Thursday, April 18, 2024

क्या तीसरे खंभे की आज़ादी अब खतरे में है?

जनाब नेतन्याहू जो फिलवक्त़ इजरायल के प्रधानमंत्री हैं को अंततः आला अदालत के फैसले के आगे झुकना ही पड़ा। उन्हें अपने मंत्रिमंडल के दूसरे नंबर के सदस्य आरेय देरी को हटाना ही पड़ा।

दरअसल इजरायल की आला अदालत ने पिछले दिनों नेतन्याहू सरकार के गठबंधन के प्रमुख सहयोगी ‘शास पार्टी’ के नेता आरेय देरी (Aryeh Deri) के कैबिनेट मंत्री बनाने के निर्णय को खारिज किया था। जो उनकी सरकार में गृहमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री जैसे दो महत्वपूर्ण पद संभाल रहे हैं और जिन्हें बाद में वित्त मंत्रालय जैसा अहम जिम्मा भी दिया जाने वाला था।

सर्वोच्च न्यायालय ने 10 बनाम 1 अर्थात बहुमत के फैसले में यह कहा कि उनकी नियुक्ति ‘अत्यधिक रूप में अतार्किक’ है क्योंकि वह न केवल आपराधिक मामलों में पहले दोषी साबित किए जा चुके हैं बल्कि वर्ष 2022 में भी टैक्स फ्राॅड के किसी मामले में भी उलझे हैं।

गौरतलब है कि नेतन्याहू की तरह जो खुद इन दिनों घूसखोरी, धोखाधड़ी और विश्वासघात जैसे आरोपों का सामना कर रहे हैं और अदालत में उन पर मुकदमा भी चल रहा है। आरेय देरी हमेशा ही विवादों में रहते आए हैं। उन्हें घुसखोरी, धोखाधड़ी आदि के लिए वर्ष 1999 में तीन साल की सज़ा भी हुई है। बाद के दिनों में वर्ष 2021 में कर उल्लंघन से जुड़े कुछ नए मामले भी सामने आए तब उनकी तरफ से यही संकेत दिया गया कि वह अब नेसेट अर्थात इजरायल की संसद से इस्तीफा देंगे और भविष्य में कार्रवाई से बचेंगे। जिसे उन्होंने अंजाम नहीं दिया और दिसम्बर 2022 में नेतन्याहू की सरकार – जिसे अभी तक की ‘सबसे दक्षिणपंथी सरकार’ कहा जा रहा है उसमें महत्वपूर्ण पदों को लेकर मंत्री भी बने। यह ऐसा कदम था जिसने इजरायल की सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत ने उन्हें पद के लिए अयोग्य माना।

क्या यह कहा जा सकता है कि नेतन्याहू सरकार ने पिछले ही माह पदासीन होने के बाद अदालत के अधिकार को सीमित करने का जो ऐलान किया था। उसका एक माकूल जवाब वहां की आला अदालत ने भी दिया है कि वह ऐसी किसी कोशिश का पुरजोर विरोध करेगी।

वैसे वे सभी जिन्होंने इजरायल की हाल की सियासी हलचलों पर गौर किया होगा तो वह बता सकता है कि दिसम्बर माह में फिर एक बार नेतन्याहू के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब होने के बाद से ही वहां जबरदस्त उथल-पुथल जारी है। इस बात को लेकर जबरदस्त चिंता प्रकट की जा रही है कि सत्ता पाने के लिए किस- किस किस्म के दक्षिणपंथियों से नेतन्याहू ने हाथ मिलाया है। अदालत के आदेश के बाद पद से हटने वाले आरेय देरी  खुद बेहद कटटरपंथी धार्मिक यहूदी पार्टी के लीडर हैं। जो न केवल फिलिस्तिनियों के अधिकारों को अधिकाधिक सीमित किए जाने के तथा उनके इलाकों में यहूदी बस्तियों को बढ़ाते जाने के पक्षधर हैं बल्कि समलैंगिकों के अधिकारों के विरोधी रहे हैं। इस नयी सरकार को अंधराष्ट्रवादी और कट्टर दक्षिणपंथी सरकार कहा जा रहा है। जिसमें बेहद नस्लवादी  इजरायल सिर्फ यहुदियों के लिए  और अरब विरोधी मंत्री भी शामिल हैं जिनमें से कुछ सभी फिलिस्तीनी बस्तियों को इजरायल में मिलाए जाने के पक्षधर हैं।

