Friday, March 29, 2024

भारतः भूख और गरीबी की नई कथा

बीते हफ्ते जारी हुई वर्ल्ड हंगर इंडेक्स रिपोर्ट से भारत में बढ़ रही भूख और कुपोषण की समस्या पर फिर रोशनी पड़ी है। भारत में भूख/ कुपोषण हमेशा से एक गंभीर समस्या रही है। लेकिन आजादी के बाद इसमें रुझान गिरावट का था। पहली बार इसमें निरंतर वृद्धि का रुझान हाल के वर्षों में शुरू हुआ है। वर्ल्ड हंगर इंडेक्स कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेथंगरहिल्फ नाम की दो गैर-सरकारी निजी संस्थाएं तैयार करती हैं। भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को तैयार करने के तरीके पर सवाल उठाते हुए तुरंत इसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जो आपत्तियां उठाईं, उसका माकूल जवाब वेथंगरहिल्फ ने दिया है।

बहरहाल, इस विवाद में ना जाते हुए अगर हम खुद भारत सरकार के हाल के आंकड़ों पर गौर करें, तब भी देश की वैसी ही छवि उभरती है, जैसा ताजा रिपोर्ट ने बताया है। साल भर पहले जारी हुई भारत सरकार के पांचवें परिवार स्वास्थ्य सर्वे (2015-2019) रिपोर्ट ने भी यही बताया था कि देश में कुपोषण बढ़ा है। ये दीगर बात है कि उस रिपोर्ट पर मीडिया और सार्वजनिक दायरे में सतही चर्चा भी नहीं हुई।

भूख/ कुपोषण का सीधा संबंध गरीबी से है। इसमें वृद्धि तब होती है, जब लोगों की आमदनी और उपभोग क्षमता में गिरावट आती है। इसलिए कि लोग सबसे आखिर में जाकर अपने भोजन में कटौती करते हैं। भोजन का संबंध पोषण से है। भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे, उपभोक्ता व्यय सर्वे, लेबर फोर्स सर्वे, रोजगार- बेरोजगारी सर्वे में से किसी की हालिया रिपोर्ट आप ले लें, उन सबसे एक जैसी ही कहानी उभरती है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने खुद इन्हीं सरकारी रिपोर्टों (जिनमें से कुछ को दबा दिया गया, लेकिन जिनकी रिपोर्टें लीक हो कर मीडिया में छपीं) के विश्लेषण के आधार पर बताया है कि देश में गरीबी की सूरत विकराल हो रही है।

इसके बावजूद मोदी सरकार की यह बड़ी सफलता है कि उसने गरीबी के सवाल को सार्वजनिक चर्चा से बाहर कर रखा है। लेकिन राष्ट्रीय विमर्श को असल मसलों से हटा देने से वे समस्याएं खत्म नहीं हो जातीं। बल्कि उससे स्थिति और बिगड़ती है, क्योंकि चर्चा ना होने के साथ ही उनका मुकाबला करने की कोशिशें भी कमजोर पड़ती जाती हैं। आज भी यही हो रहा है। भूख या मानव विकास के अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत पैमानों पर भारत का दर्जा लगातार गिर रहा है। हकीकत यही है कि गरीबी के मुद्दे पर भारत में आखिरी बार व्यापक चर्चा दस साल पहले हुई थी। तब संदर्भ यह था कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने गरीबी मापने के पैमाने के रूप में अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर के पैमाने को स्वीकार किया था।

तेंदुलकर फॉर्मूले के मुताबिक भारत के ग्रामीण इलाकों में 27.2 रुपये और शहरी इलाकों में 33.3 रुपये प्रति दिन खर्च करने की क्षमता ना रखने वाले व्यक्तियों को गरीबी रेखा के नीचे बताया गया था। तब सार्वजनिक चर्चा में उचित ही इस कसौटी के न्यून (low)- बल्कि एक तरह के निर्मम- स्तर को लेकर आक्रोश देखा गया। तत्कालीन यूपीए सरकार उस आम नाराजगी के दबाव में आई। तब उसने भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आर. रंगराजन की अध्यक्षता में गरीबी का पैमाना तय करने के लिए एक नई समिति बना दी।

