Friday, April 19, 2024

“न्यायतंत्र भारत से विदा हो चुका है”

(कहा जाता है कि किसी चीज को नापने का सबसे बड़ा पैमाना जनमत होता है। और लोकतंत्र में वैसे भी इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मामला जब सीधे सिस्टम या फिर उससे जुड़ी किसी संस्था का हो तो इसकी अहमियत और बढ़ जाती है। और उससे भी ज्यादा यह तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब धरती पर भगवान का दर्जा हासिल करने वाले हिस्से यानी कोर्ट से यह जुड़ा हो। सुप्रीम कोर्ट में कुणाल कामरा प्रकरण ने अब इसी तरह का दर्जा हासिल कर लिया है। और एटार्नी जनरल द्वारा कामरा के खिलाफ अवमानना के मामले को चलाने की अनुमति देने के बाद यह पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है। क्या छोटा, क्या बड़ा हर किसी की इस मसले पर अपनी राय है। जनचौक और राइजिंग राहुल के एक यूट्यूब वीडियो पर जो प्रतिक्रियाएं आयी हैं वो आंखें खोलने वाली हैं। इन प्रतिक्रियाओं को देखकर सहज ही इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में न्यायिक संस्थाएं किस अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही हैं। और अगर उनमें सुधार की कोशिश नहीं की गयी तो यह न केवल भारतीय व्यवस्था और संविधान बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए बेहद घातक होगा। वैसे भी लोकतांत्रिक और न्यायिक संस्थाएं साख से चला करती हैं एकबारगी अगर उन पर से विश्वास उठ गया तो फिर बहाल होने में सालों-साल लग जाएंगे और उससे होने वाली क्षति की भरपायी शायद ही कभी हो पाए। लिहाजा इस मसले पर आम लोगों की तरफ से आयी प्रतिक्रियाओं को यहां दिया जा रहा है। आप भी उन्हें पढ़िए और फिर गुनिये। और अगर संभव हो सके तो संबंधित संस्था और उसमें बैठे लोगों तक पहुंचाइये: संपादक)

कार्ला टेडेशी-कहती हैं– अगर सुप्रीमकोर्ट कुणाल कामरा को सज़ा देता है तो ये साबित कि सुप्रीमकोर्ट …गला है।

एसएम तारिक लिखते हैं दलाल ब्राह्मणों की संस्था बन के रह गया है सुप्रीमकोर्ट। जितने भी समर्थक सुप्रीमकोर्ट और अर्णब के आ रहे हैं सब के सब संघी हैं।

इरशाद अख़्तर लिखते हैं- इसका अर्थ है कि रामराज, आरएसएस राज, मीडिया राज भाजपा और सेंट्रल गवर्नमेंट द्वारा चलाया जा रहा है।

जेम्स माइकल लिखते हैं- कुणाल कामरा ने सही और सच कहा है। अर्णब को जमानत मिल गई और दूसरे लोगों को नहीं।

रेखा कुमार कहते हैं- सम्मान कमाना पड़ता है, मांगा नहीं जाता, बात कब समझ आएगी। 

इरशाद अख़्तर लिखते हैं- अब कोर्ट/जज पर कोई विश्वास नहीं करेगा। क्योंकि कोर्ट से आने वाले फैसले एकतरफा और पक्षपाती हैं। 

संतोष शिरवाडकर लिखते हैं- “एक ही बात के लिए दोहरा मापदंड करना न्यायालय की कौन सी पद्धति है। पैसा बोलता है भाई। गरीब की कोई सुनवाई नहीं। 

कृषि ज्ञान लेखते हैं- “कुणाल कामरा ने नहीं बल्कि खुद सुप्रीमकोर्ट ने अपनी गरिमा को ठेस पहुंचाई।”

देश बंधु गुप्ता लेखते हैं- “कुणाल वाकई में महान व्यक्ति हैं और आवाज विहीन लोगों की आवाज़ दी है। भारत का कोई भी नागरिक जो शांतिप्रिय है और जो इस सच को समझता है कि कैसे हंसी का पात्र बन चुका है। लोगों का मौजूदा सरकार से भरोसा उठ चुका है जो कि देश की हर लोकतांत्रिक संस्था को तहस नहस करने के लिए जिम्मेदार है।”

आईजैक जाला लिखते हैं- ये सही समय है ‘कंटेंम्प्ट ऑफ कोर्ट’ को क़ानूनी तौर पर परिभाषित किया जाना चाहिए। 

राज सिंह लिखते हैं- “सुप्रीमकोर्ट नहीं है, सुप्रीम ….त्ता है बीजेपी का। कुणाल कामरा भगत सिंह हैं।”

