Saturday, April 27, 2024

जन्मदिन पर विशेष: लोहिया ने रखी देश में विपक्ष की नींव

आज (23 मार्च) एक कुजात गांधीवादी का जन्मदिन है, हालांकि उस कुजात गांधीवादी ने अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाया। उसी के जन्मदिन के दिन ही शहीद ए आज़म भगत सिंह को साल 1931 में फांसी पर लटका दिया गया था। पर जन्मदिन पर कोई जश्न न मनाए पर जन्मदिन तो आता ही है और आकर गुज़र भी जाता है। वह कुजात गांधीवादी थे, देश के समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ डॉ. राममनोहर लोहिया। डॉ. लोहिया का जन्म 1910 में हुआ था और वे युवा होते ही स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए थे। वे खुद को गांधी के सविनय अवज्ञा यानी सिविल नाफरमानी से प्रभावित मानते थे और जब गांधीवाद की बात चलती थी, तो खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। यह बात वे परिहास में नहीं कहा करते थे, बल्कि उन्होंने इस वर्ग विभाजन को सरकारी, मठी और कुजात गांधीवादी शीर्षक से एक विचारोत्तेजक लेख भी लिखा है।

इन श्रेणियों का विभाजन करते हुए वे कहते हैं कि सरकारी गांधीवादी वे हैं जो कांग्रेस में हैं और सत्ता में हैं, जैसे जवाहरलाल नेहरू। मठी गांधीवादी वे हैं, जो गांधी जी के नाम पर प्रतिष्ठान चला रहे हैं जैसे सर्वोदय से जुड़े लोग आचार्य बिनोवा भावे और जयप्रकाश नारायण। कुजात गांधीवादी वे हैं, जो हैं तो असल में गांधीवाद की राह पर चलने वाले पर उन्हें न तो सरकारी गांधीवादी, गांधीवादी मानते हैं और न ही मठी गांधीवादी यानी वे इस वर्ग से बहिष्कृत हैं, और इसीलिए वे कुजात गांधीवादी कहलाये।

1937 में कांग्रेस से एक धड़ा अलग होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से एक नयी पार्टी बनाता है। इस धड़े में शामिल होने वाले तत्कालीन कांग्रेस के नेताओ में प्रमुख थे, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्द्धन, मीनू मसानी और डॉ. लोहिया। 1937 में कांग्रेस में एक वैचारिक उथलपुथल हुई थी। 1937 में समाजवादी धड़ा अलग हुआ, 1939 में सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, और 1939 – 40 में ही वामपंथी विचारधारा पर आधारित अग्रगामी दल यानी फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया, फिर 1940 में कांग्रेस प्रांतीय सरकारों से अलग हो जाती है और 1942 में स्वाधीनता का सबसे लोकप्रिय जनआंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होता है।

उस समय कांग्रेस की पहली पंक्ति के सभी बड़े नेता 8-9 अगस्त 1942 की रात ही गिरफ्तार हो जाते हैं, और तब उस जनआंदोलन के जुझारू नेतृत्व के रूप में उभरते हैं जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, अरुणा आसफ अली और युवा समाजवादियों की जुझारू टोली। 1937 में कांग्रेस से चाहे, समाजवादी धड़ा अलग हुआ हो या 1939 में सुभाष बाबू पर गांधी के नेतृत्व पर सबकी निर्विवाद आस्था बनी रही। सुभाष, गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा देते हैं, आज़ाद हिंद फौज में पहली ब्रिगेड का नाम गाँधी जी के नाम पर रखते हैं और डॉ लोहिया खुद को गांधी का असली शिष्य मानते हैं और ख़ुद को असली गांधीवादी कहते हैं।

डॉ लोहिया का जवाहरलाल नेहरू से मोहभंग आज़ादी के समय से ही होने लगा था और यह टकराव नेहरू के जीवित रहने तक बना रहा। लोहिया की जीवनी लिखने वाले ओंकार शरद गांधी जी की अंतिम यात्रा में जब वे, तोपगाड़ी पर रखे महात्मा गांधी के पार्थिव शरीर के साथ नेहरू को जूते पहने उक्त वाहन पर देखते हैं तो, असहज हो जाते हैं। नेहरू तब भी लोकप्रियता के शिखर पर थे और देश के पहले प्रधानमंत्री तो वे थे ही। डॉ. लोहिया सोशलिस्ट पार्टी से 1952, 57, 62 का चुनाव लड़ते हैं और हर बार हार जाते हैं। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस के साथ साथ नेहरू की लोकप्रियता भारतीय जनमानस में बसी हुयी थी।