अगर नेतन्याहू के न्यायमंत्री लेविन के प्रस्तावों पर संसद की सहमति मिल जाती है। जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय को संसद के अंदर महज बहुमत से खारिज किया जा सकता था।  तो इसके बाद वहां का सुप्रीम कोर्ट सारतः कार्यपालिका की एक शाखा में तब्दील हो जाएगा। तय बात है कि इसका सबसे अधिक फायदा तुरंत खुद नेतन्याहू या उनके देरी जैसे पूर्व मंत्रियों को भी होगा। क्योंकि वहीं अब अदालत के फैसले की चिंता किए बगैर मनमाने ढंग से अपना शासन जारी रख सकेंगे।

अर्थात 120 सदस्यों वाली वहां की संसद /नेसेट में नेतन्याहू के गठबंधन के 64 सदस्य अदालत के किसी भी फैसले को उलट देंगे, जो उन्हें असुविधाजनक जान पड़े।

यह महत्वपूर्ण बात है कि इजरायली इतिहास की ‘सबसे अधिक दक्षिणपंथी सरकार’ द्वारा न्यायालय के अधिकाारों को सीमित करने की जो कोशिशें चल रही हैं, उसके खिलाफ तेल अवीव और इजरायल के अन्य प्रमुख शहरों में इजरायल की विपक्षी पार्टियों और नागरिक समाज की पहल पर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन लगातार जारी हैं। बीते शनिवार को तेल अवीव में हुए प्रदर्शनों में एक लाख से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया, जिन्होंने कहा कि हम  ‘इजरायल के भविष्य’ के लिए लड़ रहे हैं। इन प्रस्तावों को लेकर इजरायल के विपक्षी नेता ने कहा कि यह सुधार ‘इजरायल की समूची कानूनी व्यवस्था को खतरे में डाल देगा। इसके पहले भी विरोधों की आवाज़ लगातार बुलंद होती रही हैं।

वैसे शेष दुनिया में इजरायल के इस अंदरूनी घटनाक्रम को लेकर चिन्ता की लकीरें तेज हो रही है अलबत्ता यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में – जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर हम नवाज़ते हैं, जहां नेतन्याहू के  ‘बेस्ट फ्रेंड’ मोदी की हुकूमत है, वहां के सत्ताधारी तबकों में वहां के आगे के घटनाक्रम को  बहुत उत्कंठा से देखा जा रहा है,खासकर न्यायपालिका पर बंदिशें लगाने की कोशिशों को।

वजह साफ है कि इस ‘मदर ऑल डेमोक्रेसीज’ में भी वही सिलसिला जारी है, अलबत्ता थोड़े अलग तरीके से। यहां न्यायपालिका पर कभी सीधे हमले करके और कभी अन्य तरीके से दबाव डाल कर वही कोशिशें चल रही हैं।

फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि किस मुल्क ने किस मुल्क को प्रेरित किया ? 

क्या 2014 में सत्तारोहण के बाद भारत में जनतांत्रिक संस्थाओं पर वे चाहे संसद हो या कार्यपालिका हो एक तरह से नकेल डालने की जो कोशिशें यहां तारी हैं, उससे नेतन्याहू ने प्रेरणा ग्रहण की है या नेतन्याहू के आक्रामक कदमों पर मोदी सरकार फिदा हो गयी है और उसी सिलसिले को दोहराना चाहती है।

वैसे मोदी के वज़ीरे आज़म बनने के बाद से ही इजरायल के साथ भारत के संबंध अधिक गहरे हो चले हैं।

याद कर सकते हैं कि इसी गहराते रिश्ते का प्रतिबिम्बन भारत में इजरायली दूतावास के प्रतिनिधि द्वारा जारी उस ट्विट  में मिल सकता था, ‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे’ जो उसकी तरफ से तीन साल पहले किया था । इस ट्विट में तत्कालीन प्रधानमंत्राी नेतन्याहू और मोदी की एक शार्ट क्लिप शेयर की गयी थी और पीछे शोले का गाना चल रहा था। मौका था अंतरराष्ट्रीय मैत्री दिवस का और नेतन्याहू अपने ‘बेस्ट फ्रेंड’ मोदी को पहले ही बधाई दे चुके थे और उसी अंदाज में मोदी ने भी जवाब दिया था।

अगर हम विगत कुछ सालों पर निगाह डालें तो यह देख सकते हैं कि मोदी और नेतन्याहू की इस ‘दोस्ती’ का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है।