इरशाद अख़्तर लिखते हैं-” न्यायतंत्र भारत से विदा हो चुका है। कोर्ट/जज भाजपा और केंद्र सरकार के लिए काम कर रहे हैं। 

राजश्री लुमांग लिखते हैं- “एडवोकेट चांदनी शाह कौन है? अपने आपको विवादों में डालकर वो कुछ फेम हासिल करना चाहती हैं।” 

फिल एलएनपीएस लिखते हैं -” सुप्रीमकोर्ट ने अपनी स्वतंत्रता और वर्चस्व को गलत बताया है।”

ब्रह्मेश्वर सिंह कहते हैं- “सुप्रीमकोर्ट को इज़्ज़त पाने के लिए उसके योग्य कार्य भी करना होगा। अब तो सच में लगने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट में दलाल बैठे हैं। 

हेमंग वैद्य एक कदम और आगे बढ़कर कहते हैं – “सब को सुप्रीमकोर्ट को गाली देना चाहिए, देखते हैं कितनों को जेल भेजते हैं।”

समीर शर्मा कहते हैं- “देशहित में है कुणाल कामरा का ये साहसिक कदम।” 

भरतार्जु केआर लिखते हैं- सुप्रीम कोर्ट अब स्टूडियो में भौंकने वाले दूसरे दर्जे के पालतू कुत्तों को भी सुनने लगा है जिनका काम रैबीज फैलाना है। जजेज भी मोदी के पिछलग्गुओं को शरण देने लगा है।

इसलिए नेताओं के नौकरों की दासता स्वीकार करना जजों के लिए जरूरी हो गया है।

संतोष कुमार लिखते हैं- “कुणाल कामरा ने कुछ गलत कहा क्या! क्या सुप्रीमकोर्ट अपनी बेइज्ज़ती के लिए जिम्मेदार नहीं है। जज साहेब लोग सोचिए कहीं कुछ गलत तो नहीं हो रहा है।” 

ओम प्रकाश शर्मा लिखते हैं- “अगर सुप्रीम कोर्ट मंदिर है, क्या जज और वकील भगवान हो गये हैं। कामरा ने सही बात कही है। आज करोड़ों भारतीयों की आवाज़ हैं वो। आज गिने चुने लोग जनता की आवाज़ दबाने की कोशिश कर रहें हैं।”

फ्यूचर च्वाइस ड्रिंक नामक प्रोफाइल से लिखा गया है कि – “जब दो लोगों के दस्तख़त से उच्च पदों पर भर्तियां होंगी तो नौकरी पाए लोग उन दोनों के इशारे पर ही काम करेंगे। सभी संस्थाएं प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की कर्मचारी बनती जा रही हैं।” 

निजामुद्दीन लिखते हैं- “आज के समय में गुलामी व चाटुकारी के लिए लोग हर सीमा लांघ चुके हैं, नहीं तो सही गलत की समझ सबको है।”

हमें वैद्य सवाल उठाते हुए लिखते हैं- “शेफाली वैद्य और समीर पर केस क्यों नहीं? कोर्ट को गाली कबूल है मज़ाक नहीं। कोर्ट की गरिमा की हानि तो खुद चंद्रचूड़ ने की है।”

सुरेश चंद्र कुणाल कामरा के समर्थन में कहते हैं- “जन साधारण की आवाज़ उठाकर अपने आप जोखिम ली ये कर्तव्य निष्ठा का अनुपम उदाहरण है। झुकना नहीं देश आपके साथ है।”

राकेश सिन्हा कहते हैं- “न्यायतंत्र पर शर्मिंदा हैं।”

एस एस लिखते हैं- “आज के भारत में सिर्फ़ एक ही मर्द है। जिसका नाम कुणाल कामरा है। बाकी हम सब सिर्फ़ बच्चा पैदा करने तक ही मर्द हैं।”

शशिकांत सराटे लिखते हैं- “टैक्स के पैसा से न्याय-व्यवस्था चलती है। संविधान में राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान ना हो इसके लिए कार्रवाई की मांग या शिक़ायत करने वालों को अवमानना की सज़ा हो ऐसा कोई विकल्प नहीं है। रही बात ‘फैसला’ की तो ये भी संपत्ति है। ये किसी एक व्यक्ति को लेकर न हो। उस पर सारे देश को निर्भर होना है।”

सोशल ऑर्गेनाइजर प्रोफाइल से एक सवाल पूछा गया है कि- “क्या जज क़ानून से ऊपर हैं?”

