भारत में शायद ही कोई कृतघ्न नागरिक होगा जो कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजादी के आन्दोलन में अदा की गयी भूमिका को कमतर आंकता हो। ऐसा व्यक्ति भी शायद कोई हो जो कि नेता जी के महान व्यक्तित्व और उनकी नेतृत्व क्षमता प्रभावित न हो। भारत में शायद ही कोई ऐसा आम नागरिक हो जो कि नेता जी की मौत की सच्चाई जानना न चाहता हो। अगर नेता जी का स्थान देशवासियों के दिल में इतना ऊंचा न होता तो अब तक की सभी सरकारों पर इस रहस्य से पर्दा हटाने का इतना दबाव न होता।
इसी मानसिक दबाव के चलते विभिन्न सरकारों को दो-दो कमीशन बिठाने पड़े। यह उस महानायक के महान व्यक्तित्व का ही करिश्मा है कि इतने सालों बाद भी भारतवासी उनको मृत मानने को तैयार नहीं है। इसका मतलब यही है कि नेताजी देशवासियों के दिलोदिमाग में अमर है। लेकिन भारतीय जनमानस में नेता जी की चिरस्थाई स्मृति का मतलब महात्मा गांधी या नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में विस्मृति कतई नहीं है। आजादी के आन्दोलन के नायकों में से किसी को बेहतर और किसी को कमतर बताने की प्रवृत्ति सही नहीं है।
यह मुहिम नेहरू को कमतर बताने तक ही सीमित नहीं बल्कि उन्हें खलनायक साबित करने की लग रही है और यह पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले नेहरू को सरदार पटेल से कमतर साबित करने का प्रयास भी किया जा चुका है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि गांधी जी को सरदार भगत सिंह या चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों का मार्ग कतई पसंद नहीं था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भारतवासियों को भी ये क्रांतिकारी पसंद नहीं थे या उनके लिये श्रद्धा में कोई कमी थी। आजादी के आन्दोलन के महायज्ञ में हर किसी ने अपने-अपने तरीके से आहुति दी है, इसलिये किसी को कमतर और किसी को बेहतर बताने की सोच ही संकीर्ण है।
राजनीति संतों की कोई जमात नहीं होती। लोग यहां सत्संग सुनने या सुनाने नहीं आते। सभी का लक्ष्य राज या सत्ता हासिल करना होता है। वैसे भी राजनीति में साम-दाम-दंड और भेद का फार्मूला चलता है। नेहरू को न तो सत्यवादी हरिश्चन्द्र और ना ही उनके शासन को रामराज कहा जा सकता है। नेहरू भी राजनीति में चैरिटी के लिये नहीं आये थे। उनके प्रतिद्वन्दियों में अकेले सुभाष चन्द्र बोस नहीं थे। भारत -पाक विभाजन के लिये नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना की प्रतिद्वन्दिता को भी जिम्मेदार माना जाता है। लेकिन बिना सबूत के किसी पर आक्षेप लगाना उचित नहीं है। सच्चाई हर कोई जानना चाहता है लेकिन जिस तरह से किस्तों में नेता जी से संबंधित फाइलें अनावृत की जा रही हैं, वह तरीका संदिग्ध लग रहा है।
नेताजी के बारे में अब तक किश्तों में जो कुछ भी सामने आया है वह अर्धसत्य ही है और उस आधा सच के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना बुद्धिमानी नहीं है। अर्धसत्य तो झूठ से भी खतरनाक होता है। भले ही मोदी जी ने अभी तक इस मुहिम के बारे में कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाला है मगर उनकी पार्टी के लोग इसी आधा सच को लेकर कांग्रेस की छाती पर चढ़ गये हैं। भाजपाई गला फाड़-फाड़ कर कह रहे हैं कि नेहरू का इरादा गलत था इसीलिये उन्होंने नेताजी के परिवार की जासूसी कराई थी। अगर जासूसी कराई भी होगी तो इसका यह मतलब नहीं कि उस समय की सरकार का इरादा गलत ही रहा होगा।
