Friday, April 19, 2024

सत्ता की पालकी ढो रही है मीडिया

आज के जमाने में भी ऐसे प्राणी/तत्व/चारण पाए जाते हैं, जो शासक वर्ग का गुणगान करने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देते हैं। यूं तो राजे-रजवाड़ों का जमाना अब नहीं रहा और उनके बदले में भारत सहित अधिकांश देशों में (कुछ देशों को छोड़कर) प्रजातंत्र आ चुका। तो लोगों ने अपने मतों का प्रयोग करके नेताओं को गद्दी सौंपी और वे राज्य के नए मालिक हो गए। वे ही राजा बन बैठे। जनता को अपनी प्रजा और रिआया मान बैठे। मनमानी पर उतर आये। नित नए भ्रष्ट आचरण व ऐशो ऐयाशी में संलग्न हो गए। अब न उन्हें जनता के हितों की फिक्र है और न ही कोई सरोकार। और तो और अपनी वंशवाद की बेल बढ़ाने के लिए वे सभी अथक प्रयत्न करते नजर आते हैं। कोई भी राजनीतिक दल हो उसका प्रमुख नेता इसका अपवाद नहीं है।

पांच बरस के बाद, वोट मांगने जब उन्हें हर दरवाजे पर दस्तक देनी होती है तो वे तरह-तरह के आश्वासन और प्रलोभन देते हैं, बहाने बनाते हैं और फिर अपने पुराने कार्यों की दुहाई देते हैं जो नितांत असत्य पर ही आधारित होती है। सारे नेता कॉर्पोरेट मीडिया के सामने नतमस्तक ही नहीं हैं वरन एक बड़ी पूंजी उसके नाम कर दी है। अब वही उनका भगवान है जितना चढ़ावा उतना प्रचार। वैसे भी पूंजीवाद में असली शासक तो पूंजीपति ही होता है। बहुत से नेता अब पूंजीपतियों के जूनियर पार्टनर की श्रेणी में ही हैं और कुछ पूंजीपति भी नेता हो गए हैं। यह जुगलबंदी मजे से चल रही है तब जनता की बात कौन करे? यूं तो विकासशील देशों में मीडिया की भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर हो ही नहीं सकती पर भारत में मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है। मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। बेरोजगारी चरम पर है। स्वयं मीडियाकर्मियों की नौकरियों में कमी आई है, छटनी हुई है मगर पत्रकार, एंकर सब पालतू बन गए हैं।

उनकी अपनी कोई आवाज ही नहीं बची। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, जो बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ खबरें भी इतनी सड़ी हुई हैं कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा है। खबरों के उत्पादकों के पास इस बात का भी तर्क है कि यदि उनकी ”बिकाऊ” खबरों में दम नहीं होता, तो चैनलों की टी.आर.पी. एवं अखबारों की रीडरशिप कैसे बढ़ती ? लेकिन यह पोचापन तर्क है। टीआरपी मैनेज की जा रही है, खरीदी जा रही है और टीआरपी रेटिंग देने वाली BARC जैसी संस्थाओं को घूस देकर तमाम आपराधिक और घृणित हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। हाल के दिनों में मीडिया के स्वरूप में व्यापक बदलाव आया है।

तकनीकी विस्तार के साथ-साथ मीडिया की पहुंच व्यापक हुई है। मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय पहलू यह जुड़ा हुआ है कि यह सामाजिक सरोकारों से बहुत ही दूर हो गया है। मीडिया के इस बदले रुख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती गई है, जो यह मानते हैं कि मीडिया का कार्य समाज को जागरूक करना, शिक्षित करना और सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील बनाना है। उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। दूसरी ओर उन पत्रकारों की भी कमी नहीं है, जो बाजारीकरण के दौर में मीडिया को व्यवसाय के रूप में देख रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है। ऐसा मान लेने से मीडिया की परिभाषित भूमिका को हम नकार देंगे, और वंचितों एवं उपेक्षितों की आवाज बनने का दावा करने वाले, सच का आईना वाला दावा करने वाले और विकास और सामाजिक सरोकार के प्रतिबध्द रहने वाले मीडिया को हम खो देंगे बल्कि खो ही चुके हैं।

ऐसा लग रहा है कि जनसरोकारों वाली पत्रकारिता अब अतीत की बात हो गई है या महज एक सदिच्छा है। इसलिए आज ऐसे ही पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की महती जरूरत है जो जनपक्षधर हों, निडर और निर्भीक हों। पत्रकारिता जिनका मिशन हो। अगर हम इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि सामाजिक समस्याओं, तत्कालीन राजनीति और जनजागरण को समर्पित साहित्यिक पत्रकारों का योगदान बहुमूल्य रहा है।20वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैली क्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी बात रखनी थी। तब तक हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और तब हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं।

इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे रह गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानंद मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास और स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैं स्वयं एक साहित्यकार हूँ कोई प्रोफेशनल पत्रकार नहीं लेकिन मैं यह मानता हूँ कि जागरूक लेखक का दायित्व और जवाबदेही जन और समाज के प्रति है इसलिए उसे समाज की विसंगतियों, विद्रूपताओं, शोषण और दमन के खिलाफ अवश्य हस्तक्षेप करना चाहिए।

बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। वामन विष्णु पराड़कर पत्रकारिता के पितामह माने जाते हैं। राहुल बारपुते, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर का आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चूंकि आज की पत्रकारिता सिर्फ समाचार पत्रों तक ही सीमित नहीं है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रूप में उसका विकास हुआ है। उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है। अब उसकी विश्वसनीयता की भी परीक्षा होगी। जन विश्वास उससे यह अपेक्षा करता है कि उसकी भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ जनता के दुःख तकलीफों और उसकी समस्यायों के प्रति सहानुभूतिपरक हो, संघर्षशील हो ताकि उसकी विश्वसनीयता कायम रह सके।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं आजकल जयपुर में रहते हैं।)   

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