अनिल डोनिकर जजों के राज्यसभा जाने के औचित्य को उठाते हुए लिखते हैं-” कोर्ट है कहां? वहां तो भविष्य के राज्यसभा के सभासद हैं।”

क़ाजी तौकीर लिखते हैं- “कुणाल कामरा ने जो कहा सही बात कही है। सत्ता पक्ष के लोगों को तुरंत जमानत मिलना कहां इंसाफ़ है। बहुत से लोग जमानत के लिए सालो इंसाफ की उम्मीद लगाए बैठे हैं उनको जमानत नहीं मिलती है अब तो इंसाफ़ भी दो तरफ़ा हो रहा है।”

मोती लाल रे लिखते हैं- “कुणाल कामरा ने चोरों की दुखती घाव पर हाथ रख दिया है।” 

प्रदीप काले लिखते हैं- “पिलर ढह गया।”

जयंत चौधरी लिखते हैं- “एक कहावत है कि घोड़े को पानी तक ले जा सकते हो, लेकिन उसे पानी पिला नहीं सकते। प्यार और सम्मान भीतर से उपजता है। कोई भी शासक लोगों को मुंह में अपनी ज़बान नहीं डाल सकता। कुणाल की आलोचना करने वाले लोगों को विवेक और सब्र की ज़रूरत है।” 

राम ईश्वर प्रसाद लिखते हैं- “सच बोलने वाले देशप्रेमी होते हैं। सच बोलने से नहीं डरना चाहिए कोर्ट है तो क्या हुआ।” 

अब्दुल बारी लिखते हैं- “कोर्ट क्या है? एक बिल्डिंग है? ये जजेज हैं या ‘जस्टिस’हैं? बिल्डिंग किसी को इंसाफ़ नहीं दिला सकती है। जजेज जो इंसान हैं उनसे गलती /पक्षपात हो सकता है। जस्टिस अगर सबके लिए एकसमान नहीं हैं, न्याय अगर ताक़तवर /रसूखदारों के लिए कोई नियम नहीं है। गरीब /लाचार के लिए हर वो नियम है। जो नहीं है वो भी है। तो ऐसे’ जस्टिस’ के खिलाफ़ आवाज़ उठाना चाहिए। उसे कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट कैसे डिफाइन कर सकते हैं।”

मूल निवासी समाज संघ लिखता है-” आरएसएस भाजपा के ब्राह्मणवादी लोग इनके विरोधी के खिलाफ़ काम करते हैं। और भारत के सभी संवैधानिक संस्थानों पर इनका कब्ज़ा है। ये न्याय नहीं कर सकते क्योंकि इनमें निष्पक्ष न्यायिक चरित्र नहीं होता।”

शिव कुमार यादव लिखते हैं- “ये सब मोदी सरकार के मनुवादी जजों की वजह से हो रहा है। देश का सुप्रीम कोर्ट भी जनता की नज़र में मजाक बन गया है।”

आनंद वर्गीज सत्ता के खिलाफ़ बोलने वालों को जिंदा और चुप लोगों को मुर्दा में वर्गीकृत करते हुए कहते हैं- “ज़िंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक़ जिया करते हैं। शाबाश कुणाल।”

ललित जोशी कहते हैं- “नंगे बड़े परमेश्वर से……..मैं जज के बारे में कुछ नहीं कह रहा।” 

नासिर लिखते हैं- “ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना भी अब जुर्म हो गया, न कहूँ तो निगाहों में अपनी दर्जा नीच हो गया।”

सुरेश लिखते हैं- “कुणाल कामरा ने देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए आवाज़ उठाई है। लोकतंत्र को बचाने के लिए ये पूरे देश की आवाज़ है।”

असिफ रज़ा लिखते हैं – कुणाल कामरा ने जो मूल प्रश्न उठाया है वो बिल्कुल सही है . यदि एक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो फिर दूसरे को क्यों नहीं. रहा न्यायपालिका तो वो कितना निष्पक्ष है, कैसा न्याय दे रहा है वो पूरी दुनिया देख रही है. जज साहेबान खुद ही हंसी के पात्र बन चुके हैं. “

सुरेंद्र गुप्ता लिखते हैं- “सुप्रीमकोर्ट पहले ही प्रशांत भूषण मामले में 1 रुपये की पेनाल्टी लगाकर बड़ी ही मुश्किल से अपनी इज़्ज़त बचाई है, अब फिर कुणाल कामरा मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी फजीहत ही कराएगा। राजस्थान में कोर्ट बिल्डिंग पर भगवाधारियों ने बड़ी ही बेशर्मी से भगवा झंडा फहरा दिया था, आज तक कोर्ट उन्हें सज़ा नहीं दे पाया। क्यों नहीं तब कोर्ट के जजों को दर्द हुआ कोर्ट की अवमानना का?”

वसंत देशमुख कहते हैं- “हर आदमी को अपने मन की बात कहने का अधिकार संविधान ने दिया है।”

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