मगर जब तक रंगराजन समिति की रिपोर्ट आई, 2014 के आम चुनाव संपन्न हो चुके थे। यानी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में regime change हो चुका था। मोदी के नेतृत्व में भारतीय राज्य-व्यवस्था ने जो नया चरित्र ग्रहण किया, उसमें गरीबी जैसे आम इनसान की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े प्रश्नों के लिए कोई जगह नहीं बची थी।

बहरहाल, रंगराजन समिति ने अपनी रिपोर्ट मोदी सरकार को सौंपी। उसने गरीबी का पैमाना ऊंचा कर उसे गांवों में 32 रु. शहरों में 47 रु. प्रति दिन प्रति व्यक्ति न्यूनतम खर्च क्षमता कर दिया। तब मीडिया रिपोर्टों में बताया गया था कि इस वृद्धि मात्र से भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले लोगों की संख्या में दस करोड़ की बढ़ोतरी दिखने लगी। मोदी सरकार ने ना तो उस रिपोर्ट को स्वीकार किया और ना ही उसे ठुकराने की घोषणा की। इसके विपरीत उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। तब से वो रिपोर्ट और गरीबी से जुड़ी बहस- दोनों ठंडे बस्ते में हैं।

बहरहाल, यह अनुमान लगाने का तार्किक आधार मौजूद है कि रंगराजन समिति ने जो रकम में बढ़ोत्तरी की, वह पिछली आलोचनाओं के मद्देनजर थी। फिर तेंदुलकर और रंगराजन समितियों के सुझाव में लगभग पांच साल का अंतर था। तो उस दौरान बढ़ी मुद्रास्फीति का ख्याल भी उसमें किया गया होगा, जिससे स्वतः रकम में कुछ इजाफा हो जाता। कहने का मतलब यह कि तेंदुलकर और रंगराजन कमेटियों के बीच कोई मूलभूत दृष्टि का फर्क नहीं था। दोनों का गाइडिंग प्रिंसपल (दिशा-निर्देशात्मक सिद्धांत) विश्व बैंक का फॉर्मूला था।

जब तेंदुलकर रिपोर्ट आई थी, तब विश्व बैंक के फॉर्मूले के तहत purchasing power parity (क्रय शक्ति समतुल्यता) के आधार पर 1.25 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति दिन न्यूनतम खर्च क्षमता गरीबी का पैमाना थी। purchasing power parity का अर्थ यह होता है कि इस रकम से जितनी वस्तुएं और सेवाएं अमेरिका में खरीदी जा सकती हैं, उतनी वस्तुओं और सेवाओं को स्थानीय मुद्रा में जितने में खरीदा जा सके, उस रकम से गरीबी रेखा तय होगी। विश्व बैंक का आज यह फॉर्मूला purchasing power parity आधार पर 1.90 डॉलर है। आलोचकों ने उचित ही इस नजरिए से गरीबी मापने की आलोचना की है। आखिर इतनी रकम से क्या एक व्यक्ति स-सम्मान स्वस्थ जीवन जी सकता है?

लेकिन नव-उदारवाद की अभिभावक संस्थाओं के सामने असल सवाल यह नहीं रहा है। उनके सामने यह दिखाने की चुनौती रही है कि नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था विश्व कल्याण के लिहाज से कारगर है। इससे जो धन पैदा होता है, वह रिस कर (ट्रिकल डाउन प्रक्रिया के जरिए) सबसे गरीब तबकों तक भी पहुंचता है। उससे लोगों की गरीबी दूर होती है। इसे दिखाने के लिए किसी तरह जिंदा लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर बताने की सोच दुनिया भर पर थोपी गई है। ये प्रचार इतना मजबूत है कि इस बात को बिना चुनौती दिए आम तौर पर लोग इसे तथ्य मान लेते हैं। इसीलिए जब यह कहा जाता है कि यूपीए के शासनकाल में 13 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया गया, तो उसे आम तौर पर सार्वजनिक चर्चा में कोई चुनौती नहीं देता।

