Friday, March 29, 2024

मुसलमान परिवार ने पूरी श्रद्धा और हिफाजत से संभाल रखी है गुरु गोविंद सिंह जी की अनमोल ऐतिहासिक निशानियां

सिख इतिहास में दिसंबर को ‘कुर्बानियों का महीना’ कहा जाता है। इसलिए कि नौंवे गुरु गोविंद सिंह जी का समूचा परिवार दिसंबर महीने की इन्हीं तारीखों में शहीद हुआ था। शहादतों के वक्त दशम पातशाह मुगलों के खिलाफ जंग लड़ रहे थे। इसी जंग में उनका पूरा परिवार शहादत को हासिल हो गया। बेशुमार मुस्लिम परिवारों ने भी तब गुरु साहिब का साथ दिया था। तमाम खतरे उठाकर। वे सब सिख इतिहास के पन्नों में बेहद ऐहतराम के साथ दर्ज किए गए हैं।                    

बेहद अहम है कि गुरु गोविंद सिंह जी से संबंधित उनकी कई वस्तुएं अथवा निशानियां मुस्लिम परिवारों ने बेहद श्रद्धा तथा पवित्रता के साथ संभाल कर रखी हुईं हैं। इनमें से एक है ‘गंगासागर’। सिख इतिहास में इसका खास जिक्र है और क्या आप जानते हैं कि उसी गंगासागर को एक मुसलमान परिवार ने गुरु जी की अनमोल तथा पवित्रतम निशानी के तौर पर महफूज रखा हुआ है? उक्त गंगासागर दरअसल तांबे-पीतल तथा अन्य धातुओं से बना एक अनमोल बर्तन है, जिसमें से गुरुजी पेय पदार्थों (यानी दूध–जल वगैरह) का सेवन किया करते थे और हमेशा उसे अपने साथ रखते थे। यहां तक कि मैदान-ए-जंग में भी। मुगलों के साथ निर्णायक युद्ध में भी गंगासागर उनके साथ था।             

चमकौर की गढ़ी में बड़े साहिबजादे बाबा जुझार सिंह और बाबा अजीत सिंह शहीद हो गए। गुरुजी ने आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया और सरसा नदी पर शेष परिवार उनसे जुदा हो गया। गुरु गोविंद सिंह लड़ते-लड़ते मछीवाड़ा पहुंच गए। जहां दो मुसलमान भाइयों नवी खान और गनी खान ने उन्हें, तमाम खतरे उठाकर, पनाह दी और मर्यादा अनुसार पूरी श्रद्धा के साथ उनकी सेवा की। खान बंधु घोड़ों के व्यापारी थे और गुरु साहिब ने वहां से रुखसत होने से पहले उनकी सेवा के मद्देनजर उन्हें बाकायदा पीर का दर्जा दिया। नवी खान और गनी खान मुगलों की खिलाफत से बखूबी वाकिफ थे। उन्होंने पूरे सत्कार के साथ, कुछ अन्य भरोसेमंद मुसलमानों को साथ लेकर गुरु गोविंद सिंह को अपने कंधों पर बैठाकर मछीवाड़ा से महफूज बाहर निकाला। उस वक्त पूरे इलाके को मुगल सेनाओं ने घेरा हुआ था और उनके गुप्तचर जगह-जगह गुरुजी की थाह ले रहे थे। मछीवाड़ा के बाहर गुरुजी कई जगह मुगल फौज से मुकाबिल हुए।        

यह वह वक्त था जब कहा जाता था कि “पत्ता-पत्ता सिंहों का वैरी (दुश्मन) हो गया है।” ज्यादातर लोग मुगलिया हुकूमत से खौफ जदा थे। जैसे तैसे गुरु गोविंद सिंह मुस्लिम रियासत रायकोट के गांव हेरां पहुंचे। हेरां के खेतों में उन्हें एक चरवाहा मिला। नाम था नूरां माही। उसने गुरुजी और उनके परिवार की शहादत की बाबत सुना जरूर था लेकिन गोविंद सिंह को कभी देखा नहीं था। थके-हारे गुरुजी ने उससे पीने के लिए दूध मांगा तो माही ने उनके गंगासागर में दूध भर दिया। लेकिन वह समझ गया कि यह कोई असाधारण शख्सियत हैं।                

