Thursday, April 18, 2024

खाकी की होगी सत्ता और देश पर चलेगा कार्पोरेट लूट का राज

(1)
पुलिसकर्मी अपने कार्यों, शक्तियों और कर्तव्यों का उपयोग सामान्य जनता और मौजूदा सरकार के निष्पक्ष सेवक के रूप में करेंगे…. किसी भी पुलिसकर्मी को,  उसके कार्यों या शक्तियों, या पुलिस संसाधनों का उपयोग करते वक्त, किसी भी राजनीतिक पार्टी या हित-समूह, अथवा वैसी पार्टी या समूह के किसी भी सदस्य को बढ़ावा देने या कमतर आंकने का न आदेश दिया जा सकता है, और न बाध्य किया जा सकता है। पुलिस का कर्तव्य है कि वह बिना किसी डर या पक्षपात के समान रूप से सभी राजनीतिक पार्टियों, व्यक्तियों और संगठनों के अधिकारों को बनाए रखे और सभी को समान रूप से संरक्षण प्रदान करे। (लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका पर संयुक्त राष्ट्र संघ के दिशा-निर्देश)

उपनिवेशवादी, राजशाही और तानाशाही व्यवस्थाएं मूलत: पुलिस-राज्य होती है, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी समय-समय पर पुलिस-राज्य की प्रवृत्तियों का उभार देखने को मिलता है। पुलिस- राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी/सरकार पुलिस-बल का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं, असहमत नागरिक समाज एक्टिविस्टों/बुद्धिजीवियों को उत्पीड़ित करने और नागरिक स्वतंत्रताओं/मानवाधिकारों का हनन करने में करती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किए हैं। समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की कसौटी पर विभिन्न देशों में पुलिस की भूमिका के बारे में रपटें प्रकाशित होती हैं।

इन रपटों से पता चलता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में भी राजनीतिक-वर्ग (पोलिटिकल क्लास) अपनी सत्ता कायम रखने के लिए पुलिस-बल का बेजा इस्तेमाल करता है। राजनीतिक सत्ता और पुलिस सत्ता के बीच गठजोड़ होता है, तो पुलिस मनमानी का एक स्वायत्त क्षेत्र भी विकसित कर लेती है। इस क्षेत्र में तस्करों/माफियाओं के साथ मिली-भगत से लेकर हफ्ता-उगाही तक और विचाराधीन कैदियों की हिरासत में मौत से लेकर ‘बदमाशों’ के एनकाउंटर तक अनेक तरह के पुलिस-कृत्य आते हैं।

पुलिस की मनमानी का सबसे बुरा असर समाज के कमजोर तबकों-अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित, महिलायें आदि पर पड़ता है। पुलिस का सत्ता-स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने वाली सरकारें पुलिस की मनमानियों की अनदेखी करती हैं। कानून में पुलिस के लिए लगभग दंड-मुक्ति (इम्प्युनिटी) का प्रावधान होने के चलते पुलिस-दमन का चक्र कभी थमता नहीं है।

पूर्व-उपनिवेशित देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में पुलिस-राज्य की प्रवृत्तियां स्वतंत्र देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा देखने को मिलती हैं। इसका कारण है कि पूर्व-उपनिवेशित देशों का पुलिस-तंत्र उपनिवेशवादी शासन की देन है। पुलिस और उसकी खुफिया शाखा उस दौर में उपनिवेशवादी व्यवस्था को मजबूती से टिकाए रखने का काम करती थी।

समाज में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी का दायित्व दूसरे स्थान पर आता था। कानून-व्यवस्था बनाए रखने की पुलिस की भूमिका भी अंतत: उपननिवेशवादी सत्ता की मजबूती से ही जुड़ी होती थी, क्योंकि कानून-व्यवस्था का वास्तविक उद्देश्य जनता के मानस में उपनिवेशवादी सत्ता के प्रति भय और निष्ठा पैदा करना था।

उपनिवेशवादी सत्ता अपने शासन का औचित्य जताने के लिए निष्पक्ष न्याय का दावा करती थी, लेकिन किसी भी मामले की जांच के दौरान दंड-प्रक्रिया संहिता की धाराएं निश्चित करने में पुलिस की पक्षपाती भूमिका निष्पक्ष न्याय की संभावना ख़त्म कर देती थी। दरअसल, दंड-प्रक्रिया संहिता की धाराओं का निर्माण ही आधिपत्य कायम रखने की नीयत से किया जाता था।

