Friday, April 19, 2024

सीपीएम नेत्री शैलजा का मैगसेसे को नकारने का फैसला कितना सही?

मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों में समाजवादी समाज और समाजवादी राज्य के अंगों की जो कटी-छँटी छवियाँ थीं, उन्हें रूस में नवंबर क्रांति और सोवियत संघ के विकास के साथ पहली बार एक समग्र, एकजुट छवि की पहचान मिली थी। शरीर के अलग-अलग अंगों की अनुभूति के परे एक अन्य छवि में अपने शरीर की एकजुट छवि को देखना ही मनोविश्लेषण की भाषा में प्रमाता (subject) के विकास का वह प्रतिबिंब चरण कहलाता है। यह छवि ही उसकी जैविक सत्ता से विच्छिन्न उसकी वह पहचान है जिसमें प्रमाता के अहम् के बीज पड़ते हैं। मानव समाज के प्रतीकात्मक जगत में कुछ निश्चित अर्थ प्रदान करने वाले संकेतक के रूप में उसका स्थान बनता है ।

पर, प्रमाता जितना अपनी इस एकान्वित छवि की क़ैद में होता है, उतना ही वह अपनी प्राणीसत्ता से भी जुड़ा होता है। यह छवि इसीलिए कोई जड़, फोटो वाली छवि नहीं होती है क्योंकि यथार्थ और प्रतीकात्मक जगत के अन्य संकेतकों के स्पंदन से इस एकान्विति में जो दरारें पड़ती हैं, उनके अंदर से प्रमाता की प्राणीसत्ता के सत्य के नए आयाम सामने आते हैं । उसकी छवि एक विकासमान यथार्थ की छवि का रूप ले लेती है ।

यही वजह है कि सोवियत संघ के रूप में समाजवाद की जो एक एकजुट छवि बनी थी, वह कभी भी एक स्थिर छवि नहीं रही। खुद रूस में ही समाजवादी विकास के चरणों के अनुरूप इसके कई नामकरण हुए। लेनिन ने तो एक समय में बिजली को ही समाजवाद कहा था । परवर्ती, युद्ध के दिनों में समाजवादी राज्य की एक दूसरे प्रकार की सख़्त कमांड व्यवस्था विकसित हुई । ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय’ की पूरी अवधारणा इसीलिए ढह गई क्योंकि सोवियत संघ के राज्य के ढाँचे और उसकी नीतियों को ही पूरी तरह से स्वीकारने के लिए चीन तैयार नहीं था । बाद में तो सभी देशों की ठोस परिस्थितियों के अनुसार समाजवादी क्रांति का रास्ता और समाजवादी राज्य की अवधारणा दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन की एक सर्व-स्वीकृत नीति बन चुकी है ।

अर्थात्, समाजवाद की प्राणीसत्ता नई-नई परिस्थितियों में नए-नए अर्थों के साथ सामने आती रही है । समाजवादी शिविर की एकान्वित छवि बहुत पहले ही ध्वस्त हो गई थी । सोवियत संघ के बिखराव के साथ तो समाजवादी शिविर एक अतीत की वस्तु नज़र आने लगा ।

समाजवादी शिविर और विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के इस संक्षिप्त ब्यौरे का तात्पर्य सिर्फ़ यह है कि समाजवाद अथवा किसी भी प्रमाता की कोई एक स्थिर छवि नहीं हुआ करती है । उसका तात्त्विक सत्य नई परिस्थितियों के संकेतों के स्पंदन से उसकी नई-नई छवियों को व्यक्त करता है। भारत में इसकी एक बड़ी मिसाल यह है कि यहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख शक्ति सीपीआई(एम) ने बहुदलीय संसदीय व्यवस्था को अपने रणनीतिक लक्ष्य के रूप में अपने कार्यक्रम में अपनाया है ।

अर्थात् समाजवाद की किसी एक छवि में अटकना कोई बुद्धिमत्ता नहीं, एक शुतुरमुर्गी रुग्ण प्रवृत्ति है, जो किसी भी प्रमाता में नयेपन और बदलाव से डर को दर्शाती है ।

