Friday, March 29, 2024

संविधान को दफ्न करने की तैयारी का हिस्सा है यूपी का ‘लव जिहाद’ अध्यादेश

26 जनवरी,1950 को हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लोकतांत्रिक, समावेशी और आधुनिक मूल्यों वाले समाज का खाका खींचा था, उसे बनाने की जिम्मेदारी सरकारों पर डाला था। ताकि ‘राज्य’ सदियों से तमाम पूर्वाग्रहों से ग्रसित, विभिन्न आधारों पर विभाजित और जड़ताओं जकड़े समाज को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व तथा धर्म व उपासना की आजादी जैसे मूल्यों को बढ़ाने व मजबूत करने वाली नीतियों व कानूनों का निर्माण करके भारत जैसे बहुलवादी समाज को आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में रूपांतरित हो सके! परंतु, कुछ राजनीतिक दलों द्वारा शुरू से ही समाज में ध्रुवीकरण हेतु तमाम तरह के ‘फाल्स नैरेटिव’ सालों से गढ़े व फैलाये  गए।

सत्ता पाने के बाद तो ‘उनके’ द्वारा इस दिशा में पूरी तत्परता से सचेतन प्रत्यन किये जा रहे हैं। उसके मद्देनजर ही उत्तर प्रदेश में भी एक के बाद एक ड्रैकोनियन कानून जनता पर लादे जा रहे हैं। इसके लिए विधानमण्डल में चर्चा जैसी औपचारिकता तक को ताख पर रखकर ‘ऑर्डिनेंस’ जारी करने जैसी विशेष व्यवस्था का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 नाम से जारी किया गया ऑर्डिनेंस इसी दिशा में राज्य का बढ़ता एक और कदम है।

आइए, इस आर्डिनेंस के मुख्य प्रावधानों पर एक नजर डालते हैं:-

• इस अध्यादेश के तहत विवाह के लिये धर्मांतरण को गैर-जमानती अपराध घोषित कर दिया गया है तथा इसके तहत प्रतिवादी को यह प्रमाणित करना होगा कि धर्मांतरण विवाह के उद्देश्य से नहीं किया गया था।(धारा 12 )
• इस अध्यादेश के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को धर्मांतरण के लिये दो माह पूर्व ज़िला मजिस्ट्रेट को एक नोटिस देना होग। (धारा 9)
• यदि किसी मामले में एक महिला द्वारा केवल विवाह के उद्देश्य से ही धर्म परिवर्तन किया जाता है, तो ऐसे विवाह को अमान्य घोषित कर दिया जाएगा। (धारा 6)
• इस अध्यादेश के प्रावधानों के उल्लंघन के मामलों में आरोपी को न्यूनतम एक वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे पाँच वर्ष के कारावास और 15 हज़ार रुपए के जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है। (धारा 5)  यही नहीं यदि किसी नाबालिक, महिला अथवा अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित व्यक्ति का गैर-कानूनी तरीके से धर्मांतरण कराया जाता है तो ऐसे मामलों में कम-से-कम तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे 25,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। 
• इस अध्यादेश के तहत सामूहिक धर्मांतरण के खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान किया गया है, सामूहिक धर्मांतरण के मामलों में कम-से-कम तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे 50,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
• इसके तहत धर्मांतरण में शामिल सामाजिक संस्थानों में इस अध्यादेश के तहत सामूहिक धर्मांतरण के खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान किया गया है, सामूहिक धर्मांतरण के मामलों में कम-से-कम तीन वर्ष के कारावास का दंड दिया जा सकता है, जिसे 50,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
• साथ ही इसके तहत धर्मांतरण में शामिल सामाजिक संस्थानों के पंजीकरण को रद्द किये जाने का प्रावधान भी किया गया है।
• इसके अलावा अध्यादेश के परिभाषा खंड में अपराधों से सम्बन्धित शब्दावलियों को अधिक विस्तृत व अस्पष्ट से ऐसा परिभाषित किया गया कि कानूनी और गैर क़ानूनी के मध्य की विभाजन रेखा ही खत्म सी लगती है। मानो, सत्ताधारी दल को जो चीजें भी पसंद नही, वह सब अपराध है।
गौरतलब है कि राज्यपाल के पास संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अपना अध्यादेश जारी करने की शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए कोई आकस्मिक आधार नहीं था।