प्रत्येक देश के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेताओं और जनता के प्रति पुलिस का रवैया दमन और ज़ुल्म भरा होता था। उपनिवेश रहे प्रत्येक देश का इतिहास पुलिस-दमन, पुलिस-ज़ुल्म और पुलिस-भ्रष्टाचार की दहला देने वाली अनेक घटनाओं से भरा है।

इस तथ्य के मद्देनज़र यह जरूरी था कि उपनिवेशवाद से स्वतंत्र होने वाले देशों को लोकतंत्र की संगति में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष पुलिस-प्रणाली का निर्माण करना चाहिए था। अफसोस की बात है कि भारत में यह सबसे जरूरी काम नहीं किया गया।

इस सच्चाई को रेखांकित करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1967 में लिखा, “सच्चाई यह है कि कांग्रेस सरकार ने अपने को ब्रिटिश शासन के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करने की उत्सुकता में, बजाय लोकप्रिय क्रांति का उत्तराधिकारी बनने के, आंख बंद कर उन सब कानूनों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को गुलाम रखने के लिए बनाया था।”

लोहिया उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने वाले देशव्यापी स्वतंत्रता आंदोलन को लोकप्रिय क्रांति कहते थे, जिसमें क्रांतिकारियों की भूमिका शामिल थी। 1967 में बनी गैर-कांग्रेसी सरकारों को लोहिया ने ‘नागरिक स्वतंत्रताओं और दंड-प्रक्रिया संहिता’ के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए।

एक धुर लोकतंत्रवादी होने के नाते लोहिया ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद पुलिस-तंत्र से जुड़ी समस्याओं और उनके हल पर लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के मद्देनज़र गहराई से विचार किया है। समाजवादी होने के नाते स्वाभाविक रूप से इस समस्या पर उन्होंने विशाल गरीब भारत के पक्ष से विचार किया है। स्थापित पुलिस-तंत्र में भी वे कांसटेबलरी के अधिकारों और सुविधाओं के हिमायती थे।

वे शायद देश के अकेले राजनेता थे जिसने 1967 के दिल्ली पुलिस आंदोलन का समर्थन किया था। उस आंदोलन में दिल्ली पुलिस के सिपाहियों ने विभाग के गैर-राजपत्रित कर्मियों की यूनियन बनाने के अधिकार की मांग करते हुए राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री निवास को घेर लिया था।

लोहिया ऐसी पुलिस की परिकल्पना करते हैं जो गरीब और कमजोर को नागरिक समझ कर व्यवहार करे। लोहिया इसे एक राजनीतिक समस्या मानते थे, जिसका हल स्वतंत्र भारत की राजनीतिक पार्टियों और नेतृत्व को सैद्धांतिक निष्ठा के साथ करना चाहिए था। 

(2)
त्रावनकोर-कोचीन (अब केरल) में 16 मार्च 1954 को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) की अल्पमत सरकार का गठन हुआ था। केरल की राजनीति में ‘भीष्माचार्य’ के रूप में विख्यात पत्तुम ए थानु पिल्लई मुख्यमंत्री थे। त्रावनकोर तमिलनाडु कांग्रेस (टीटीएनसी) की अगुवाई में तमिल-बहुल इलाकों को त्रावनकोर-कोचीन से अलग कर मद्रास राज्य में शामिल करने का आंदोलन चल रहा था। जो ब्यौरे मिलते हैं उनसे पता चलता है कि आंदोलन व्यवस्थित और शांतिपूर्ण था।

विधानसभा में टीटीएनसी के 12 विधायक थे जो तमिल बहुल चुनाव क्षेत्रों से चुने गए थे। 11 अगस्त 1954 को पुलिस ने आंदोलनकारियों पर दो जगह गोली चलाई। पहली गोलीबारी मारतंडम में हाईस्कूल के बाहर जमा आंदोलनकारियों, जिसमें स्कूल के छात्र भी शामिल थे, पर की गई, जिसमें नौ लोग मारे गए। दूसरी गोलीबारी पुदुक्कदाई जंक्शन पर आयोजित जनसभा पर की गई, जिसमें छह लोग मारे गए।

डॉ. लोहिया प्रसोपा के महासचिव थे और नैनी जेल में कैद थे। उन्होंने 12 अगस्त को मुख्यमंत्री थानु पिल्लई को जेल से ‘व्यक्तिगत सिफारिश’ का तार भेजा, ‘हो सकता है उपद्रवकारी पूरी तरह से गलती पर रहे हों और उन्होंने घृणित स्थिति पैदा की हो, लेकिन पुलिस गोलीबारी, जिसमें लोगों की जानें गई हों, विद्रोह या हत्या की हालत को छोड़, अनुचित है।