अंत में 1963 में हुए फर्रूखाबाद के लोकसभा के उपचुनाव में लोहिया जीतते हैं और संसद में पहुंचते हैं। लोकसभा में लोहिया का पहुंचना भारत के संसदीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। वे दुबारा 1967 में फिर फर्रुखाबाद से ही लोकसभा के लिये चुने जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से 12 अक्टूबर 1967 को जब लोहिया अपनी लोकप्रियता के शिखर पर होते हैं, और विपक्ष की सबसे मुखर, तार्किक और ओजस्वी आवाज़ थे, तभी उनका निधन हो जाता है। यह देश के समाजवादी आंदोलन की अपूर्णीय क्षति थी।

लोहिया एक सतत विरोधी और विद्रोही व्यक्तित्व के थे। केरल में जब पहली सरकार सोशलिस्ट पार्टी के समर्थन से बनी और जब उक्त सरकार के कार्यकाल में केरल में हुए एक छात्र आंदोलन पर, गोलियां चलाई गयीं तो, डॉ. लोहिया ने अपनी पार्टी का समर्थन वापस लेने की बात कही। जनांदोलन से निकले डॉ. लोहिया यह सोच भी नहीं सकते थे, कि कोई सरकार अपने ही नागरिकों पर कैसे गोली चला सकती है। इसे आज की सरकारों द्वारा जन आंदोलनों से निपटने की नीति से तुलना कर के देखेंगे तो शायद उक्त समय की परिस्थितियों को समझ नहीं पाएंगे। सोशलिस्ट पार्टी में मतभेद हुआ। और डॉ. लोहिया ने अपनी एक नयी पार्टी बना ली, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी जिसका चुनाव चिह्न बरगद था। यहीं से उनका मंत्र शुरू हुआ सुधरो या टूटो। नहीं सुधर सकते तो टूटो और शेष जिजीविषा एकत्र कर के फिर से उठो, जैसे राख से उठता है स्फिंक्स और फिर अनन्त में उड़ता है।

लोहिया की राजनीतिक लाइन गैर-कांग्रेसवाद की थी। उनके समय में कांग्रेस का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू के पास था, लोहिया के मुकाबले वे न केवल एक बड़े नेता थे बल्कि उनकी लोकप्रियता भी समकालीन नेताओ में सबसे अधिक थी। लोहिया उनके खिलाफ भी लोकसभा का चुनाव इलाहाबाद के फूलपुर क्षेत्र से लड़े। ज़ाहिर है नेहरू को हराना असंभव था और लोहिया हारे, पर अपनी जमानत बचा ले गए। इस चुनावी मुकाबले का बड़ा रोचक विवरण ओंकार शरद, डॉ. लोहिया की जीवनी में करते हैं। लोहिया जब नेहरू के खिलाफ फूलपुर से चुनाव में उतरने का निश्चय करते हैं तो वे नेहरू को एक पत्र लिखते हैं और उसमें वे यह लिखते हैं कि,

“मैं जानता हूँ मैं पहाड़ से सिर टकरा रहा हूँ, पर यदि पहाड़ थोड़ा सा भी हिला तो इसे मैं अपनी सफलता मानूंगा। मैं आप को हरा कर 1947 के पहले वाले नेहरू में लाना चाहता हूँ, जो हम सब युवकों का तब एक आदर्श हुआ करता था।”

नेहरू न केवल लोहिया को उनकी जीत के लिये शुभकामनाएं देते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि, वे लोहिया की सहायता के लिये अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिये नहीं जाएंगे। आज जैसा शत्रु भाव विपरीत विचारधारा के नेताओ में दिखता है उसे देखते हुए ऐसे प्रकरणों पर यकीन करना मुश्किल लग सकता है।

