसान हताश हैं। 6,000 रुपए की वार्षिक सहायता वैसे भी अपर्याप्त थी, किंतु महंगाई की बढ़ती हुई दर के कारण यह कहीं से भी पर्याप्त नहीं है, मुद्रास्फीति के साथ इसे जोड़कर देखें तो असल में इसमें 15 प्रतिशत की कमी हुई है। आशा की जा रही थी कि सरकार इसमें कोई सम्मानजनक वृद्धि करेगी, किंतु वित्तीय वर्ष 2021-22 के 67,500 करोड़ रुपए के आवंटन में मामूली वृद्धि करते हुए इसे 68,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है जो यह दर्शाता है कि सरकार का महंगाई के विरुद्ध किसानों को संरक्षण देने का कोई इरादा नहीं है।

फरवरी 2016 में प्रधानमंत्री द्वारा 6 वर्ष में किसानों की आय को दोगुनी करने की घोषणा के बाद 29 फरवरी 2016 को प्रस्तुत बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसका समावेश किया था। फरवरी 2022 में इस घोषणा के 6 वर्ष पूरे हो गए हैं। किंतु वित्त मंत्री का बजट भाषण इस विषय पर पूरी तरह से मौन बना रहा। उन्होंने बताने की जहमत नहीं उठाई कि किसानों की आय वर्तमान में कितनी है, और यदि यह दुगुने से बहुत कम है तो इसकी क्या वजह है? सरकार द्वारा किसानों की आय का आकलन करने के लिए गठित कमेटी ने गणना कर बताया था कि 2015-16 में किसानों की अनुमानित आय 8,059 रुपए थी। कमेटी ने यह भी कहा कि मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2022 तक इस आय को बढ़ाकर 21,000 रुपए करना होगा, तभी वह दोगुनी मानी जाएगी। एनएसएसओ 2018-19 के आंकड़े किसानों की आय में मामूली वृद्धि को स्वीकारते हैं तथा उसे 10,000 रुपए के लगभग प्रोजेक्ट करते हैं। इसके बाद के वर्षों में भारत में कृषि क्षेत्र में हुई वृद्धि और विकास के आंकड़ों को यदि उपयोग में लिया जाए तो यह आय लगभग 11,200 रुपए के आस-पास पहुंचती है। बढ़ती महंगाई को यदि ध्यान में रखा जाये तो असल में किसानों की बढ़ने के बजाय घटी ही है।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में धान और गेहूं की खरीद पर समर्थन मूल्य के आंकड़ों का बड़े गर्व के साथ जिक्र किया, किंतु दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई  यह है कि वर्ष 2020-21 की तुलना में धान और गेहूं की समर्थन मूल्य पर खरीद का आंकड़ा पिछले साल कम था। वर्ष 2020-21 में किसानों से 1286 लाख मीट्रिक टन धान और गेहूं खरीदा गया, जिससे 1.97 करोड़ किसान लाभान्वित हुए थे तथा इसके लिए 2.48 लाख करोड़ रुपए चुकाए गये थे। जबकि वर्ष 2021-22 में किसानों से 1208 लाख मीट्रिक टन ही धान और गेहूं की खरीद की गई जिससे 1.63 करोड़ किसान लाभान्वित हुए तथा इसके लिए बजट 2.37 लाख करोड़ रुपए था। प्रसंगवश यह उल्लेख जरूरी है कि लाभान्वित किसानों की यह संख्या देश में किसानों की कुल संख्या का मात्र दस प्रतिशत ही है।

कहा गया था कि प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) को प्रारंभ करने के पीछे का उद्देश्य यह है कि प्रत्येक किसान को बढ़ी हुई एमएसपी का फायदा मिले।  वित्तीय वर्ष 2019-20 में पीएम आशा का बजट 1,500 करोड़ रुपए था, यद्यपि तब भी जरूरत 50,000 करोड़ रुपए के बजट की थी। बाद में 2020-21 में इसे घटाकर 500 करोड़ रुपए और 2021-22 में इसे और कम कर 400 करोड़ रुपए कर दिया गया। इस वित्तीय वर्ष में पीएम आशा का बजट मात्र एक करोड़ रुपए कर दिया गया है, अर्थात इस योजना को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है।

इसी प्रकार मार्केट इंटरवेंशन स्कीम तथा प्राइस सपोर्ट स्कीम के लिए वित्तीय वर्ष 2021-22 के संशोधित आकलन के अनुसार बजट 3,959.61 करोड़ रुपए था जिसमें वित्तीय वर्ष 2022-23 में 62 प्रतिशत की कटौती करते हुए इसे 1,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

यदि सरल भाषा में कहा जाए तो एमएसपी पर खरीद में गिरावट आई है और एमएसपी की प्राप्ति सुनिश्चित करने वाली योजनाओं को या तो बंद किया जा रहा है या इनके बजट में भारी कटौती की जा रही है। कुल मिलाकर किसान आंदोलन के नेताओं के लिए सरकार का संदेश स्पष्ट है – वह एमएसपी के मुद्दे को गैर-जरुरी मानती है।