इस सिद्धांत के अनुसार मैं गैर-सरकारी जांच, अफसरों का निलंबन और साथ-साथ सरकार के इस्तीफे की सिफारिश करता हूं।’ (मृतकों की ऊपर दी गई संख्या बाद की है। जब लोहिया ने तार भेजा था उस समय गोलीबारी में चार लोगों के मारे जाने की खबर थी।)

लोहिया को मुख्यमंत्री का कोई जवाब नहीं मिला। उन्होंने 17 अगस्त और 23 अगस्त को पार्टी अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी को दो पत्र लिखे। पहले पत्र में लोहिया ने लिखा, ‘सही है वे (मुख्यमंत्री) जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हैं, लेकिन पुलिस ने जहां लोगों की हत्या की, उस क्षेत्र का दौरा करने के बाद मुख्यमंत्री ने एक सार्वजनिक बयान दिया है।

उन्होंने कहा है शक्ति के उपयोग में जितना ज्यादतियों से बचना जरूरी था उतना ही नरमी से बचना और उनकी पुलिस ने यह कर दिखाया है।’ (इसके पहले 12 जुलाई को मुख्यमंत्री विधानसभा में पेश किए गए एक स्थगन प्रस्ताव के दौरान आंदोलन को सख्ती से दबा देने की घोषणा कर चुके थे।

आठ अगस्त को एक जनसभा में उन्होंने कहा था कि तमिल चाहें तो राज्य छोड़ कर जा सकते हैं।) लोहिया ने मुख्यमंत्री के सार्वजनिक बयान पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘अभी वह समय नहीं आया है जब एक भारतीय मंत्री स्वयं अपना न्यायधीश का काम करने के योग्य हो सके। इसके अलावा, भारत में पहली सोशलिस्ट सरकार ने शक्ति और नरमी के बारे में ऐसे बेमतलब और खतरनाक सामान्यीकरण करके अच्छा नहीं किया है। सदैव ऐसे सामान्यीकरणों के पीछे निरंकुशता छिपी होती है।’

इसी पत्र में लोहिया ‘लोकतंत्र में गोलीबारी’ के विरोध में महासचिव पद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी से अपना त्यागपत्र अध्यक्ष को भेज दिया, यह कहते हुए, ‘अगर मैं बाहर होता तो कार्यकारिणी को इस सवाल पर तत्काल विचार करने के लिए कहता। अगर कार्यकारिणी ने अवसरवादी रवैया अपनाया होता इसे मैं जनरल कौंसिल में ले जाता।’ भारत के समाजवादी आंदोलन के इतिहास में यह अध्याय ‘गोली-कांड विवाद’ के नाम से मशहूर है।

गोलीबारी के मुद्दे पर लोहिया की मंत्रिमंडल के इस्तीफे की मांग को गलत ठहराते हुए सरकार के पक्ष में वे सब तर्क दिए गए, जो आज तक दिए जाते हैं। मसलन, कांग्रेस सरकारों में निहत्थे लोगों पर कई बार गोलीबारी हुई है, लेकिन वहां पार्टी नेतृत्व कभी सरकार के इस्तीफे की मांग नहीं करता; किसी अफसर द्वारा गोलीबारी का आदेश देने पर मंत्रिमंडल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, न ही उसे इस्तीफ़ा देने को कहा जा सकता है; इस्तीफ़ा देने से सरकार की प्रतिष्ठा और ख्याति, और अंततोगत्वा पार्टी की प्रतिष्ठा और सम्मान को चोट पहुंचेगी; भीड़ हिंसा और आगजनी पर उतारू थी; कम्युनिस्टों ने आंदोलन को भड़काया था; त्रावनकोर-कोचीन राज्य के असंतुष्ट कांग्रेसियों ने पुलिस को तमिल आंदोलनकारियों के विरुद्ध उकसाया था; इस्तीफ़ा देने पर पुलिस के मनोबल पर विपरीत असर पड़ेगा; पहली बार किसी राज्य में सोशलिस्ट सरकार बनी है, उसे खुद इस्तीफ़ा देकर खो देना समझदारी नहीं है; गांधी भी पुलिस की सरकार के प्रति वफादारी का औचित्य स्वीकार करते थे; पहले सरकार घटना की जांच कराए और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा दे; जांच में अगर किसी मंत्री को दोषी पाया जाता है तो उसका इस्तीफ़ा होना चाहिए; सरकार का इस्तीफ़ा मांगना तभी जायज़ है जब जांच समिति सरकार को दोषी बताए… आदि।