नेताजी के बारे में तब भी उनके जीवित होने की चर्चाएं होती थीं और ऐसी चर्चाओं के चलते हर जिम्मेदार और जागरूक शासक का दायित्व होता है कि वह सच्चाई जानने का पूरा प्रयास करे। अगर नेता जी जीवित होते तो वह अपने परिवार से संपर्क करने का प्रयास कर सकते थे और सच्चाई का पता लगाने के लिये परिवार पर नजर रखना कोई नयी बात नहीं है। अगर नेहरू की जगह बाजपेयी भी होते तो भ्रम के कुहांसे को छांटने के लिये वह भी गुप्तचर ऐजेंसियों का सहारा लेते।
नेताजी को काई भी भारतवासी युद्ध अपराधी नहीं मान सकता। अंग्रेज तो सरदार भगत सिंह और राजगुरू जैसे क्रांतिकारियों को भी आतंकवादी और अपराधी मानते थे। अंग्रेजों के मानने से भारतवासी अपने नायकों को अपराधी नहीं मान सकते। वैसे भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी भारत में दो तरह की विचारधाराएं चल रहीं थीं। एक विचारधारा युद्ध में अंग्रेजों का साथ देने की पक्षधर और दूसरी तटस्थ रहने की थी। जापान और हिटलर के खिलाफ उस समय जो सैन्य गठबंधन था उसमें शामिल देशों को मित्र राष्ट्र कहा जाता था। इसी गठबंधन की जीत भी हुई और उसने हिटलर के नाजियों को युद्ध अपराधी घोषित कर उन पर न्यूरेम्बर्ग ट्रायल चलाया।
चूंकि नेताजी और उनकी आजाद हिन्द फौज जापान के साथ थी और नेताजी और एडोल्फ हिटलर का एक दूसरे को खुला समर्थन प्राप्त था। इसलिये नेताजी को भी युद्ध अपराधी घोषित किया जाना स्वाभाविक ही था। ब्रिटेन से तो नेता जी से मित्रवत् व्यवहार की उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी, नेताजी ने आजाद हिन्द फौज खड़ी कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। उसी आजाद हिन्द फौज की चार बटालियनों में से तीन के नाम गांधी, नेहरू और आजाद के नाम पर थी। चौथी बटालियन का नामकरण स्वयं नेताजी के नाम पर किया गया था।
भारतीय राजनीति के फलक से नेहरू और नेहरू की बेटी इंदिरा के राजनीतिक खानदान का सफाया करने का इरादा नया नहीं है। इस मकसद के लिये पहले मेनका गांधी का उपयोग किया गया। उनके बेटे वरुण का भी इस्तेमाल हो चुका है, और अब सुभाषचन्द्र बोस के परिवार को सोनिया-राहुल की परिवारवादी राजनीति के मुकाबले खड़ा किया जा रहा है। नेताजी के पड़पोते चन्द्र बोस को भाजपा में शामिल किया जाना इसी इसी मुहिम का एक हिस्सा माना जा सकता है।
नेता जी के मामले में तह तक पहुंचने से पहले ही भाजपा समेत संघ परिवार के लोग जिस तरह प्रलाप कर रहे हैं उसे देख कर लगता है कि उनकी रुचि सच्चाई जानने से अधिक नेहरू को खलनायक साबित करने में है ताकि भारतीय राजनीति के फलक से नेहरू-गांधी परिवार की अमिट छाप को मिटाया जा सके। देखा जाय तो यह नेताजी के कंधों पर बंदूक रख कर सोनिया-राहुल पर निशाना साधने का प्रयास ही है। इससे पहले इसी संघ परिवार ने इसी मकसद से सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित करने के लिये गांव-गांव जाकर लोहा एकत्र किया था। कौन नहीं जानता कि पटेल जनसंघी नहीं बल्कि कट्टर कांग्रेसी थे।
उन्हें भी आरएसएस की विचारधारा रास नहीं आती थी। ऐसे कांग्रेसी के प्रति संघ परिवार का अचानक अगाध प्रेम उमड़ना निरुद्देश्य नहीं बल्कि नेहरू को पटेल से कमतर साबित करना ही था। यह दांव चल नहीं पाया तो अब उस महानायक के अदृष्य कन्धों पर बंदूक रख दी जिसे कभी नेहरू का प्रतिद्धन्दी माना जाता था। लेकिन वे भूल रहे हैं कि अगर नेहरू को आधुनिक भारत के शिल्पी की भूमिका देना एक भूल थी तो यह भूल किसी और की नहीं बल्कि स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की थी।
अगर मोदी जी को नेहरू को खलनायक या नकारा साबित करना है तो उन्हें पहले महात्मा गांधी को खलनायक साबित करना होगा। काबिलेगौर यह भी है कि जिन लोगों से नाथूराम गोडसे की आराधना छिपाये नहीं छिपती है वे भी इन दिनों नेताजी की माला जपते नजर आ रहे हैं।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार है।)