लोहिया नेहरू की चीन और तिब्बत की नीति के कटु आलोचक थे। वे कैलास और मानसरोवर पर भारतीय दावे को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे। तिब्बत पर चीन के अधिकार को चीन की हड़प नीति और विस्तारवादी सोच का परिणाम मानते थे। वे चीन और भारत के बीच एक स्वाधीन औऱ संप्रभु तिब्बत, भारत की सुरक्षा के लिए ज़रूरी मानते थे। भारत पाक सम्बन्धों पर वह इन बंटवारे को कृत्रिम और अतार्किक बंटवारा मानते थे। वे भारत पाकिस्तान महासंघ की बात करते थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि द्विराष्ट्रवाद पर आधारित यह बंटवारा, पच्चीस साल से अधिक नहीं चल पाएगा। और यह भविष्यवाणी सच भी हुयी। 1971 में पाकिस्तान एक बार फिर टूटा और धर्म ही राष्ट्र का आधार है, इस सिद्धात की धज्जियां उड़ गयीं। पर लोहिया अपनी भविष्यवाणी को सच होते हुए देखने के लिये जीवित नहीं थे।

1963 में डॉ लोहिया का लोकसभा में पहुंचना एक महत्वपूर्ण घटना थी। देश के संसदीय इतिहास में लोहिया ने पहली बार सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया। प्रस्ताव गिरना था। लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव पर जैसी तीखी और तथ्यात्मक बहस लोकसभा में हुई उससे संसदीय परिपक्वता का संकेत मिलता है। तीन आना और बारह आना की एक रोचक बहस अक्सर याद की जाती है। लोहिया ने कहा था,

“योजना आयोग के अनुसार देश के 60 प्रतिशत लोग, जो आबादी का 27 करोड़ हैं, तीन आना प्रतिदिन पर जीवनयापन कर रहे हैं। एक खेतिहर मजदूर दिन भर में 12 आने कमाता है, शिक्षक दो रुपये कमाता है, लेकिन कुछ कारोबारी रोजाना तीन लाख रुपये तक कमा रहे हैं। वहीं, प्रधानमंत्री नेहरू के कुत्ते पर प्रतिदिन तीन रुपये का खर्च निर्धारित है। खुद प्रधानमंत्री पर रोजाना 25 से 30 हजार रुपये खर्च होता है। मेरी  प्रधानमंत्री के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, लेकिन उनकी देखा-देखी देश के 50 लाख लोग वैसी ही जीवन शैली अपना रहे हैं। 15 हजार करोड़ रुपये की सकल राष्ट्रीय आय का पांच हजार करोड़ वहां खर्च हो रहा है, बाकी 43.5 करोड़ नागरिक बचे हुए 10 हजार करोड़ में जीवन यापन कर रहे हैं।”

लोहिया ने देश के विकट हालात की वजह इस विषमता को बताया था। तथ्यों पर आधारित ऐसी बहस संसद के लिये एक अनोखी घटना थी। नेहरू सदन में मौजूद थे। लोहिया बोलते रहे। तब खुल कर बोलने के दिन थे, और धैर्य से आलोचना सुनने के भी। तब कुहरे की बात करना, व्यक्तिगत आलोचना नहीं मानी जाती थी। लोहिया के संसदीय भाषणों का एक 17 खंडों का विशाल संकलन काशी विद्यापीठ के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और समाजवादी चिंतक प्रो. कृष्णनाथ के संपादन में प्रकाशित हुआ था। जन संचार के रूप में तब केवल अखबार ही थे, पर लोहिया देश के सबसे लोकप्रिय विरोधी नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे।

