Thursday, April 25, 2024

उत्तराखण्ड: सत्ता के दरवाजे पर खड़ी कांग्रेस में घमासान

सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठम लट्ठा वाली कहावत उत्तराखण्ड कांग्रेस में चरितार्थ हो रही है। आने वाले विधानसभा चुनावों की संभावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में हैं और कांग्रेस की सत्ता की बारी का इंतजार कर रहे कांग्रेसी धड़ों में आने वाली सरकार में वर्चस्व और मुख्यमंत्री पद को लेकर महाभारत अभी से शुरू हो गयी है। इस चुनावी महाभारत में कांग्रेस पक्ष के अर्जुन माने जा रहे पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी की चुनाव अभियान संचालन समिति के मुखिया हरीश रावत ने अपने ही दल के प्रतिद्वन्दियों के खिलाफ शंखनाद कर दिया है।

रणभूमि छोड़ने की धमकी भी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं

उत्तराखण्ड की पांचवीं विधानसभा के चुनावों की घोषणा के लिये अब उल्टी गिनती शुरू हो गयी है। सरकार में बैठे लोगों द्वारा जनवरी के पहले सप्ताह चुनावों की घोषणा होने की बात कही जा रही है। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विधानसभा चुनावों का बिगुल देहरादून में बजा चुके हैं। मोदी के शंखनाद का जवाब कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की जबरदस्त जनसभा से दे चुकी है। युद्ध के मोर्चे पर रणभेरियों के बीच जब दोनों पक्ष आमने सामने खड़े हों और उस स्थिति में एक पक्ष का सेनापति राजनीति से ही सन्यास या फिर कोई और विकल्प तलाशने की बात करे तो केवल एक ही पक्ष में नहीं बल्कि समूची रणभूमि में हलचल मचनी स्वाभाविक ही है। वर्ष 2007 के चुनाव में भी जिन नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाना था वे भी सन्यास के बहाने रणभूमि छोड़ गये थे। जिस कारण कांग्रेस को बिना सेनानायक के चुनाव लड़ना पड़ा और फिर हार का मुंह देखना पड़ा।

हरीश की राह के कांटे हटते भी गये बिछते भी गये

कांग्रेस के अन्दर गुटबाजी कोई नयी नहीं है। लेकिन इस समस्या से निपटने के लिये और पार्टी पर एकछत्र वर्चस्व कायम करने के लिये हरीश रावत ने 2016 में ही सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत जैसे प्रतिद्वन्दियों को पार्टी से बाहर करा दिया था। लेकिन धुरन्धरों के जाने के बाद भी हरीश की राहें निष्कण्टक नहीं रहीं और उनको उस इंदिरा हृदयेश से चुनौती मिलती रही। पिछले चुनाव में सत्ता गंवाने के बाद इंदिरा प्रति पक्ष की नेता बनीं और उन्होंने हरीश के खिलाफ गुट में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को भी शामिल कर लिया था। उन्होंने इस मोर्चेबंदी को और मजबूत करने के लिये पार्टी प्रभारी देवेन्द्र यादव का समर्थन भी जुटा लिया था। यही नहीं कभी हरीश रावत के दायें हाथ रहे रणजीत रावत को भी रावत विरोधी गुट में शामिल कर लिया गया। यह वही रणजीत रावत हैं जो विधायक न होते हुये भी पिछली सरकार में मुख्यमंत्री हरीश रावत के बाद सत्ता के केन्द्र माने जाते थे। हरीश रावत लम्बे समय तक अपने विरोधियों के खिलाफ रणजीत रावत की दबंगयी का उपयोग करते रहे थे। रणजीत रावत की कारगुजारियों के कारण भी हरीश सरकार काफी बदनाम हुयी थी। लेकिन ऐन मौके पर डा. इंदिरा हृदयेश का निधन हो गया। उनके बाद रावत विरोधी लॉबी का नेतृत्व प्रीतम सिंह के हाथ में आ गया।

विरोधियों को हरीश का एकछत्र राज रास नहीं आया

हरीश रावत प्रदेश की सत्ता में वापसी के लिये उसी दिन से मैदान में कूद गये थे जिस दिन 2017 में कांग्रेस पार्टी के साथ ही हरीश रावत भी दो सीटों से चुनाव हार गये थे। उसके बाद उनका निरन्तर जन सम्पर्क बना रहा मगर प्रदेश अध्यक्ष और उनके गुट द्वारा उनकी राह में रोड़े भी अटकाये जाते रहे। इसीलिये लम्बे समय तक प्रतिपक्ष की नेता इंदिरा हृदयेश के निधन के बाद उनके स्थान पर न तो नये नेता का चयन कांग्रेस नेतृत्व कर सका और ना ही आगामी विधानसभा चुनावों की जिम्मेदारी किसी एक नेता को सौंपी जा सकी। चूंकि हरीश रावत केवल कांग्रेस में ही नहीं बल्कि प्रदेश की राजनीति में सबसे बड़े कद के नेता हैं। वह पार्टी की शीर्ष इकाई, कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य और पार्टी महामंत्री होने के साथ ही पंजाब कांग्रेस के प्रभारी भी रहे हैं। इसलिये उनकी उपेक्षा करना पार्टी नेतृत्व ने मुनासिब नहीं समझा और अन्ततः रावत की इच्छानुसार प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा कर खाली पड़े नेता प्रतिपक्ष के पद पर बिठाने के साथ ही हरीश रावत की पसंद के गणेश गोदियाल को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी गयी। इसके साथ ही रावत को चुनाव अभियान समिति का मुखिया बना कर चुनाव में उनके नाम पर वोट बटोरने का निर्णय लिया गया।