यहाँ गौर करने की बात है कि विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन की अनेक धारणाएँ आज भी शीतयुद्धकाल की परिस्थितियों में विकसित हुई धारणाएँ हैं, जिस काल में सोवियत संघ के दायरे के बाहर की हर चीज को गहरे संदेह की नज़र से देखा जाता था । यहाँ तक कि ज्ञान चर्चा के मामले में भी, जो ज्ञान सोवियत संघ के विद्वानों के बीच से पैदा नहीं हुआ था, उसे समाजवादी विचारों का विरोधी अथवा उसके विकल्प की तलाश की कोशिश के रूप में शक के दायरे में डाल दिया जाता था । दुनिया में इसके अनेक प्रकार के उदाहरण मौजूद हैं। इसने अंततः और किसी का नहीं, सोवियत समाजवाद का ही सबसे अधिक नुक़सान किया ; अपनी कमियों को देखने की उसकी शक्ति को कम किया । सोवियत समाजवाद के पतन का यह एक सबसे बड़ा कारण माना जाता है ।

मसलन्, नोबेल पुरस्कार को ही लिया जाए । 1975 में जब आन्द्रें सखारोव को नोबेल की घोषणा की गई तो सोवियत सरकार ने उसे सोवियत संघ के खिलाफ एक ग़ैर-दोस्ताना प्रतिक्रियावादी कदम बताया था । इस पुरस्कार को इसके प्रणेता आल्फ्रेड नोबेल के व्यवसाय की छाया में दर्शाने की एक प्रवृत्ति एक तबके में हमेशा से देखी जा सकती है ।

कमोबेश, वही स्थिति मैगसेसे पुरस्कारों के बारे में भी है । पिछले दिनों जब यह पुरस्कार रवीश कुमार को मिला था, हम सब ने उन्हें ढेर सारी बधाइयाँ दी थी । लेकिन अब अचानक ही केरल की सीपीएम की नेता केके शैलजा को मैगसेसे पुरस्कार के सिलसिले में पार्टी के नेता फ़िलीपीन्स के राष्ट्रपति रेमोन मैगसेसे के पुराने इतिहास को दोहरा रहे हैं !

जिन पुरस्कारों को विश्व स्तर पर श्रेष्ठता की स्वीकृति के प्रतीक के रूप में अपनाया गया है, उन्हें उनसे जुड़े नामों के इतिहास की अपनी समझ के आधार पर हमले का लक्ष्य बनाना क्या दर्शाता है ? हमारा सवाल है कि क्या यह आक्रामकता शुद्ध आत्मरति (narcissism) का मामला नहीं है ? खुद के लिए तैयार किया गया सांस्कृतिक सुरक्षा कवच का मामला जिसमें सिर्फ नकार के ज़रिए खुद को परिभाषित करने की कोशिश की जाती है । क्या यह एक ऐसी सामुदायिक घेराबंदी को नहीं दर्शाती है जो समुदाय के सदस्यों को एक सांस्कृतिक अधीनता को स्वीकारने के लिए मजबूर किया करती है ?

शीतयुद्ध के काल में कम्युनिस्ट आंदोलन की जो एकान्वित छवि तैयार हुई थी, उससे उत्पन्न आत्मरति और उसकी आक्रामकता यदि आज भी ज़िंदा रहने की ज़रूरत बनी हुई है तो यही मानना पड़ता है कि भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन आज भी सोवियत समाजवाद के काल में अटका हुआ है ।

1989 के बाद से दुनिया का नक़्शा काफ़ी बदल गया है । समाजवाद ने भी अनेक नए अर्थों को हासिल किया है । मार्क्सवादी विमर्श के अनेक नए आयाम विकसित हो चुके हैं । समाजवाद की प्राणीसत्ता बंधनों से मुक्ति का संदेश देती है । उसे किसी भी राजसत्ता के बंधनों से बांधा नहीं जा सकता है, वह भले सोवियत संघ की राजसत्ता ही क्यों न हो । इसीलिए ज़रूरी है कि आज के युग के संकेतों के बीच से समाजवाद की प्राणीसत्ता को आयत्त किया जाए, और वैसी तमाम बद्धमूल धारणाओं से मुक्त हुआ जाए, जो मनुष्य की श्रेष्ठ उपलब्धियों को अपनाने के रास्ते में अनायास ही बाधा बन जाती हैं।

समानता के साथ मुक्ति के आदर्शों को अपना कर ही अपने बने रहने और अपने प्रभुत्व को क़ायम करने के लिए ज़रूरी किसी भी आक्रामकता को सही साबित किया जा सकता है।

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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