उसने रायकोट जाकर अपने मालिक राय कल्लां को सूचित किया। नूरां माही की सारी बात सुनकर राय कल्लां समझ गए कि उक्त शख्सियत कौन हैं। उन्होंने भी हुकूमत के खौफ की कोई परवाह नहीं की और भागे-भागे गए और गुरु जी को अपनी हवेली में ले आए। पूरी श्रद्धा से उनका मान-सम्मान किया और सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी।               

गुरुजी ने राय कल्लां को बताया कि सरसा नदी पर उनका परिवार उनसे बिछड़ गया था और वह जानना चाहते हैं कि अब उनके साहिबजादे तथा माता किन हालात में हैं? राय कल्लां से उन्होंने गुजारिश की कि किसी भरोसेमंद शख्स को सरहिंद रवाना किया जाए ताकि वस्तुस्थिति का पता चल सके। राय ने इस काम के लिए नूरां माही को भेजा और वापस आकर उसने गुरुजी को, उनके परिवार की शहादत की बाबत बताया। नूरां माही का सिख इतिहास में खास जिक्र है।         

गुरु गोविंद सिंह ने तब के सूरत-ए-हाल सेवक होकर वहां से कूच करने की ठानी ताकि आतततायी मुगल साम्राज्य से जंग जारी रखी जा सके।                       

गुरु गोविंद सिंह राय कल्लां की सेवा भावना और वफादारी से इतने खुश हुए कि अपनी सबसे पसंदीदा सुराही ‘गंगासागर’ उन्हें भेंट कर दी। इसके साथ कुछ अन्य वस्तुएं भी। इनमें से एक पीढ़ी भी थी, जिस पर राय कल्लां का परिवार पवित्र कुरान शरीफ विराजमान करके पढ़ा करता था और उसी परिवार की नई पीढ़ी आज भी ऐसा ही करती है। रायकोट और उससे सटी तलवंडी राय रियासत मुस्लिम बाहुल्य थी और निजाम भी मुसलमानों के हवाले था। वहां के मुसलमानों ने गुरु गोविंद सिंह के रायकोट प्रवास की याद में सिखों से मिलकर ऐतिहासिक गुरुद्वारा ‘राहलियाना साहिब’ बनवाया। प्रतिदिन हजारों की तादाद में सिख, हिंदू और मुसलमान वहां मत्था टेकते हैं। यह जगह भी अमन और सद्भाव की अद्भुत मिसाल है।                                         

अब आते हैं गुरु जी को अतिप्रिय सुराही ‘गंगासागर’ पर। यह सुराही अभी भी एक मुस्लिम परिवार पूरी श्रद्धा और हिफाजत के साथ संभाले हुए है। इस वक्त परिवार के मुखिया हैं राय अजीज उल्लाह खान। जिनका जन्म पाकिस्तान में हुआ और बाद में वह कनाडा के सरीं में बस गए। वह राय कल्लां परिवार की नौवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी उम्र तब 27 साल की थी, जब उन्हें गंगासागर और गुरु साहिब की अन्य निशानियां की बाबत बताया गया तथा इन तमाम चीजों को राय अजीज उल्लाह खान के हवाले बतौर विरासत किया गया। पाकिस्तान से जब वह विदेश गए तो, पूरी आस्था के साथ गुरु साहिब की निशानियों को साथ ले गए। सुरक्षा के लिहाज से इन निशानियों को उन्होंने बैंक के लॉकर में रखवाया।   