“अध्यादेश” जारी करने की शक्ति राज्यपाल की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है, जिसे अप्रत्याशित या तात्कालिक तथा आपवादिक परिस्थितियों के निस्तारण के लिए प्रदान किया गया है। लेकिन, उतर प्रदेश राज्य आर्डिनेंस जारी करना एक जनरल फिनामिना बन गया, लगभग एक साल में ही लगभग डेढ़ दर्जन ऑर्डिनेंस जारी किये जा चुके हैं। कार्यपालिका का यह कदम संविधान की उस अपेक्षा के खिलाफ है जिसमें कानून बनाने का काम विधायिका को दिया गया है। अपेक्स कोर्ट ने ‘डीसी वाधवा केस’ में निर्धारित किया था कि राष्ट्रपति/राज्यपाल को अनुच्छेद 123 व 213 तहत आर्डिनेंस जारी करने की शक्ति अचानक पैदा हुई असाधारण पारिस्थितियों से निपटने हेतु संविधान द्वारा प्रदत्त की गयी हैं इसे सदनों का स्थानापन्न नही बनाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त  ऑर्डिनेंस को लोक-व्यवस्था व कानून के आसन्न खतरे के बहाने जारी किया गया है, लेकिन राज्य द्वारा इस संबंध में कोई डेटा/सर्वेक्षण या अध्ययन नहीं किया गया है, जिससे तत्कालिक स्थिति की आकस्मिकता दिखती हो। यही नहीं, कुछ समय पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमन्त्री संसद में कह चुके हैं कि ‘लव जिहाद’ जैसी कोई घटना सामने नहीं आयी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर की गयी जाँच पर एनआईए कहा कि केरल में इस तरह का कोई भी मामला प्रकाश में नहीं आया है। उप्र सरकार की कानपुर पुलिस ने लव जिहाद मामले में एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया कि इसे लेकर किसी तरह की साज़िश या विदेशी फंडिंग के सबूत नहीं मिले हैं। कानपुर शहर में कुछ दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों ने आरोप लगाया था कि मुस्लिम युवा धर्म परिवर्तन के लिए हिंदू लड़कियों से शादी से कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें विदेश से फंड मिल रहा है और लड़कियों से उन्होंने अपनी पहचान छिपा रखी है। इसकी जांच के लिए कानपुर रेंज के आईजी ने एसआईटी का गठन किया था । और इस एसआईटी जांच में भी लव जिहाद जैसी किसी परिघटना का कोई प्रमाण नहीं मिला ।

वस्तुतः यह अध्यादेश राज्य को निगरानी की बेलगाम शक्ति देता है और जीवन साथी चुनने के वयस्कों के पंसद के अधिकार में हस्तक्षेप करता है। स्त्रीयों की समझदारी को कमतर आंकते हुए उनके शारीर को उपनिवेश की तरह सलूक करता है जिस पर वह अपनी मनमानी थोप सके। यह लैंगिक रूप से पक्षपाती भी है, जो महिलाओं की अपने जीवन साथी का चयन करने की स्वतंत्र इच्छा को खत्म करता है। उदाहारनार्थ-अध्यादेश की धारा 6 का सामान्य पाठ यह मानता है कि केवल एक पुरुष केवल एक महिला को धर्मांतर‌ित करेगा और महिलाओं को वस्तु मानता है और समान पायदान पर खड़ी महिलाओं के व्यक्तिगत निर्णय को मान्यता नहीं देता है। यह लैंगिक रूप से पक्षपाती भी है, जो महिलाओं की अपने जीवन साथी का चयन करने की स्वतंत्र इच्छा को खत्म करता है।

यह लोगों “राइट टू च्वायस’ और ‘गरिमापूर्ण जीवन’ जीने के वयस्क नागरिकों के अधिकार को मनमुताबिक अंकुश लगाने जैसा है। जबकि दो वयस्कों के यौनिक पसंद और मनपसन्द का जीवन साथी चुनने का अधिकार को सर्वोच्च न्यायलय ने मौलिक अधिकार डिक्लेयर कर रखा है। यही नहीं, प्राचीन काल में ‘स्वयंवर प्रथा’ के द्वारा स्त्रियां मनचाहा पति चुन सकती थी। आज के लोकतांत्रिक युग में तो ‘प्रेम’ पर पाबंदी किसी भी बहाने नही लगाया जा सकता। इस सम्बन्ध में इंकलाबी व तरक्कीपसंद शायर ‘शाहिर लुधियानवी’ के नज्म कुछ पंक्तियाँ गौरतलब है:-

वहशत-ए-दिल रस्म-ओ-दीदार से रोकी ना गई
किसी खंजर, किसी तलवार से रोकी ना गई
इश्क़ मजनू की वो आवाज़ है जिसके आगे
कोई लैला किसी दीवार से रोकी ना गई, क्योंकि
ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़,  ये इश्क़ इश्क़ है…

इश्क़ आज़ाद है, हिंदू ना मुसलमान है इश्क़,
आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क़
जिससे आगाह नहीं शेख-ओ-बरहामन दोनों,
उस हक़ीक़त का गरजता हुआ ऐलान है इश्क़ !

