Thursday, March 28, 2024

जोखिम भरा है ‘क्वैड’ पर दांव

भारत पहले ही अमेरिकी नेतृत्व वाले ‘क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग’ (चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता) का औपचारिक हिस्सा बन चुका है, इसलिए यह कोई चौंकाने वाली खबर नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 24 सितंबर को वॉशिंगटन में इस गुट की आमने-सामने होने वाली पहली शिखर बैठक में भाग लेंगे। मोदी इसके पहले इसी साल मार्च में चौगुट (क्वैड) की वर्चुअल शिखर बैठक में भाग ले चुके हैं। बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं है कि पहली बार शिखर बैठक का होना इस समूह के स्वरूप लेने की प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण मुकाम है। लेकिन हैरतअंगेज यह है कि इस समूह को सक्रिय करने की प्रक्रिया में गुट का नेता- यानी अमेरिका इसके असली मकसद को परदे के पीछे रखने की कोशिश में जुटा दिखता है। और बाकी तीन सदस्य देशों को भी यही रणनीति रास आ रही है।

ह्वाइट हाउस ने 24 सितंबर की शिखर वार्ता का एलान करते समय जो बयान जारी किया, उसमें चीन का उल्लेख नहीं किया गया। जबकि चौगुट के गठन की पृष्ठभूमि से परिचित हर व्यक्ति यह जानता है कि इस समूह का मकसद दुनिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करना है। अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों का यह विशेष उद्देश्य है, क्योंकि उपनिवेशवाद का दौर शुरू होने के बाद चीन पहली बार एक ऐसी गैर-पश्चिमी ताकत के रूप में उभरा है, जिससे दुनिया पर उन देशों के वर्चस्व के लिए चुनौती पैदा हुई है। पिछली सदी में सोवियत संघ जरूर पश्चिम के लिए एक सैनिक चुनौती के रूप उभरा था, लेकिन आर्थिक या तकनीकी मोर्चे पर (अपवाद स्वरूप स्पुतनिक सदमे के एक मौके को छोड़कर) उसकी हैसियत कभी ऐसी नहीं बन पाई, जिससे पश्चिम अपने लिए खतरा महसूस करता। जबकि चीन के मामले में बात बिल्कुल उलटी है। चीन ने असल चुनौती आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में ही पेश की है।

अमेरिका को इस चुनौती का अहसास 2008 की आर्थिक मंदी के बाद हुआ, जब ये आम धारणा बनी कि उस झटके से दुनिया को चीन ने उबारा है। और उसके बाद से ही चीन को घेरने की उसकी रणनीति वजूद में आ गई। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में इस रणनीति को pivot of Asia (एशिया की धुरी) नाम से पेश किया गया। डॉनल्ड ट्रंप के युग में इसे इंडो-पैसिफिक नाम दे दिया गया। क्वैड इसी रणनीति का एक हिस्सा है। हालांकि चार ‘लोकतांत्रिक’ देशों- अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान का ऐसा गुट बनाने का सुझाव सबसे पहले 2005 में जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिन्जो आबे ने दिया था, लेकिन तब ये विचार आगे नहीं बढ़ सका। इसकी वजहें दो थीं- एक तो तब अमेरिका चीन को अपना मुख्य प्रतिस्पर्धी नहीं समझता था। दूसरी वजह यह थी कि भारतीय विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता के कुछ अवशेष बचे हुए थे, इसलिए तत्कालीन नेतृत्व किसी एक बड़ी ताकत के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ने को लेकर अनिच्छुक था।

अमेरिका को जब चीन से पैदा हुई चुनौती का अहसास हुआ, तो उसे शिन्जो आबे के सुझाव में दम नजर आने लगा। दूसरी तरफ 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के साथ ही भारतीय विदेश नीति में अमेरिका से जुड़ने और चीन से ‘लोहा लेने’ की सोच प्रमुखता पा गई। गौरतलब यह है कि जापान और ऑस्ट्रेलिया दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिकी धुरी से जुड़े रहे हैं। जापान तो तब से ही अमेरिका का अधीनस्थ (client state) रहा है। जबकि भारत की प्रतिष्ठा स्वतंत्र विदेश नीति वाले निर्गुट की देश की थी, जिससे हटने की शुरुआत हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकारों के समय ही हो गई थी, लेकिन मोदी सरकार के समय उस नीति को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी गई है।

देश के अंदर इस तरह की विदेश नीति के लिए जन समर्थन होने की वजहें देश के भीतर के वर्गीय अंतर्विरोधों में मौजूद हैं। बहरहाल, यहां ये पहलू हमारा विषय नहीं है। इस लेख में हम इस बात पर गौर करना चाहते हैं कि क्वैड में पूर्ण सक्रियता के साथ भारत की विदेश नीति का जो स्वरूप जाहिर हुआ है, उसके क्या परिमाण हो सकते हैं?

सबसे पहला सवाल यह है कि क्या चीन की शक्ति को नियंत्रित करना अमेरिका की तरह भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए? ये सवाल अगर 30 या कम से कम 20 साल पहले पूछा जाता, तो उसका जवाब हां में हो सकता था। लेकिन आज चीन और भारत के बीच आर्थिक और तकनीकी मोर्चों पर फासला इतना बढ़ चुका है कि इस रणनीति से भारत को क्या लाभ होगा, यह समझ पाना मुश्किल है। बल्कि अनेक रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि इस वक्त पर भारत का हित इसमें है कि वह तनाव और टकराव से बचते हुए अपना ध्यान आर्थिक विकास पर केंद्रित करे। ठीक उसी तरह जैसे कभी चीन ने ‘अपनी क्षमता छिपाने और समय काटने’ की रणनीति अपनाई थी। जबकि क्वैड से जुड़ने का मतलब चीन के साथ पहले से ही जारी तनाव को और बढ़ाना और रक्षा के मोर्चे पर अपनी चुनौतियों में इजाफा करना है।

यह दांव सिर्फ तभी फायदेमंद हो सकता था, अगर चौगुट में शामिल बाकी तीन देश रक्षा चुनौती का मुकाबला करने में भारत के साथ खड़ा होने का विश्वसनीय वादा करते और साथ ही भारत के आर्थिक विकास में प्राथमिकता के आधार पर मददगार बनने का इरादा दिखाते। लेकिन इसका कोई संकेत नहीं है।

लगभग डेढ़ साल से लद्दाख क्षेत्र में चीन की सेना उन जगहों तक आ कर जमी हुई है, जहां उसके पहले तक भारतीय फौज गश्त लगाती थी। जिन कुछ बिंदुओं पर तनाव घटाने की दिशा में कदम उठाए गए हैं, वहां भी बफर जोन बनाने पर सहमति बनी है और ये जोन उस क्षेत्र में बने हैं, जहां पहले भारतीय सेना बेरोक आया-जाया करती थी। ध्यान देने की बात यह है कि इस पूरे संकट के समय में जुबानी समर्थन के अलावा अमेरिका, जापान या ऑस्ट्रेलिया ने भारत की कोई मदद नहीं की है। अगर पिछले 70 साल में अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर अमेरिका के इतिहास के देखा जाए, तो यह मानने की कोई वजह नहीं हो सकती कि भविष्य में भी वह भारत की मदद के लिए सक्रिय रूप से आगे आएगा। इस सिलसिले में तीन बिंदुओं को हमें जरूर ध्यान में रखना चाहिएः

  • हाल के वर्षों में भारत के अमेरिका के साथ गहराए रिश्तों के बावजूद अफगानिस्तान में हाल में पैदा हुए संकट के क्रम में अमेरिका ने भारत की चिंताओं की कोई परवाह नहीं की है। जबकि ये आम समझ है कि अफगानिस्तान का पड़ोसी देश होने, तालिबान के पिछले रिकॉर्ड के आधार पर उसको लेकर भारत में एक खास प्रकार की चिंता होने, और तालिबान के पाकिस्तान से निकट संबंधों के कारण अफगानिस्तान की घटनाओं से भारत के हित सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। मगर पिछले हफ्ते ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने एक भारतीय पत्रकार के सवाल पर यह दो टूक कह दिया कि ‘अमेरिका अफगानिस्तान की घटनाओं को भारतीय चश्मे से नहीं देखता है।’
  • इसके पहले इसी साल जुलाई में जब अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौज हटाने की तैयारियों में जुटा था, तब उसने वहां की स्थिति को संभालने के मकसद से एक अलग ‘क्वैड’ बना लिया। उस चौगुट में अमेरिका के अलावा जिन तीन देशों को रखा गया, उसमें एक पाकिस्तान भी था। बाकी दो देश अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान थे। यानी अमेरिका ने फौज वापसी के बाद अफगानिस्तान में स्थिरता कायम रखने में पाकिस्तान की भूमिका तो देखी, लेकिन उसे नहीं लगा कि भारत के हित भी अफगानिस्तान से जुड़े हुए हैं, इसलिए उसे भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। 
  • अगर चीन के सिलसिले में ही देखें, तो जो बाइडेन प्रशासन इस बात पर जोर देने में कोई कसर नहीं छोड़ता कि चीन के साथ उसकी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन वह टकराव नहीं चाहता। यही बात कहने के लिए बाइडेन ने पिछले हफ्ते चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को फोन किया। अब सामने आए ब्योरे के मुताबिक उस दौरान बाइडेन ने शी से व्यक्तिगत मुलाकात की पेशकश की, जिस पर शी ने ध्यान नहीं दिया। बाइडेन ने पिछले जनवरी में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद से चीन के साथ संवाद बनाए रखने की लगातार कोशिश की है। मगर भारत का चीन से द्विपक्षीय संवाद लगभग टूटा हुआ है।

रक्षा विशेषज्ञों के एक हिस्से में ये राय है कि बड़ी ताकतों के बीच कभी युद्ध नहीं होता। इसलिए उनकी समझ है कि अमेरिका और चीन के बीच भी तनाव बढ़ने के बावजूद सीधी लड़ाई नहीं होगी। लेकिन इस बीच अधीनस्थ देशों के साथ लड़ाई की स्थिति जरूर पैदा हो सकती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद इतिहास में ऐसी कोई मिसाल नहीं है, जब कोई महाशक्ति अपने अधीनस्थ या सहयोगी देश की रक्षा में उसकी तरफ से युद्ध में उतरी हो।

बल्कि भारत में बढ़ी अमेरिकी दिलचस्पी में कुछ दूसरे क्षेत्रों में भारत का ‘इस्तेमाल करने’ की सोच के संकेत पाए जा सकते हैं। यह तो सर्वमान्य है कि भारत के पास एक बड़ी और ताकतवर सेना है। यह सेना थल और समुद्र में चीन को घेरने में खास भूमिका निभा सकती है। जब दक्षिण चीन सागर कथित मुक्त नौवहन के मुद्दे पर टकराव का क्षेत्र बना हुआ है, उस समय अमेरिकी दृष्टि में भारत जैसी सैन्य शक्ति का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। गौरतलब है कि जापान के पास युद्ध लड़ने वाली सेना नहीं है, जबकि ऑस्ट्रेलिया इस लिहाज से एक कमजोर ताकत है।

इसी बीच अमेरिकी मीडिया में आई यह खबर ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका भारत पर कोरोना वैक्सीन के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने के लिए दबाव डाल रहा है। इस खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भी बाइडेन प्रशासन का यह एक प्रमुख एजेंडा होगा। मार्च में हुई क्वैड की ऑनलाइन शिखर बैठक के समय इन देशों ने दुनिया को कोरोना वैक्सीन का अनुदान देने के लिए एक अरब डोज का उत्पादन करने का फैसला किया था। जाहिर है, उनका इरादा चीन की ‘वैक्सीन कूटनीति’ का मुकाबला करना है। मगर इसके सदस्य देशों में जापान और ऑस्ट्रेलिया के पास वैक्सीन उत्पादन की कोई क्षमता नहीं है। वे अधिक से अधिक इसके लिए धन उपलब्ध करवा सकते हैं। वैक्सीन उत्पादन की क्षमता भारत और अमेरिका के पास है। लेकिन अमेरिका कोरोना महामारी की नई लहर से जूझ रहा है। ऐसे में वह एक तरफ वैक्सीन अनुदान के कारण दुनिया के कई हिस्सों में चीन के प्रति बढ़ी सद्भावना से चिंतित है, वहीं वह खुद को ज्यादा उदारता दिखाने की स्थिति में नहीं पाता। तो उसकी नजर भारत पर टिकी है, जहां टीकाकरण की दर वैसे ही अपेक्षाकृत धीमी है।

इसके अलावा व्यापार, कारोबार और विश्व व्यापार संगठन में भारत के हितों पर भी अगर गौर करें, तो वहां अमेरिका ने कोई दोस्ताना रुख अपनाया है, इसके संकेत नहीं मिलते। ऐसे में प्रश्न यही उठता है कि आखिरकार एक अंग्रेजी कहावत के मुताबिक उसकी झोली में सारे अंडे रख देना भारत के लिए कितना सुरक्षित और लाभदायक रणनीति है? बेशक यह कहा जा सकता है कि क्वैड में शामिल होने के साथ-साथ भारत अभी भी ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन का भी सदस्य है, जहां चीन और रूस की बड़ी भूमिका है। इस तरह भारत अपनी विदेश नीति में स्वतंत्रता बरकरार रखे हुए है। लेकिन ये सदस्यता पुरानी है, उन गुटों की भूमिका ज्यादातर आर्थिक और आतंकवाद से मुकाबला करने के क्षेत्र में है, उनमें सुरक्षा का पहलू न्यूनतम है, इसलिए उनकी तुलना सिक्योरिटी के नाम पर बने समूह के साथ करना उचित नहीं होगा। वैसे भी भारतीय विदेश नीति में अमेरिका के साथ जुड़ने और उसकी विश्व दृष्टि के मुताबिक सोचने की जैसी प्रवृत्ति नजर आती है, उससे यह साफ है कि भारतीय विदेश नीति किस दिशा में जा रही है या इसमें किस दिशा को प्राथमिकता दी जा रही है।

अफगानिस्तान की हालिया घटनाओं से अमेरिका की वैश्विक प्रतिष्ठा पर आंच आई है। चीन के रुख में आई एक नए प्रकार की सख्ती (जिसे पश्चिमी मीडिया में वूल्फ वॉरियर कूटनीति कहा जाता है) से इस धारणा को चुनौती मिल रही है कि अमेरिका को कोई चुनौती नहीं दे सकता। ऐसे मौके पर जब विश्व शक्ति संतुलन में बड़े बदलाव के ऐसे लक्षण साफ हो रहे हैं, तब जाहिर है, बुद्धिमानी गुटीय रणनीति से दूर रहते हुए अपना हित साधने में होती। लेकिन भारत सरकार ने एक गुट के अधिक करीब जाने का फैसला किया है, जिसके क्या लाभ भारत को मिलेंगे, यह अभी साफ नहीं है। जबकि इस रणनीति के जोखिम सबके सामने हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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