1999 में जब श्री आनंदपुर साहिब की धरती पर, बैसाखी के मौके पर गुरु गोविंद सिंह जी के परिवार की ऐतिहासिक कुर्बानियों की याद के 300 साल पूरे होने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का समागम आयोजित किया गया तो राय अजीज ‘गंगासागर’ तथा गुरु परिवार की अन्य निशानियां लेकर वहां आए। इसके लिए तत्कालीन भारत सरकार ने उन्हें चार्टर्ड विमान उपलब्ध कराया था। तब के प्रधानमंत्री ने भी इस बेमिसाल ऐतिहासिक वीरसे के दर्शन किए थे और शेष श्रद्धालुओं की मानिंद राय अजीज उल्लाह का खास इस्तेकबाल किया था।      

सबसे पहले राय अजीज 1983 में पंजाब के जालंधर शहर में हॉकी का मैच देखने आए थे और तब सरकार से इजाजत लेकर रायकोट स्थित अपनी पुश्तैनी हवेली देखने गए थे। उनसे मिलकर लोग रोने लगे और उनका भरपूर स्वागत किया गया। उसके बाद वह 1999 में आए तो तब भी रायकोट गए। उन्हें और नूर की गाड़ी को फूलों से लाद दिया गया। राय अजीज उल्लाह कहते हैं, “उस मंजर को मैं भूल नहीं पाया और शायद ताउम्र भूलूंगा भी नहीं। लोगों ने इतनी मोहब्बत इसलिए दी कि मेरी पीढ़ी के पहले ज्ञात बुजुर्ग ने गुरु गोविंद सिंह जी की सेवा की थी और उन्हें गुरु जी ने अपनी निशानियां आशीर्वाद के तौर पर दी थीं। वे निशानियां अब भी बैंक के लॉकर में हिफाजत के साथ रखी हुईं हैं।” वह कहते हैं कि विदेश रहकर मैंने सिख इतिहास खंगाला, अंग्रेजों की मुगल साम्राज्य की बाबत लिखीं इबारतें बहुत ध्यान से पढ़ीं तो पाया कि गुरु गोविंद सिंह जी के श्रद्धालुओं में मुसलमानों की तादाद भी बहुत बड़ी है और उनकी कुर्बानियों को मुस्लिम पूरी अकीकत के साथ सजदा करते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी के जीवन काल से ही यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।” वह कहते हैं कि गुरु साहिब की निशानियां उनके परिवार के लिए उतनी ही पवित्र हैं, जितनी सिख-हिंदू श्रद्धालुओं के लिए।                       

राय अजीज उल्लाह खान 2014 में भी हिंदुस्तानी पंजाब आए थे। 1947 से पहले उनके तमाम करीबी रिश्तेदार लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर और अमृतसर जिलों के विभिन्न इलाकों में रहते थे। वह बताते हैं कि जालंधर जिले से सटे गांव तल्हण में उनका नौनिहाल था। उनके रिश्तेदारों की तमाम हवेलियां अथवा घर उसी तरह सलामत हैं और अब उनमें पाकिस्तान से उजड़ कर आए सिखों और हिंदुओं का बसेरा है। ये सब परिवार जानते हैं कि गुरु गोविंद सिंह जी के साथ राय अजीज उल्लाह के पुरखों से क्या और कैसे रिश्ते रहे हैं। अजीज यह भी बताते हैं कि विभाजन से पहले गुरु गोविंद सिंह जी तथा उनके शहीदी परिवार की याद में रायकोट में कई कार्यक्रम आयोजित होते थे और इसकी विधिवत शुरुआत उनकी उस हवेली से होती थी, जहां गुरुजी ने कुछ दिन प्रवास किया था तथा अपनी निशानियां राय कल्लां को दी थीं। उनके मुताबिक उनका मन सदा इधर के पंजाब आने को करता है और जब तक उनके खानदान का वजूद रहेगा, गुरु गोविंद सिंह जी की अनमोल निशानियों को इसी श्रद्धा और हिफाजत के साथ संभाल कर रखा जाएगा।

(पंजाब से वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह की रिपोर्ट।)               

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles