Thursday, March 28, 2024

सीपी कमेंट्री: ‘हिस्ट्री लिटरेसी‘ की मुहिम की 1 जुलाई को इतिहासकार डीएन झा की जयंती से होगी शुरुआत

दुनिया भर के इतिहास में इतिहास की सबसे बड़ी क्लास नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के क्लास रूम से बाहर खुले मैदान में 17 फरवरी 2016 को लगी थी। ये क्लास जेएनयू प्रोफेसर एमेरिटस, रोमिला थापर और हरबंस मुखिया ने साथ मिल कर ली थी। वो विगत है। आगत है इतिहास को मैदान से आगे घर-घर ले जाने की एक नई मुहिम। ये मुहिम रांची (झारखंड) में विधिक तौर पर पंजीकृत की जा रही अलाभकारी विशेष कंपनी, पीपुल्स मिशन की पहल पर देश–विदेश के समविचारी सेक्युलर, लोकतांत्रिक संगठनों, समूहों, संस्थाओं और व्यक्तियों के सहयोग से एक जुलाई, 2021 को ‘इतिहासकारों के इतिहासकार‘ डीएन झा की जयंती के दिन एक ‘वेबिनार‘ से शुरू होगी।
अवाम के बीच ‘हिस्ट्री लिटरेसी‘ लाने की इस मुहिम में इतिहास के विश्वविख्यात उपरोक्त दो प्रोफेसरों के अलावा लब्ध प्रतिष्ठ इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब का भी मार्ग निर्देशन प्राप्त होगा। मुहिम की थीम है ‘इंडिया दैट इज भारत‘ के सात बरस से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया‘ में इतिहास से हो रहे खिलवाड़ का अवामी प्रतिरोध। ये कठिन टास्क दिवंगत डीएन झा की पौत्री, प्राची झा ने संभाला है।

इस मुहिम के तहत जन-वितरण के लिए तैयार बहुभाषी कई आलेख में से प्रथम दिवंगत डीएन झा का ही लिखा हुआ है, जो यूएनआई द्वारा प्रेषित किये जाने पर कुछ अखबारों में प्रकाशित हुआ था।

दूसरा आलेख, साथी त्रिभुवन ने प्रधानमंत्री मोदी के कबीर जयंती के अवसर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ मगहर (वाराणसी) की 29 जून, 2018 के एक कार्यक्रम में दिए भाषण के हवाले से ‘इतिहास ज्ञान का मोदी स्वांग‘ शीर्षक से लिखा था। उस लेख के साथ पीपुल्स मिशन ने संत कबीर, बाबा नानक, संत रविदास और बाबा गोरखनाथ के बारे में इतिहास सम्मत जानकारियाँ जोड़ दी है।

प्रथम आलेख

मोदी जी के पटना भाषण में सारी बातें गलत थीं: डीएन झा ( इतिहासकार)

राजनेता, इतिहास का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करते हैं। राजनेता ऐसी बातें भी कह देते हैं जिनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं होता। हमारे पास जो ऐतिहासिक साक्ष्य हैं उनसे वो बातें कभी नहीं सिद्ध हो सकतीं। जैसे मोदी ने पटना में अपने भाषण में इतिहास का जो जिक्र किया उसमें सारी की सारी बातें ग़लत हैं। उनकी बातों की गंभीर इतिहास में कोई जगह नहीं है।
स्वर्णकाल

मोदी ने कहा कि चाणक्य का युग स्वर्ण युग था। चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य के बौद्धिक अभिभावक और गुरू माने जाते हैं जिन्होंने भारत के बड़े हिस्से का एकीकरण किया। भारत देश का असली एकीकरण सम्राट अशोक के समय में हुआ। अशोक के साम्राज्य में भी सुदूर दक्षिण के राज्य शामिल नहीं थे। एक राष्ट्र के रूप में भारत की परिकल्पना पहले थी ही नहीं, न तो मौर्य काल में और न ही गुप्त काल में। मुगल काल के बाद ब्रिटिश काल में इस तरह की भावना आई। खास तौर पर साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू होने के बाद यह भावना प्रबल होती गई।
यह कहना ग़लत है कि चंद्रगुप्त का समय स्वर्णकाल था। उनके समय में कृषि उत्पादों का एक बटा चार हिस्सा कृषि कर के रूप में देना होता था यानी वह शोषणकारी राज्य था। अकाट्य तथ्य है कि सम्राट अशोक जब लुंबिनी गए तो उन्होंने स्थानीय लोगों को राहत देने के लिए कर की दर घटा कर एक बटा छह की थी। इससे पता चलता है कि उसके पहले कर की दर ज़्यादा थी।