फ़ूड एंड न्यूट्रिशनल सिक्युरिटी के बजट में भी कटौती की गई है। वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमान के मुताबिक इसका बजट 1,540 करोड़ रुपए था जिसे अब घटाकर 1,395 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ पल्सेस टू स्टेट्स एंड यूनियन टेरिटरीज हेतु 2021-22 में बजट आकलन 300 करोड़ रुपए था किंतु वास्तविक व्यय केवल 50 करोड़ रुपए हुआ। इस वर्ष इसके लिए केवल 9 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ है। इससे पता चलता है कि सरकार बच्चों के मध्याह्न भोजन में दालों की पौष्टिकता को सम्मिलित नहीं करना चाहती, और न ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों तक दाल पहुंचाने का उसका कोई इरादा है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बजट में भी कटौती की गई है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में इसके लिए 15,989  करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, जिसे 2022-23 में घटाकर 15,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में भी यह योजना दम तोड़ रही है।  विगत तीन वर्षों में इस योजना से लाभान्वित किसानों की संख्या क्रमशः 61.41 लाख, 46.42 लाख और 41.89 लाख  रही है। लाभान्वितों की संख्या में यह भारी गिरावट योजना की कमियों की ओर संकेत करती है।

कोरोना काल में घोषित बहुचर्चित एक लाख करोड़ रुपए के  एग्रीकल्चरल इंफ्रास्ट्रक्चर फण्ड की स्थिति विगत वित्तीय वर्ष में  यह रही कि इसमें केवल 2,600 करोड़ रुपए के अनुमोदन हो पाए, और वास्तविक व्यय महज 900 करोड़ रुपए था।

विगत वित्तीय वर्ष में कृषि अवशिष्ट प्रबंधन हेतु 700 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, किंतु वर्तमान बजट में इस मद को ही हटा दिया गया है। पराली जलाने का मुद्दा पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में रहा है। किसानों को अवशेष प्रबंधन के लिए दी जाने वाली सहायता को खत्म कर देना अत्यंत दुःखद एवं हैरान करने वाला है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर भारतीय प्रतिबद्धता को सरकार द्वारा बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया गया था।

किसानों को अल्प-अवधि के ऋण पर ब्याज सब्सिडी मुहैय्या कराने के लिए वित्तीय वर्ष 2021-22 में 19,468 करोड़ रुपए का प्रावधान था, जिसमें इस साल मामूली वृद्धि की गई है और अब यह 19,500 करोड़ रुपए है जो अपेक्षाओं से बहुत कम है।

10000 किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के गठन एवं संवर्धन के लिए पिछले वर्ष के बजट में 700 करोड़ रुपए का प्रावधान था, जिसे घटाकर इस बजट में 500 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

वित्त मंत्री ने इंटरनेशनल मिलेट ईयर की चर्चा की और मिलेट मिशन का जिक्र किया। लोकसभा में कृषि मंत्री ने जुलाई 2021 में दिए गए अपने एक उत्तर में यह स्वीकार किया था कि तीन मोटे अनाजों ज्वार, बाजरा और रागी का सर्वाधिक उत्पादन करने वाले दो राज्यों उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में इन अनाजों की खरीद शून्य रही। सरकार ने इस बार खाद्य सब्सिडी में 27.59 प्रतिशत की भारी कटौती की है। पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन के अनुसार खाद्य सब्सिडी 2.9 लाख करोड़ रुपए थी। जबकि वर्तमान वित्तीय वर्ष के लिए यह 2.1 लाख करोड़ रुपए है। पीएम आशा योजना को बंद किया जा रहा है। मिड-डे मील योजना की स्थिति भी अच्छी नहीं है। पीएम पोषण कार्यक्रम हेतु बजट वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए 10,234 करोड़ रुपए है जो विगत वित्तीय वर्ष के बराबर ही है। सक्षम आंगनबाड़ी एवं पोषण 2.0 योजनाओं के लिए इस वित्तीय वर्ष का बजट 20,263 करोड़ रुपए है जो पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन 20,000 करोड़ रुपए से कुछ ही अधिक है। इन परिस्थितियों में मोटे अनाज की खरीद कैसे हो पाएगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

कुछ ऐसी ही स्थिति ऑर्गेनिक फॉर्मिंग की भी है। प्रधानमंत्री का यह सबसे प्रिय विषय है और वे इस बारे में कई बार चर्चा कर चुके हैं, किंतु सामान्य रासायनिक उर्वरकों पर तो जीएसटी 5 प्रतिशत है जबकि आर्गेनिक फॉर्मिंग में प्रयुक्त होने वाले अनेक कंपाउंड्स पर जीएसटी की दर बहुत अधिक है।

बजट में उर्वरक सब्सिडी में भारी कटौती की गई है। विगत वित्तीय वर्ष में संशोधित आकलन के अनुसार यह 1.40 लाख करोड़ थी जबकि वर्तमान वित्तीय वर्ष के बजट आकलन के अनुसार यह मात्र 1.05 लाख करोड़ है। इस साल देश भर में किसानों को उर्वरकों की सरकारी खरीद के लिए कतार में खड़े देखा गया, जिसमें कई लोगों ने भूखे प्यासे रहने की वजह से दम तोड़ दिया था।

बजट में पशुपालन और डेयरी उद्योग के विषय में कुछ भी नहीं है, न ही खाद्य प्रसंस्करण आदि के विषय में कुछ कहा गया है।

 किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं के विचार में तीन कृषि कानूनों की वापसी से सरकार खुद को अपमानित स्थिति में देख रही है, अंदर ही अंदर सरकार किसानों से खफा है और यह बजट किसानों के प्रति एक प्रतिशोधात्मक कार्रवाई नजर आती है। किसानों, खेत मजदूरों और ग्रामीण आबादी को नए सिरे से बड़े संघर्ष के लिए कमर कसना होगा, वरना जिंदगी पहले से भी दूभर होने जा रही है।

(डॉ. राजू पांडेय गांधीवादी विचारक हैं।)

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