सन 2022, इलेक्शन के दंगल का वर्ष है और यह देश की दशा एवं दिशा को निर्धारित करेगा। शब्दों के बाण अभी से चलने शुरू हो गए हैं। विकास इलेक्शन का प्रमुख मुद्दा होगा-होना भी चाहिए। विकास, प्रधानमंत्री मोदी जी के भाषणों का भी पसंदीदा मुद्दा रहा है । वे इसे आगे बढ़ाएंगे। वे शब्दों के तरकश को और मजबूत करने में लगे हैं। इस बीच वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन बजट की तैयारी करने में तल्लीन हैं। नीति आयोग ने उनको सुझाव दिया है कि विकास ही बजट का भी मूल मुद्दा होना चाहिए। संभावना भी यही है कि ऐसा ही होगा। राजकोषीय घाटा बढ़ाकर धन जुटाया जायेगा जिससे कि विकास का पहिया गतिमान किया जा सके। सरकार मानती है कि आर्थिक विकास के साथ रोजगार बढ़ता है। इससे लोगों की आय बढ़ती है। जनता की जेबों में पैसा होने से मांग बढ़ती है। उद्योगपति उत्पादन करने लगते हैं। इससे रोजगार बढ़ता है। व्यापारी प्रसन्न एवं किसान संपन्न होता है।
सत्तर साल बनाम सात साल की बहस प्रधान मंत्री जी का प्रिय विषय रहा है। उनका मानना है कि सात साल में भारत का कायाकल्प हो गया है । विकास तेजी से हुआ है और हम विश्व गुरु बनने की राह में और आगे बढ़े हैं। लेकिन वस्तुतः ऐसा ही है क्या ? इस तथ्य की पूरी पड़ताल करने की आवश्यकता है । देखने की ज़रूरत है कि सात साल में स्थिति कैसी हुई है ? इसके लिये आर्थिक विकास की गति की पड़ताल करने की जरूरत होगी।
विकास एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। विकास होता है तो समृद्धि बढ़ती है । आम जनता की आय बढ़ती है। जीवन खुशहाल होता है । लेकिन याद रखने की बात है कि विकास न केवल सतत हो बल्कि इसमें सबकी भागीदारी भी होनी चाहिए । और इसकी सुनिश्चितता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकार की सोच क्या और कैसी है ? सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों तथा उनका क्रियान्वयन कैसा है ? इन सब तत्वों का विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।
मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से दूसरी बार सत्ता में आई है । लोगों की अपेक्षायें उनसे ज्यादा रही हैं । अपेक्षायें जनता को स्फूर्तिवान भी बनाती हैं । देश एक नई ऊर्जा के साथ सरकार के पीछे चलता है । विकास भी एक नए सोपान को प्राप्त करता है । दूसरी तरफ यदि सपने टूटते हैं तो निराशा फैलती है और विकास भी थम जाता है ।
अब देखा जाए कि मोदी सरकार के कार्यकाल में आर्थिक विकास के आंकड़े क्या कहते हैं । 2014- 2015 में देश की विकास दर 7.4 प्रतिशत थी जो कि 2015-16 में बढ़कर 8.2 प्रतिशत हो गई । 2016 -17 में यह पुनः बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई । यह एक अचंभित करने वाली विकास दर थी । स्पष्ट है कि इन वर्षों में विकास सतत रूप से हो रहा था । सरकार की सर्वत्र प्रशंसा हो रही थी- होनी भी चाहिए । मोदी सरकार सातवें आसमान पर थी । उसने कहना शुरू किया कि पालिसी पैरालिसिस को समाप्त करने के कारण ऐसा संभव हुआ। कहा जाने लगा की पूर्व की यूपीए सरकार के कार्यान्वयन में विसंगतियां थीं , जिसे अब ठीक कर दिया गया है ।