यहाँ उल्लेख करना प्रसांगिक होगा कि एक आंकड़े के मुताबिक एक वर्ष में, भारत में लगभग 36,000 गैर-परम्परागत (अंतर-धाार्मिक व अंतर्जातीय) विवाह हुए और उत्तर प्रदेश में लगभग 6,000 ऐसे विवाह हुए। हालांकि, राज्य यह बताने करने में विफल रहा है कि इस तरह के कितने मामलों ने कानून-व्यवस्था की स्थिति के लिए खतरा पैदा किया है। इस तरह यह स्थिति उक्त अध्यादेश के उद्देश्य को गलत सिद्ध कर देती है।

विवाह और धर्मांतरण पर उच्चतम न्यायालय का मत: 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह स्वीकार किया है कि जीवन साथी के चयन के मामले में एक वयस्क नागरिक के अधिकार पर राज्य और न्यायालयों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है यानी सरकार अथवा न्यायालय द्वारा इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। भारत एक ‘स्वतंत्र और गणतांत्रिक राष्ट्र’ है और एक वयस्क के प्रेम तथा विवाह के अधिकार में राज्य का हस्तक्षेप व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। विवाह जैसे मामले किसी व्यक्ति की निजता के अंतर्गत आते हैं, विवाह अथवा उसके बाहर जीवन साथी के चुनाव का निर्णय व्यक्ति के “व्यक्तित्व और पहचान” का हिस्सा है किसी व्यक्ति द्वारा जीवन साथी चुनने का पूर्ण अधिकार कम-से-कम धर्म से प्रभावित नहीं होता है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय के कतिपय महत्वपूर्ण मामलों का हवाला देना उचित होगा

वर्ष 2017 का हादिया मामला: इस मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘अपनी पसंद के कपड़े पहनने, भोजन करने, विचार या विचारधाराओं और प्रेम तथा जीवन साथी के चुनाव का मामला  किसी व्यक्ति की पहचान के केंद्रीय पहलुओं में से एक है।’ ऐसे मामलों में न तो राज्य और न ही कानून किसी व्यक्ति को जीवन साथी के चुनाव के बारे में कोई आदेश दे सकते हैं या न ही वे ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकते हैं। 
के. एस. पुत्तुस्वामी निर्णय (वर्ष 2017): किसी व्यक्ति की स्वायत्तता से आशय जीवन के महत्त्वपूर्ण मामलों में उसकी निर्णय लेने की क्षमता से है।

लता सिंह मामला (वर्ष 1994): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि देश एक बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और इस दौरान संविधान तभी मज़बूत बना रह सकता है जब हम अपनी संस्कृति की बहुलता तथा विविधता को स्वीकार कर लें।कोर्ट ने आगे कहा कि अंतर्धार्मिक विवाह से असंतुष्ट रिश्तेदार हिंसा या उत्पीड़न का सहारा लेने की  बजाय सामाजिक संबंधों को तोड़ने’ का विकल्प चुन सकते हैं। 

सोनी गेरी मामला, 2018:इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों को ‘माँ की भावनाओं या पिता के अभिमान’ के आगे झुककर ‘सुपर-गार्ज़ियन’ की भूमिका निभाने से आगाह किया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट 2020 के सलामत अंसारी-प्रियंका खरवार केस: इलाहाबाद हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने अपने हालिया एक ताज़ातरीन फैसले में फैसला दिया कि अपनी पसंद के साथी को चुनना या उसके साथ रहने का अधिकार नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। (अनुच्छेद-21) यही नहीं न्यायालय ने यह भी कहा कि विवाह के लिये धर्मांतरण के निर्णय को पूर्णतः अस्वीकृत करने के विचार के समर्थन से जुड़े अदालत सिंगल जजों के  पूर्व फैसले वैधानिक रूप से सही नहीं हैं।

स्पष्ट है कि अध्यादेश मनमानापूर्ण और राज्य सनक की संतुष्टि हेतु जारी किया गया है, क्योंकि यह संवैधानिक भावनाओं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट के ‘सलामत अंसारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य’ में प्रतिपादित विधिक सिद्धांतों को नजरंदाज करता है। इसलिए यह संविधान के आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है। यह अध्यादेश, संविधान के अनुछेद 25- धार्मिक आजादी (इसमें किसी धर्म को मानने, किसी भी धर्म में आस्था न रखने तथा मनोवांछित धर्म परिवर्तित हो जाने का अधिकार शामिल है), आर्टिकल 15- जन्म, लिंग व धर्म के आधार भेदभाव निषेध, आर्टिकल 19- विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी तथा आर्टिकल 21- निजी आजादी व गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार तथा इन सबसे बढ़कर सेकुलरिज्म- जो संविधान के आधारभूत ढांचे का भाग है के प्रतिकूल होने के चलते इसकी संवैधानिकता संदिग्ध है।

उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत अध्यादेश में आपराधिक विधि के कॉमन लॉ के सिद्धान्तों तथा सभ्य जगत में पेनोलाजी के मानी मानकों को भी उपेक्षित कर दिया गया है। धर्म परिवर्तन जैसे अपराधों के लिए 10 साल का कठोर दंड,  जो कि आईपीसी में डकैती, राजद्रोह, गैर-इरादतन हत्या जैसे जघन्य अपराधों हेतु उपबंधित का प्रावधान करना दंडशास्त्र के दर्शन के ही विरुद्ध है। इसके तहत सबूत का भार अभियुक्त पर डालना आपराधिक न्यायिक प्रणाली के सिद्धांत के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के खिलाफ है। जबकि यह भार सदैव राज्य पर रहता है कि वह किसी अभियुक्त की दोषिता संदेह से परे साबित करे। अध्यादेश में सहमति और विवाह के मुद्दे पर निर्णय लेने से संबंधित फैमिली कोर्ट से न्यायिक विवेक को छीन लेता है और यह आदेश देता है कि ऐसी कोई भी शादी शून्य होगी।

राज्य किसी भी प्रकार के विवाहों या पार्टनरशिप को मान्यता देने में कोई भेदभाव नहीं कर सकता है, और विवाह को शून्य मानना राज्य सरकार की विधायी क्षमता से बाहर है।
अध्यादेश में संसद द्वारा अधिनियमित कानून के प्रावधानों को कम करने की विशेषताएं हैं जैसे कि सीआरपीसी, आईपीसी, विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, शरीयत आवेदन अधिनियम 1937, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872, आदि। यह अनुच्छेद 251 का उल्लंघन है। वैसे भी विवाहों की वैधता की मान्यता का व्यक्ति के धर्मांतरण से कोई संबंध नहीं हो सकता है, और चूंकि अध्यादेश ऐसा करता है, इसलिए यह व्यक्ति की निजता  और उसकी पसंद की निजता  के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

यह अध्यादेश अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्वों का उल्लंघन करता है, मानवधिकारों की सार्वभौम घोषणा, जिसका भारत हस्ताक्षरकर्ता रहा और उसमे घोषित अधिकांश अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग 3 में वर्णित किया गया है और नागरिकों तथा गैर-नागरिकों दोनों गारंटी को दी गई है कि राज्य इसमें कटौती नहीं करेगा तथा बहरहाल में इंडिविजुअल राइट को संरक्षित किया जाएगा इस तरह के अध्यादेश भारतीय राष्ट्र राज्य के रूप में अंतरराष्ट्रीय जगत फेंकी गई संधियां कन्वेंशंस तथा भारत के बहुलवादी चरित्र को बनाए रखने का दिया गया वायदे को आघात पहुंचाते जाते हैं।

इस प्रकार, यह अध्यादेश भारतीय संविधान की मूलभूत भावना अपेक्षाएं तथा आपराधिक विधि के मान्य सिद्धांतों के प्रतिकूल है होने के कारण आधुनिक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत की विद्रूप छवि प्रस्तुत करता है। यही नहीं, कार्यपालिका का यह कदम मांटेस्क्यू के शक्ति विभाजन के सिद्धांत जिसमें कानून बनाने का अधिकार विधायी सदनों को होगा को बाईपास करके संवैधानिक लोकतंत्र पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। इस तरह के अध्यादेश समाज में पोलराइजेशन करके पॉलिटिकल मास्टर को संतुष्टि तो दे सकते हैं परंतु, अपने ही देश के नागरिकों में विधायी सदनों के प्रति आविश्वास की भावना को और बढ़ा देंगे और राज्य के अल्पसंख्यकों तथा हाशिए के समाज में डर का स्थाई भाव पैदा करेंगे तथा ये तबके राज्य हर गतिविधि को शक नजर से देखते हुए राज्य की निष्पक्षता पर संदेह करेंगे। अंततः यह स्थिति एक समावेशी, लोकतांत्रिक, कानून-पालक और आधुनिक मूल्यों वाले समाज के निर्माण में बाधा ही उत्पन्न करेंगे।

(रमेश कुमार इलाहाबाद हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं।) 

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