लोहिया का सिद्धांतत: मानना था कि भीड़ द्वारा हत्या की स्थितियों को छोड़ लोकतंत्र में पुलिस गोलीबारी का औचित्य नहीं हो सकता। उन्होंने गोलीबारी के मुद्दे को बुनियादी बताते हुए आग्रह किया कि सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसका समाधान ढूंढा जाना चाहिए। साथ ही एक समाजवादी सरकार को इस्तीफ़ा देकर भविष्य के लिए नजीर पेश करनी चाहिए।

कोई भी सरकार जो अपनी पुलिस की राइफल पर निर्भर करती है जनता का कुछ भी भला नहीं कर सकती। उनकी दृढ़ राय थी कि जिस सरकार के शासन में गोली चलाई गई है, उसके रहते निष्पक्ष जांच नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि अगर गोलीबारी की घटना पर सरकार का इस्तीफ़ा होता तो उससे अन्य पार्टियों और पुलिस का आचरण प्रभावित होता।

गोली-कांड विवाद के चलते पार्टी टूट के कगार पर पहुंच गई। राजनीति छोड़ चुके जयप्रकाश नारायण और प्राय: अस्वस्थ रहने वाले आचार्य नरेंद्र देव जैसे मूर्द्धन्य नेताओं के हस्तक्षेप के बावजूद पार्टी में उठ खड़ा हुआ गोली-कांड विवाद थमा नहीं। माना जाता है कि गोलीबारी की घटना के बाद दिल्ली में संपन्न हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जेपी और शायद कृपलानी भी लोहिया की राय से सहमत थे, लेकिन लोहिया की तीखी भाषा ने काम बिगाड़ दिया। जेपी ने गोलीबारी पर जो पहला ड्राफ्ट प्रस्ताव तैयार किया था, उसे उन्होंने परिवर्तित कर दिया।

नवंबर 1954 में नागपुर में आयोजित पार्टी के विशेष अधिवेशन में लोहिया और उनके समर्थकों की हार हुई। हालांकि इस बीच पार्टी ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था पालन’ पर कामथ समिति का गठन कर एक रपट तैयार की, लेकिन विवाद थमा नहीं। नागपुर अधिवेशन में ही पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन हुआ, हालांकि सिद्धांत और व्यवहार की रस्साकसी के चलते पैदा हुई दरार भर नहीं पाई।

अंतत: 1955 में पार्टी टूट गई। उधर थानु पिल्लई सरकार ने प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायधीश के शंकरण की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बैठाया। आयोग ने तीन महीने बाद अपनी रपट में पुलिस गोलीबारी को सही ठहराया। 12 फरवरी 1955 को थानु पिल्लई की ‘लोकप्रिय सरकार’ प्रसोपा के विधायक टीएस रामास्वामी द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के परिणामस्वरूप गिर गई।

(3)
इस 66 साल पुराने राजनीतिक वाकिये का जिक्र मैंने इसलिए किया है कि सभी राजनीतिक धाराओं के नेतृत्व को स्वतंत्रता के शुरुआती दौर में लोकतंत्र और पुलिस के सही संबंध के निर्धारण का जरूरी काम करना चाहिए था। ऐसा नहीं होने की स्थिति में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता गया। नतीजतन, लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधारभूत मूल्य एक के बाद एक ध्वस्त होते गए।

कई अवसरों पर लगता है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर महज़ कंकाल बचा है। सरकारें नागरिक स्वतंत्रताओं/अधिकारों का हनन करने वाले कठोरतम कानून बनाती हैं। इस कड़ी में 1967 में बना और 2019 में संशोधित आतंकवाद निरोधी कानून (यूएपीए) और उपनिवेशवादी दौर से चला आ रहा कुख्यात राष्ट्र-द्रोह कानून (सेडीशन एक्ट) देखे जा सकते हैं।

इन कानूनों का शिकार ज्यादातर समाज का कमजोर तबका और उसके हितों की मुखर वकालत करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता और नागरिक समाज एक्टिविस्ट होते हैं। आंदोलनकारी किसानों, मज़दूरों, छात्रों आदि पर पुलिस गोलीबारी और गिरफ़्तारी की घटनाएं आम बात हैं।