नेतन्याहू  इजरायल के इतिहास के अब तक के सबसे अधिक समय तक रहनेवाले प्रधानमंत्री हैं।  पहली दफा 1996 में इस पद पर बैठे थे। उनका यह  कार्यकाल 1999 तक चला था। जब राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी कहीं भी नही थे। शायद वह भाजपा के कामकाज के लिए मददगार के तौर पर भेजे जाते संघ प्रचारक के तौर पर किसी राज्य का जिम्मा संभाल रहे थे और 2014 में ही प्रधानमंत्री बने थे।

यह अलग बात है कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत का रूझान इजरायल की तरफ अधिक बढ़ा दिखता है और नेहरू काल से चली आ रही फिलिस्तिनियों के समर्थन की नीति लगातार हल्की होती जा रही है। यह भी देखने में आ रहा है कि राज्य चलाने के चंद नुस्खे भी भारत इजरायल से हासिल कर रहा है

इजरायल जासूसी साफ्टवेयर पेगासस जो निशानदेही पर नागरिकों की निगरानी करता है तथा जिसने पिछले कुछ समय से दुनिया में हंगामा मचा रखा है। जिसने दुनिया के तमाम मुल्को में जांच को भी जन्म दिया है और वहां की सरकारों को एक तरह से शर्मिंदा भी होना पड़ा है। वह इजरायल और भारत के ऐसे ही ‘मधुर रिश्ते’ के बीच खरीदा गया था, जब वहां नेतन्याहू प्रधानमंत्री थे।

अभी पिछले ही साल ‘तुरंत न्याय’ दिलाने के नाम पर बुलडोजर का इस्तेमाल भाजपा शासित सूबों में तेजी से शुरू हुआ। जिस रणनीति पर इजरायल की हुकूमत लंबे समय से काम करती रही है।

जिसके तहत लोगों को गैरकानूनी ढंग से सामूहिक सज़ा दी जाती है। अगर आप किसी अभियुक्त का मकान गिराने जाएं, बिना अदालत द्वारा उसके मामले पर कोई सुनवाई किए हुए  उसके साथ मकान में  रहने वाले तमाम लोग भी दंड के भागी बन जाते हैं। उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह सिलसिला मध्यप्रदेश, गुजरात और बाद में असम तथा कर्नाटक में भी पहुंचा है, जहां सामाजिक एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के मकानों को गिराने के पीछे ‘गैरकानूनी अतिक्रमण’ का आसान तर्क परोसा जा रहा है।

कोई सवाल नहीं, अदालती कार्रवाइयों की समाप्ति का कोई इंतज़ार नहीं, कानूनी दांव पेंच की कोर्ह जगह नहीं।

वैसे यह महज संयोग नहीं है कि इजरायल और भारत एक साथ ही न्यायपालिका पर अंकुश लगाने में मुब्तिला है, नेतन्याहू बाकायदा बिल लाकर इसे करना चाहते हैं तो मोदी सरकार विभिन्न तरीकों से आजमा रही है।

भारत सरकार की फिलवक्त़ कोशिश जजों की नियुक्ति के मामले में अपना औपचारिक दखल कायम करना है, तथा उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर किस तरह का यह आघात होगा।

अभी तक न्यायपालिका में जजों के चयन का जिम्मा सिर्फ काॅलेजियम के हाथों होता है जो न्यायाधीशों का ही एक पैनल होता है। इस कॉलेजियम में ही निचली अदालतों के न्यायाधीशों को प्रमोट करने या अग्रणी कानूनविदों को न्यायाधीश बनाने का प्रस्ताव तैयार होता है, जो केन्द्र सरकार को भेजा जाता है। अगर केन्द्र सरकार किसी पूर्वाग्रह के चलते इस चयन पर सवाल उठाती है, तो ऐसा नहीं कि वह नियुक्ति रूक जाती है, कॉलेजियम चाहे तो उसे फिर लौटा सकती है और फिर केन्द्र सरकार को नियुक्ति करनी ही होती है।

हम यह देख सकते हैं कि केन्द्र सरकार की तरफ से न्यायपालिका की इस प्रणाली को कमजोर करने तथा अपने नुमाइंदों को वहां बिठाने के लिए ढेर सारी कसरत की जा ही है। कानून मंत्री किरण रिजिजू ने तो बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश को पत्रा लिखा कि न्यायाधीशों के चयन की सलेक्शन कमेटी में सरकारी प्रतिनिधि भी रहना चाहिए। इतना ही नहीं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जयपुर में एक व्याख्यान में न केवल संविधान के बुनियादी ढांचे पर सवाल उठाए बल्कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। अभी ताज़ा बयान में दिल्ली बार एसोसिएशन के कार्यक्रम में बोलते हुए किरण रिजिजू ने ‘न्यायाधीशों’ को चुनाव नहीं लड़ने पड़ते, इस बात पर जोर देते हुए उनके चयन में सरकार की दखलंदाजी की अलग ढंग से हिमायत की।