लोहिया का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे केवल एक विपक्ष से चुने गए सांसद ही नहीं थे, बल्कि एक राजनीतिक चिंतक और संकल्प से भरे हुए संगठनकर्ता भी थे। जब वे सोशलिस्ट पार्टी से अलग हुए तब किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे एक मजबूत संगठन खड़ा कर लेंगे। उनसे वरिष्ठ समाजवादी आचार्य नरेंद्र देव, जेपी आदि में संगठन खड़ा करने और सड़क पर उतर कर अपने सिद्धांतों के लिये लड़ने की क्षमता नहीं थी। आचार्य नरेंद्र देव एक अकादमिक व्यक्तित्व थे और समाजवाद पर किताब भी लिखी थी, पर वे सड़क पर नहीं उतरे थे। जेपी सार्वजनिक जीवन से अलग हट कर समाज सेवा से जुड़ गए। हालांकि जब देश में अधिनायकवादी ताकतें मज़बूत होने लगीं तो, वे पूरी ऊर्जा के साथ 1975 में सड़क पर उतरे और एक इतिहास रचा।

पर डॉ. लोहिया ने न केवल अपने राजनीतिक दर्शन को परिमार्जित और परिवर्धित किया बल्कि वे सड़क पर लगातार उतरते रहे। वे जन आंदोलनों से तपे नेता थे और गांधी का मूल मंत्र, हर अन्याय का शांतिपूर्ण तरीके से सतत प्रतिरोध, उनका आधार बना रहा। संसद की अभिजात्य परंपरा के विपरीत वे सड़क को संसद का नियंत्रक मानते थे। वे कहते थे, जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। सड़क अपनी आन्दोलनजीविता से संसद पर अंकुश रखती है। सड़क एक सजग महावत की तरह है जो संसद को निरन्तर कोंचता रहता है और उसे मदमस्त और अनियंत्रित नहीं होने देता है। सड़क और आन्दोलनजीविता, ज़िंदा रहने का सुबूत है। उनका एक बेहद उद्धरित वाक्य है, ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं। और उनका जीवन इस जिंदादिली और जिजीविषा का साक्षात उदाहरण है।

भारत के सांस्कृतिक जीवन और पृष्ठभूमि ने भी लोहिया को कम प्रभावित नहीं किया। आज राम के नाम पर सत्ता में आने वाले सत्तारूढ़ दल के कुछ युवा समर्थकों को शायद ही यह पता हो कि लोहिया ने सबसे पहले एक सांस्कृतिक आयोजन के रूप में तुलसी के रामचरित मानस को चुना था। उन्होंने चित्रकूट में पहली बार रामायण मेला की शुरुआत, 1961 में की थी। लोहिया एक नास्तिक व्यक्ति थे पर देश की सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक प्रतीकों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया है। राम, कृष्ण और शिव उनका एक प्रसिद्ध लेख है, जिसमें वे कहते हैं,

“हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और बचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ साथ, जीवन की मर्यादा से रचो।” यह लेख मूल रूप से अगस्त 1955 के अंक में मैनकाइंड पत्रिका में छपा था। इसका हिंदी अनुवाद बाद में ‘जन’ मासिक पत्रिका में छपा।

स्त्री शक्तिकरण के बारे में उनके विचार अपने समय में बेहद क्रांतिकारी थे। वे सिमोन द बोउआ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ से बेहद प्रभावित थे। द्रौपदी उनकी प्रिय नारी पात्र थीं। वे कहते हैं, “भारतीय नारी द्रौपदी जैसी हो, जिसने कि कभी भी किसी पुरुष से दिमागी हार नहीं खाई। नारी को गठरी के समान नहीं बल्कि इतनी शक्तिशाली होना चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना अपने साथ ले चले।”

यौन संबंधों पर उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढें, “हमेशा याद रखना चाहिए कि यौन संबंधों में सिर्फ दो अक्षम्य अपराध हैं। बलात्कार और झूठ बोलना या वायदा तोड़ना। एक तीसरा अपराध दूसरे को चोट पहुँचाना या पीड़ा पहुँचाना भी है जिससे जहाँ तक मुमकिन हो बचना चाहिए।”

वे महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने और स्त्री-पुरूष की बराबरी पर बराबर जोर देते थे। ऐसा ही प्रगतिशील विचार उनके जाति व्यवस्था के बारे में भी था। वे समाज में वंचित और पिछड़े लोगों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान तथा विषमता से भरे समाज को बराबर करने के प्रबल हिमायती थे। आज मंडल कमीशन जिसने पिछड़े वर्ग को उनका देय दिलाया है, की दार्शनिक पीठिका लोहिया के विचारों पर ही आधारित है।