सांप्रदायिकता की सीढ़ी बना कर सत्ता में आने वाली मौजूदा सरकार और पुलिस के गठजोड़ का फूहड़तम रूप अक्सर सामने आता रहता है। लोगों को बात-बात पर देश-द्रोही और आतंकवादी ठहराया जाता है। केंद्र सरकार के तहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस के बारे कहा जाता है कि वह देश की अभिजात और सभ्य पुलिस है। हाल के दिनों में उसके कुछ कारनामे देखे जा सकते हैं।

पुलिस ने 15 दिसंबर 2019 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के परिसर/पुस्तकालय में धावा बोल कर छात्र-छात्राओं की बेरहमी से पिटाई की और अपमानित किया। शिक्षक होने के नाते मैं महसूस करता हूं कि चोटें छात्र-छात्राओं के शरीर पर ही नहीं, आत्मसम्मान पर भी पड़ी थीं।

कोरोना महामारी के बाद स्थिति सामान्य होने पर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन फिर से सिर न उठा सके, इसकी पेशबंदी दिल्ली पुलिस ने कोरोना-काल में कर दी है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी में हुए दंगों को पूर्वनियोजित बताने की दिल्ली पुलिस की स्क्रिप्ट समाज से लेकर अदालत तक सबके सामने खुली है।

दिल्ली के विशेष पुलिस आयुक्त प्रवीर रंजन ने दंगों की जांच करने वाले अधिकारियों को आधिकारिक परिपत्र जारी कर निर्देश दिया है कि वे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों के आरोपियों की गिरफ्तारियां करते वक्त ‘हिंदू-भावना’ को ध्यान में रखें।

यह सही है कि पराकाष्ठा पर पहुंची पुलिस-दमन की किसी घटना-विशेष पर पुलिस सुधारों की चर्चा और प्रयास तेज हो जाते हैं। कुछ सरोकारधर्मी बड़े पुलिस अधिकारी अपने अनुभव के आधार पर ठोस सुझाव देते हैं। फौरी राहत के लिए यह जरूरी है।

आज़ादी से अब तक राज्यों और केंद्र द्वारा गठित कई समितियों और आयोगों ने पुलिस सुधारों पर कई सिफारिशें/उपाय प्रस्तुत किए हैं। इनमें राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977-81) की आठ रपटों पर आधारित महत्वपूर्ण सिफारिशें भी हैं। उच्चतम न्यायालय 2006 में पुलिस सुधारों के बारे में राज्यों और केंद्र को विस्तृत निर्देश जारी कर चुका है, लेकिन मूलभूत समस्या राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ ज्यों की त्यों बनी रहती है।

कारण स्पष्ट हैं, स्वतंत्र भारत की पुलिस व्यवस्था उपनिवेशवादी दौर के पुलिस अधिनियम 1861, और उसके साथ भारतीय दंड संहिता 1862 पर टिकी हुई है। पुलिस अधिनियम और दंड संहिता 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में बनाए गए थे, ताकि भारतीय असहमति (डिसेंट) और प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) जताने की स्थिति में न रहें। 1857 के बाद भारत का करीब 90 सालों का स्वतंत्रता संघर्ष इन्हीं कानूनों की काली छाया में, और उनके विरुद्ध लड़ा गया था।     

ध्यान दे सकते हैं कि नव-उपनिवेशवादी दौर में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ का उपनिवेशवादी चरित्र बखूबी उभर कर सामने आया है। यह स्वाभाविक है। देश के संसाधनों को बेचने में लगे राजनीतिक-वर्ग को पुलिस चाहिए, ताकि वह विरोधियों को देश-द्रोही बता कर वंचित आबादी के आक्रोश से अपनी सुरक्षा कर सकें। संसाधनों को खरीदने वाली देशी-विदेशी कंपनियों को भी पुलिस चाहिए, ताकि उनके मुनाफे का कारोबार सुरक्षित रूप से चलता रह सके।

‘नए भारत’ में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ में कारपोरेट सत्ता का नया आयाम जुड़ गया है। देश के नागरिक समाज का वृहद् हिस्सा इस सत्ता-त्रिकोण का मुखर या मौन समर्थक है। यह अकारण नहीं है। वह नवउपनिवेशवादी लूट से गिरने वाली जूठन खाता है और गाल बजाता है। सवाल है कि क्या नव-उपनिवेशवादी गुलामी के तहत बनने वाला ‘नया भारत’ उपनिवेशित भारत की तरह एक पुलिस-राज्य है?  

(लेखक दिल्ली विश्ववविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं।)

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