पार्टी प्रभारी देवेन्द्र यादव एक गुट के नेता बन गये

हरीश रावत को इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिलने और प्रदेश संगठन की बागडोर उनके समर्थक को सौंपे जाने से रावत विरोधियों की बौखलाहट और भविष्य की चिन्ता स्वाभाविक ही थी। इसलिये वे हरीश रावत को टक्कर देने में सक्षम हरक सिंह रावत, विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज जैसे पूर्व कांग्रेसियों की वापसी का प्रयास करने लगे। एक समय ऐसा भी लगा कि 2016 में कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा में गये ये बागी वापस लौट जायेंगे। लेकिन हरीश रावत उनकी वापसी में दीवार की तरह खड़े हो गये। यद्यपि पार्टी नेतृत्व द्वारा नियुक्त प्रभारी को सभी गुटों में सामंजस्य बना कर तथा सभी को एकजुट कर सत्ता में आने का प्रयास करना होता है, लेकिन उत्तराखण्ड में तैनात देवेन्द्र यादव सबको साथ लेकर चलने के बजाय केवल हरीश विरोधी गुट के नेता बन कर रह गये।

मोदी से बड़ी हुयी राहुल की सभा का श्रेय लेने की होड़

गत 16 दिसम्बर को देहरादून में आयोजित राहुल गांधी की सभा निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी की सभा से काफी बड़ी थी जो कि प्रदेश में परिवर्तन का स्पष्ट संकेत मानी जा रही थी। इस सभा की जबरदस्त सफलता का श्रेय तो प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल और चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत को मिलना चाहिये था, लेकिन देवेन्द्र यादव की सरपरस्ती में इसका श्रेय हरीश विरोधियों ने लेने का प्रयास किया। यही नहीं सभा स्थल से हरीश रावत के पास्टर बैनर तक हटवा दिये गये। हरीश विरोधियों की हरकतें इतनी आगे बढ़ गयीं कि हाल ही में रामनगर के मालधन और भीमताल की कांग्रेस सभाओं में रणजीत रावत समर्थकों ने हरीश रावत के पोस्टर बैनर और उनके समर्थन में नारे तक नहीं लगने दिये। जबकि उत्तराखण्ड में राहुल गांधी से अधिक हरीश रावत लोकप्रिय हैं। उन्हीं के नाम पर कांग्रेस की सभाओं में भीड़ उमड़ रही है और अमित शाह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक भाजपा के सभी नेता हरीश रावत के कारण ही अपनी जीत के प्रति आशंकित हैं।

कांग्रेस में हरीश से बड़ा मास लीडर कोई नहीं

उत्तराखण्ड की राजनीतिक हकीकत यह है कि यहां किसी यादव के नाम पर वोट पड़ने के बजाय वोटर बिदकते हैं। इसलिये देवेन्द्र यादव के नाम पर पार्टी के नेता पहले से ही असहज थे। दूसरी ओर हरीश रावत विरोधी खेमे में एक भी नेता मास लीडर नहीं है। स्वयं प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से इसलिये हटाया गया क्योंकि उनका जौनसार-बावर के बाहर कोई जनाधार नहीं है। उनके हनुमान आर्येन्द्र शर्मा भी जमीनी नेता नहीं हैं। हरीश रावत के लिये रणजीत रावत भले ही भस्मासुर की भूमिका निभा रहे हों मगर उनका साथ छोड़ने के बाद रणजीत का राजनीतिक अस्तित्व नगण्य है। इनमें से कोई ऐसा नेता नहीं जो कि हरीश की तरह पार्टी की चुनावी वैतरणी पार लगा सके। इसलिये कांग्रेस के अंदर के ही सूत्र बताते हैं कि हरीश रावत कहीं नहीं जा रहे हैं और सन्यास का संकेत देना उनकी सोची समझी प्रेशर टैक्टिस है।

उनके दबाव में भले ही उन्हें अब भी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किया जाय मगर वह पार्टी प्रभारी देवेन्द्र यादव को उत्तराखण्ड से बाहर करा कर ही मानेंगे। यादव ने आर्येन्द्र शर्मा को प्रत्याशियों के चयन के लिये स्क्रीनिंग कमेटी का अध्यक्ष बनवा रखा है। जबकि वह पिछले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं। उनकी योग्यता केवल यह है कि वह नारायण दत्त तिवारी के ओएसडी रहे थे। हरीश रावत को आर्येन्द्र न तब पसंद थे और न ही अब पसंद हैं। इसीलिये उनका टिकट पिछली बार कटा था। बहरहाल हरीश के राजनीतिक धमाके के बाद दोनों प्रतिद्वन्दी गुटों को दिल्ली तलब कर दिया गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस को अगर राज्य में भाजपा के खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर का लाभ उठाना है तो हरीश के ही नेतृत्व में चुनाव लड़ना पड़ेगा, भले ही उन्हें सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित न किया जाय। उत्तराखण्ड कांग्रेस में बहुमत देवेन्द्र यादव के खिलाफ है। इसलिये चुनाव से पूर्व उनकी उत्तराखण्ड से विदायी तय मानी जा रही है।

(जय सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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