वैसे न्यायपालिका पर अपना वर्चस्व पूरी तरह कायम करने के पीछे की सरकार की बदहवासी समझ में आती है। 2019 के चुनावों के पहले सर्वोच्च न्यायालय में – जब रंजन गोगोई प्रमुख थे, जो सेवानिवृति के तत्काल बाद राज्यसभा के सांसद भी बनाए गए। जिन्होंने सरकार के लिए असुविधाजनक लगने वाले तमाम मुददों को कभी छुआ नहीं। केन्द्र सरकार के लिए यह स्पष्ट था कि लोकतंत्र के इस तीसरे खंभे से उसके लिए किसी भी किस्म की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ेगा। अब स्थितियां बदली हैं। 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं, 2023 में कई राज्यों के भी चुनाव हैं तथा भारत जोड़ो यात्रा आदि मुहिमों से तथा सरकार की अपनी नाकामियों से उसे अपनी जीत सुनिश्चित नहीं दिखती। इसलिए वह न्यायपालिका को पूरी तरह अपने पक्ष में करना चाहती है। 

लोकतंत्र के दो अहम खंभों विधायिका और कार्यपालिका पर उसका नियंत्रण कायम हो चुका है और लोकतंत्र का चौथा खंभा लोकप्रिय भाषा में मुख्यधारा का मीडिया गोदी मीडिया में रूपांतरित हो चुका है और बचा है तीसरा खंभा न्यायपालिका का।

सरकार जानती है कि संविधान को पूरी तरह कमजोर करने और हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ने के उसके इरादे में न्यायपालिका कभी भी बाधा बन सकती है। उस पर अपना वर्चस्व कायम किए बिना इसे अंजाम नहीं दिया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान का असली संरक्षक है, जिसका प्रमुख काम संविधान के कानूनों के तहत नागरिकों को प्रदत्त बुनियादी अधिकारों पर हमले न हो, उनमें कटौती न हो और केन्द्र में सत्तासीन सरकार जो खुद नागरिकों को धर्म के आधार पर बांटने की जुगत भिड़ा रही है, उसके लिए यह तमाम बातें प्रतिकूल हैं।

फिलवक्त़ यह बात भले इतिहास हो चुकी है कि किस तरह भाजपा के पूर्ववर्ती लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसी तंज़ीमों ने न केवल संविधान बनाने का विरोध किया था बल्कि भारत के इतिहास में पहली दफा स्त्रियों को खासकर हिन्दू स्त्रियों को सीमित अधिकार देने की कोशिश में प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल का भी विरोध किया था।

अपने ताज़ा कदम के जरिए जिसका तााल्लुक घोषित रूप में समलैंगिक सौरभ किरपाल जैसे व्यक्ति को उच्च न्यायालय में नियुक्त करने के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगा कर सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से यह स्पष्ट किया है कि सरकार द्वारा न्यायपालिका पर अंकुश लगाने की कोशिशों पर वह भी चुप नहीं बैठेगी। जिनकी नियुक्ति में केन्द्र सरकार ने लंबे समय से अडंगा लगाया था।  पिछले दिनो मुंबई में अपने नानी पालकीवाला व्याख्यान में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने संविधान का बुनियादी ढांचा जिस पर उपराष्ट्रपति धनखड़ ने हमला किया था। किस तरह हमारे लिए ध्रुव तारा है यह बात करते हुए अपने रूख को साफ किया। है।

न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने और कार्यपालिका के मनमानी दखल से उसे दूर रखने का यह संघर्ष एक लंबा संघर्ष है और फिलवक्त इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि दोनों मुल्कों में इसका क्या नतीजा निकलेगा। 

वैसे नतीजा चाहे जो भी निकले लेकिन इसने दोनों मुल्कों की जनता के बीच के फर्क को अचानक रेखांकित किया है। एक तरफ जहां इजरायल के नागरिक लोकतंत्र को बचाने के लिए न्यायपालिका के तीसरे खंभे की हिमायत के लिए लाखों की तादाद में सड़कों उतर रहे हैं, वहीं भारत की जनता मोदी सरकार की इन नापाक कोशिशों के बारे में खतरे को जानते हुए अभी भी इस मसले पर सड़कों पर नहीं है। यह चुप्पी कब तक बनी रहेगी, यह अहम सवाल है। 

(सुभाष गाताडे वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं )

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