डॉ. लोहिया मूलतः अर्थशास्त्र के विद्वान थे। उन्होंने जर्मनी से नमक कानून की अर्थनीति पर अपना शोध प्रबन्ध लिखा और डॉक्टरेट की डिग्री ली। संसद में उनकी बहस आंकड़ों और तथ्यों पर होती थी। यह आंकड़े सरकार के ही होते थे। तब न गूगल था और न ही तरह-तरह की वेबसाइट, जो तमाम तथ्यों को चुटकियों में सामने रख दें। इन आंकड़ों को इकट्ठा करने और उनके विश्लेषण के लिये काफी सामग्री एकत्र करनी पड़ती थी और फिर उन्हें अपने तर्कों के साथ रखना पड़ता था। लोहिया का दर्शन सामाजिक विषमता और आर्थिक शोषण के खिलाफ था। वे कांग्रेस के घोर आलोचक थे और इसका काऱण था तत्कालीन सरकार की आर्थिक नीति। वामपंथ की तरफ थोड़ी झुकी हुयी तत्कालीन कांग्रेस की नीतियां भी जनता को बहुत अधिक आर्थिक लाभ नही दे पा रही थी।

उन्होंने एक अनूठी योजना रखी, दाम बांधने की। यह दाम बांधो के रूप में बेहद चर्चित योजना थी। तब तक कालाबाज़ारी और जमाखोरी जैसे आर्थिक अपराध समाज में गहरे पैठ चुके थे। इसे दूर करने और महंगाई को नियंत्रित करने के लिये उन्होंने मूल्य की अधिकतम सीमा तय करने का सुझाव रखा। जिससे अनियंत्रित मुनाफे पर अंकुश लग सके। पर इस विचार पर न तो तब सरकार ने ध्यान दिया और न ही आज के अर्थशास्त्री इस पर कुछ सोच रहे हैं। यह कदम मुनाफाखोरी की सोच के खिलाफ था और इससे न केवल मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर अंकुश लग सकता है बल्कि महंगाई भी इससे नियंत्रित रहती। आज जब चीजों की कीमतें मनमाने ढंग से बढ़ रही हैं तो कम से कम दाम बांधने के विकल्प पर, सरकार और अर्थ विषेशज्ञों को सोचना चाहिए।

लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की आलोचना भी होती है। इस आलोचना का एक प्रमुख बिंदु है कि लोहिया ने गांधी हत्या के बाद लगभग हाशिये पर जा पड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके राजनीतिक अवतार भारतीय जनसंघ को अपने साथ लेकर, राजनीति में साम्प्रदायिक सोच के प्रवेश के लिये एक स्पेस उपलब्ध कराया। यह बात बिल्कुल सच है कि लोहिया और जनसंघ की विचारधारा का कोई मेल नहीं था, पर यह बात भी अजीब तरह से सच है कि लोहिया के सिद्धांत पर ताज़िन्दगी आचरण और चर्चा करने वाले अनेक जुझारू लोहियाइट समाजवादी जनसंघ के दूसरे राजनीतिक अवतार भारतीय जनता पार्टी के न केवल बेहद करीब आये बल्कि वे लंबे समय तक सत्ता में रहे और कुछ तो अब भी वहां बने हुए हैं। लोहिया के प्रति उनका अनुराग अब भी दिखता है, पर यह अनुराग कॉस्मेटिक है या दिली यह तो वे ही  बता सकते हैं ।

1967 का आम चुनाव गैर-कांग्रेसवाद के एजेंडे पर लड़ा गया था। उससे बनी कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें ज़रूर जनसंघ के साथ बनीं। पर जनसंघ जैसे प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक दल का साथ लेना डॉ. लोहिया की, गैर कांग्रेसवाद के लक्ष्य की पूर्ति के लिये कोई तात्कालिक रणनीति थी या कोई दूरगामी एजेंडा, इस पर कुछ विशेष इसलिए नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि 1967 में ही 12 अक्टूबर को डॉ. लोहिया का निधन हो गया, जिससे इस संबंध में उनकी भविष्य की रणनीति क्या होती, पर अनुमान लगाना उचित नहीं होगा ।