पीएम नरेंद्र मोदी।

चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में जिक्र किया है कि राजस्व एकत्रित करने के लिए अंधविश्वास वाली चीजों का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे कि कहीं कोई मूर्ति लगा दी और वहाँ जो चढ़ावा आए, उसे लेकर राजकोष में डाल दिया जाए। पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है कि मौर्यों ने ऐसा किया था। चाणक्य के समय को स्वर्ण काल कहना इसलिए भी गलत है कि उस समय सामाजिक एकीकरण नहीं हुआ था। उसके समय तक जाति प्रथा काफी मजबूत हो चुकी थी।

अपने अर्थशास्त्र में नए गाँव बसाने के संदर्भ में चाणक्य ने लिखा है कि किसी गाँव में शूद्रों की आबादी ज़्यादा होना अच्छी बात है। क्योंकि उनका शोषण करना आसान है। तो ऐसे में चाणक्य का समय मोदी जी के लिए तो स्वर्ण काल हो सकता है। लेकिन ये दूसरे लोगों के लिए नहीं हो सकता है।
सिकंदर कभी बिहार नहीं गया

मोदी जी ने पटना रैली में कहा कि बिहार के लोगों ने सिकंदर को मार भगाया जबकि सिकंदर कभी बिहार गया ही नहीं। हमारे इतिहास को गांधी मैदान में बैठकर मनगढ़ंत लिखा जाए तभी ऐसी बातें निकल सकती हैं। नशे में इतिहास लिखा जाए तभी ऐसी बातें लिखी जा सकती हैं। जहाँ तक साक्ष्यों की बात है सिकंदर ने सबसे प्रमुख लड़ाई पंजाब में झेलम के किनारे पोरस से लड़ी थी। उसके बाद सिकंदर की सेना वापस चली गई। उसकी सेना, पूरब की तरफ कभी बढ़ी ही नहीx थी।
पर्दा प्रथा

इसी तरह एक बार प्रतिभा पाटिल जी (पूर्व राष्ट्रपति) ने कह दिया था कि पर्दा प्रथा, मुसलमानों के इस देश में आने के बाद उनकी सेनाओं से हिन्दू औरतों को बचाने के लिए शुरू हुई थी। हमारे यहाँ जो संस्कृत और प्राकृत साहित्य है उसमें कई जगह ऐसी चर्चा है जिसमें औरतें पर्दा कर रही हैं।

संस्कृत में एक शब्द है अवगुंठन, जिसका अर्थ ही है घूंघट। संस्कृत नाटकों और ऐतिहासिक उपन्यासों में अंतःपुर का ज़िक्र है। अंतःपुर का मतलब है कि आइसोलेशन या आंतरिक स्थान। यानी एक तरह का पर्दा पहले भी था। इसलिए पर्दा प्रथा को मुसलमानों से नहीं जोड़ना चाहिए था। इससे लोगों का दृष्टिकोण सांप्रदायिक हो गया।
नेताओं को यदि इतिहास के तथ्यों का प्रयोग करना है तो उन्हें गंभीर इतिहासकारों की सलाह लेकर ही ऐसा करना चाहिए। नहीं तो वो लाखों लोगों को ग़लत इतिहास बताते रहेंगे। ग़रीबी बढ़ती जा रही है। अमीरों का धन बढ़ता जा रहा है। साफ है कि देश बहुत सुखी या अच्छे रास्ते पर नहीं जा रहा है। मुझे उम्मीद नहीं है कि आने वाले समय में कोई इतिहासकार इस समय को अच्छा युग कहेगा। कम से कम फिलहाल तो यही लगता है।

दूसरा आलेख
इतिहास ज्ञान का मोदी स्वांग

बाकलम : त्रिभुवन
एक अचंभा देखा रे भाई, मोदी मिलावैं कबीर-नानक-गोरख कै ताईं!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मगहर में आज (तत्कालीन) अपना भाषण शुरू कर कहा कबीरदास जी यहीं पर बाबा नानक और गुरु गोरखनाथ जी के साथ आध्यात्मिक चर्चा किया करते थे।
तथ्य

संत कबीर का जन्म 1398 में हुआ था और निधन 1518 में। वह करीब 120 साल जिए थे। उनकी इस लंबी उम्र के बारे में कई संदेह हैं।
बाबा नानक 1469 में पैदा हुए और 1539 में उनका निधन हुआ। यानी कबीर जिस समय 71 साल के थे तब बाबा नानक जन्मे थे। कबीर का 120 साल की उम्र में निधन हुआ तो नानक जी 49 साल के थे।