लेकिन 2017-18 एवं उसके पश्चात यह विकास यात्रा थम सी गई है । जैसे विकास पर ग्रहण लग गया । क्या थी विकास दर इन वर्षों में ? 2017-18 में यह गिरकर 7 प्रतिशत ऱह गई । 2018 -19 एवं 2019- 20 में यह तेजी से घटी और क्रमशः 6.4 एवं 4.4 प्रतिशत ऱह गई। प्रश्न यह है कि विकास दर तेजी से क्यों गिर गई ? उस पर क्यों ग्रहण लग गया ? किसने यह ग्रहण लगाया ? उत्तर है – ग्रहण स्वयं सरकार ने लगा लिया था । सरकार की नीतियां-रीतियाँ ही उसके लिए जिम्मेदार प्रतीत होती हैं । पर ऐसा कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि देश तो वही था, भौगोलिक क्षेत्रफल भी नहीं बदला था, किसान और मजदूर भी वही थे । मेहनत एवं मशक़्क़त भी करना चाह रहे थे। वे सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास के सपने देख रहे थे । नौजवान, विश्व बाजार में छाने के लिए तैयार थे । हमारी जनसंख्या एक नौजवान जनसंख्या थी। उसे जनांकिकी लाभांश प्राप्त करने का स्वप्न दिखाया गया था । रोजगार मिलने का वायदा था । भूखी, गरीब जनता एक नए भारत का स्वप्न देख रही थी । लेकिन उसे क्या पता था की बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में यह स्वप्न-एक स्वप्न ही रहेगा ।
मोदी सरकार ने 2014-16 के बीच दीनदयाल उपाध्याय एवं बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के पद चिन्हों पर चलने का प्रयास किया। जनता भी उत्साहित थी । परन्तु 2016 में सरकार ने अपना मुखौटा हटाया । नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ-रीतियाँ लागू होने लगीं। सरकार की नीतियों और उसके क्रियान्वयन ने आर्थिक पारिदृश्य में एक बवंडर सा ला दिया। 2016 में विमुद्रीकरण की नीति रातोंरात लागू की गयी । इससे असंगठित क्षेत्र बर्बाद हो गया। यह बर्बादी अभी तक बरक़रार है । इससे बेरोजगारों की फ़ौज में भारी वृद्धि हुई। बेरोजगारी 45 वर्षों में सबसे उच्चतर स्तर पर हो गई। आर्थिक विकास थम सा गया । 2016 में बिना तैयारी के जीएसटी लागू कर दिया गया । यद्यपि इस परिवर्तन को एक दूसरी आजादी का नाम दिया गया परन्तु इस परिवर्तन से सरकार की आय में भारी कमी होने लगी । सितम्बर 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स में भारी कमी ने इस रही-सही कसर को पूरा कर दिया। इन नीतिगत परिवर्तनों ने अर्थ व्यवस्था की चूल तक हिला दी है । इस बीच कोरोना ने आर्थिक विकास की तेजी से गिरती हुई स्थिति को भूचाल में परिवर्तित कर दिया है । 2020 – 21 में विकास दर गिर कर -10 प्रतिशत रह गई। 2021- 22 में इसके – 7.7 प्रतिशत रहने की संभावना है ।
स्पष्ट है की सरकार की नीतियों में हुए परिवर्तनों ने आर्थिक विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है । गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और असमानता में तीव्र वृद्धि हुई है। छोटे उद्योग समाप्त हुए हैं। इनइक्वेलिटी वायरस रिपोर्ट ने बता दिया है कि अर्थव्यवस्था में रिकवरी का स्वरूप “K” जैसा है जिससे असमानता में भारी वृद्धि होगी। फिच, इंडिया रेटिंग के सर्वेक्षण ने बताया है कि निजी उपभोग व्यय घटा है। आम जनता के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं है । इससे मांग घटी है और परिणाम स्वरूप विकास बाधित हुआ है। प्रश्न तो यह है कि इस इलेक्शन में क्या इन आर्थिक विषयों पर चर्चा होगी? अपने शब्द बाणों एवं लच्छेदार बातों से सरकार शायद विपक्ष को चुप करा दे -इलेक्शन भी जीत जाये लेकिन क्या इससे गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रही जनता की समस्या समाप्त हो पायेगी ? वस्तुतः लोकतंत्र की यही तो विडम्बना है की पक्ष-विपक्ष के तकरार में जनता हाशिये पर हो जाती है।
(लेखक विमल शंकर सिंह बनारस के डीएवी पीजी कालेज से प्रोफेसर अर्थ शास्त्र के पद से रिटायर हुये हैं।)