मैंने उनके कुछ लेख ढूंढने की कोशिश की लेकिन कहीं ऐसा तथ्य नही मिला जिससे यह संकेत मिलता हो कि वे जनसंघ के साथ लंबी दूरी तय करना चाहते थे। लोहिया के लिये गैर-कांग्रेसवाद या नेहरू का विरोध, सत्ता की एकरस और जड़ता का विरोध था। यहां फिर उनकी अधीरता सामने आ जाती है और वह यह चाहते हैं कि, यदि सरकार जनता के व्यापक हित में कुछ नहीं कर पा रही है तो वह सत्ता से हटे या उसे हटा दिया जाय। सुधरो या टूटो। यह एक प्रयोग था, सत्ता को वैचारिक आधार पर लाने का और जनसापेक्ष बनाने का।

पर लोहिया के अचानक दिवंगत हो जाने से उनका यह प्रयोग अपने तार्किक अंत तक नहीं पहुंच सका। 1969-70 में कांग्रेस ने अपना वैचारिक चोला बदला था। बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के विशेषाधिकार खात्मे ने कांग्रेस की वैचारिक जड़ता को भी तोड़ा था। लोहिया यदि कांग्रेस के इन वैचारिक बदलाव के समय  जीवित रहते तो क्या वे इन प्रगतिशील कदमो का समर्थन नहीं करते ? मेरा कहना है कि वे इन कदमो के साथ खड़े होते और फिर गैर-कांग्रेसवाद के सिद्धांत में बदलाव होता। पर तब जनसंघ, लोहिया के साथ नहीं जाता, क्योंकि वह मूल रूप से प्रगतिशील आर्थिक बदलाव के खिलाफ था, और अपने नए अवतार भाजपा के रूप में आज भी प्रगतिशील आर्थिक बदलाव के खिलाफ है।

1910 से 1967 तक कुल 57 वर्ष का जीवन रहा लोहिया का। पर इतनी अवधि में लोहिया ने विचारधारा से लेकर, इतिहास, संस्कृति, समाज से लेकर अनेक सम-सामयिक मुद्दों पर कई किताबें और लेख लिखे, और जगह-जगह भाषण दिए। मैनकाइंड और जन जैसी विचार प्रधान पत्रिकाओं का संपादन किया। जो लिखा उसे सड़क पर उतारा भी। एक ही व्यक्ति में वैचारिक प्रतिभा, लेखन क्षमता, और जन संघर्षों में खड़े होने का जुझारूपन मुश्किल से ही मिलता है। संसद के बजाय सड़क की ओर उनका रुझान कुछ को अराजक सोच लग सकती है, लेकिन उनके लिये संसद, सड़क की समस्याओं को ही हल करने, सड़क की आकांक्षाओं और भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है।

आज जब आज़ादी के बाद का सबसे संगठित और शांतिपूर्ण आंदोलन, किसान आंदोलन, हम सब देख रहे हैं तो लोहिया की याद आना स्वाभाविक है। पर यह भी एक विडंबना और अजीबोगरीब सच है कि लोहियाईट कहे जाने वाले कुछ लोग इस किसान आंदोलन से दूरी बनाए हुए हैं। भाजपा और उसका पितृ संगठन आरएसएस यदि इस जन आंदोलन से दूर है और इसकी निंदा कर रहा है, इसे तोड़ने की चालें चल रहा है तो, यह उतनी हैरानी की बात नहीं है। संघ और भाजपा की पृष्ठभूमि किसी जनहित पर आधारित, जन आंदोलन में भाग लेने की रही ही नहीं है। पर पूर्व समाजवादियों और खुद को लोहिया का शिष्य कहने वालों का ऐसा आचरण अचंभित करता है। लोहिया को उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण और उनकी जिजीविषा और जुझारूपन को आज ही नहीं हर उस जन-आंदोलन के समय याद रखा जाना चाहिए, जो समाज में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विषमता के खिलाफ तथा जनहित में हो रहा हो । सच है,

“जिन्दा कौमें बदलाव के लिए पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं। वह किसी भी सरकार के गलत कदम का फ़ौरन विरोध करती है।”

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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