संभव है बाबा नानक और कबीर की मुलाकात हुई हो। संभव है दोनों ने एक साथ साधना भी की हो। लेकिन अगर संत कबीर का निधन 80 बरस की अवस्था में हुआ तो यह भेंट और साधना संभव नहीं हो सकती है। क्योंकि तब बाबा नानक 11 बरस के ही रहे होंगे। संत कबीर का निधन 70 साल की अवस्था में हुआ मान लिया जाए तब तो यह भेंट बिल्कुल संभव नहीं लगती है।
यह बिलकुल असंभव है कि 11वीं सदी में पैदा हुए गुरु गोरखनाथ जी 14वीं सदी में यानी तीन सदी के बाद संत कबीर से मिलने आ गए थे। कैसे संभव हो सकता है कि कोई भी व्यक्ति तीन सदी गुजर जाने के बाद अकस्मात प्रकट हो जाए।


मुख्यमंत्री आदित्यनाथ

मोदी जी की यह चूक इसलिए भी बहुत गंभीर है कि गुरु गोरखनाथ के मठ के सबसे बड़े मठाधीश और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके बगल में बैठे थे। क्या उन्होंने मोदी जी को नहीं बताया कि गोरखनाथ जी 11वीं सदी में पैदा हुए थे?
हद है मोदी जी
मोदी जी यह भी ग़लत बोले कि संत कबीर के लंबे काल खंड के बाद संत रैदास आए। हद कर दी मोदी जी ने ! क्या हो गया उनको? वे कहां से यह ज्ञान लेकर आये ?
संत रैदास का जन्म 1450 में तब हुआ जब संत कबीर 52 बरस के थे। उनकी मृत्यु 1520 में हुई, यानी कबीर से दो साल बाद। यानी दोनों ही संत लगभग समकालीन थे। मोदी जी ने इसी कार्यक्रम में संत कबीर के नाम से दो दोहे भी पढ़ डाले जो वास्तव में वृंद के दोहे हैं। वे हैं :

  1. मांगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख
  2. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब

हैरानी है कि उस कार्यक्रम में हर क्षण कबीर का नाम लिया गया। लेकिन मोदी जी के इस भाषण को लिखे जाने और पढ़े जाने से पहले उन्होंने स्वयं या उनके भाषण लिखने वालों ने इतिहास के साथ तथ्यात्मक खिलवाड़ पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। यह गंभीर बात है। और भी हैरानी है कि प्रधानमंत्री पद पर आसीन इतने बड़े राजनीतिज्ञ ऐसी ऐतिहासिक ग़लतियां कर गए।

ज़रूरी नहीं कि किसी राजनीतिज्ञ को यह सब ज्ञान हो ही। लेकिन मतलब साफ़ है कि भारत के प्रधानमंत्री के भारी भरकम कार्यालय में बौद्धिक दरिद्रता है जो भारत के सबसे बड़े राजनेता को देश में ही नहीं दुनिया भर में उपहास का विषय बनवा देता है। दरअसल, यह मोदी जी का उपहास नहीं है। यह हमारे शासनाध्यक्ष मोदी जी के प्रधानमंत्री पद का घोर अपमान है। यह किसी भी तरह से ठीक नहीं माना जा सकता है।

गुरु नानक
सिख पंथ के संस्थापक और प्रथम गुरु, बाबा नानक का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को ननकाना साहिब में हुआ था जो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा हो गया है। उनका निधन 22 सितंबर 1539 को करतारपुर (पाकिस्तान) में हुआ था। गुरु नानक की माता का नाम माता तृप्ता, पिता का नाम मेहता कालू और पत्नी का नाम माता सुलखिनी (1487–1539) था।

संत रविदास
रैदास नाम से भी विख्यात संत रविदास का जन्म बनारस में सन् 1388 में हुआ था। इनका जन्म कुछ विद्वान 1398 में बताते हैं। संत कबीर ने इन्हें ‘संतन में रविदास’ कहा था। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का कोई विश्वास नहीं था। उनका निधन बनारस में 1520 में हुआ। उनकी माता का नाम घुरविनिया, पिता का नाम रग्घु और पत्नी का नाम लोना वर्णित है।

गुरु गोरखनाथ
गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे। इसका प्रमाण है राजा विक्रमादित्य का पञ्चाङ्ग,जिसमें विक्रम संवत प्रथम शताब्दी से आरंभ होता है। गुरु गोरक्षनाथ जी, राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय थे।
गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में है। उसी नाम पर गोरखपुर जिला है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से नेपाल के गोरखा का नाम पड़ा माना जाता है। नेपाल के गोरखा जिले का नाम भी इनके नाम पर पड़ा माना जाता है।

(चंद्रप्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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