जबकि सच यह है कि नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत जो ढांचा दुनिया पर थोपा गया- या जिसे तमाम देशों के शासक वर्ग ने अपनाया- उसमें पब्लिक सेक्टर के तहत मिलने वाली सेवाओं और सरकारी सहायता (सब्सिडी) को खत्म कर सिर्फ जो आपकी अपनी आय होती है, उस पर लोगों को निर्भर कर दिया गया। इस ढांचे को मानवीय चेहरा देने के लिए अति गरीब तबकों को प्रत्यक्ष नकदी देने का चलन जरूर रहा है। लेकिन ज्यादातर आबादी के लिए अपनी आय या सरकार से मिलने वाली नकदी सहायता इतनी नहीं रही है कि उससे मुद्रास्फीति के साथ उन्हें पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो सके। नतीजा गरीबी और भूख में बढ़ोत्तरी है।

यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र भी गरीबी की उपरोक्त परिभाषा से सहमत नहीं है, जिसे विश्व बैंक ने दुनिया भर पर थोपा है। संयुक्त राष्ट्र उस परिभाषा को अपना चुका है, जिसे ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने तकरीबन एक दशक पहले विकसित किया था। इसे मल्टीपल पॉवर्टी इंडेक्स कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि गरीबी रेखा तय करते हुए इस परिभाषा में गरीबी से जुड़े बहु आयामों को ध्यान में रखा जाता है।
ये आयाम हैं: स्वास्थ्य, शिक्षा, और जीवन स्तर।
⮚ स्वास्थ्य के तहत पोषण एवं बाल मृत्यु दर के आंकड़ों को शामिल किया जाता है।
⮚ शिक्षा के तहत यह देखा जाता है कि किसी देश में औसतन बच्चे कितने साल की स्कूली पढ़ाई करते हैं और स्कूलों में बच्चों की हाजिरी का स्तर क्या रहता है।
⮚ जीवन स्तर के तहत इन छह बातों पर गौर किया जाता हैः कितने लोग खाना पकाने के लिए किस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं, स्वच्छता का हाल कैसा है, पीने के साफ पानी की उपलब्धता का स्तर क्या है, बिजली उपभोग की क्या सूरत है, किस प्रकार के आवास में कितने लोग रहते हैं, और कितने लोगों के पास कितनी जायदाद है।

यूपीए के शासनकाल में उस समय मल्टीपल पॉवर्टी इंडेक्स (एमपीआई) पहले आया था, जब भारत का दावा था कि यहां गरीबों की संख्या कुल आबादी की 21 फीसदी है। लेकिन जब एमपीआई के आधार पर अनुमान लगाया गया, तो ये संख्या लगभग 55 प्रतिशत मानी गई। तो यह उस दौर की बात है, जब श्रमिक वर्ग की सुरक्षा के लिए कई पुराने कानून लागू थे, समाज कल्याण की कई योजनाएं मौजूद थीं, और खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसे उपाय अभी चर्चा में थे। अभी योजना आयोग भी अस्तित्व में था, जिसकी देखरेख में गरीबी संबंधी अध्ययन और सर्वे होते थे।

असल में भारत में गरीबी मापने की शुरुआत योजना आयोग की देखरेख में ही हुई थी। इसके लिए सबसे पहली समिति 1962 में बनाई गई थी। तब की समिति ने कैलोरी आधारित पैमाना तैयार किया था। इसके तहत कहा गया था कि गांवों में कम से कम 2400 और शहरों में 2100 कैलोरी से युक्त भोजन जिसे नहीं मिलता, उसे गरीब समझा जाएगा। जाहिर है, ये पैमाना बेयर मिनिमम (अत्यंत न्यूनतम) था। लेकिन तब समझ यह थी कि स्वास्थ्य देखभाल (हेल्थ केयर) और शिक्षा जैसी सेवाएं सरकारी क्षेत्र में होंगी, जिन पर लोगों को कोई खर्च नहीं करना होगा। ऐसे में उनकी प्राथमिक चिंता भोजन और अन्य जरूरतों की होगी। यह समझ 1990 तक लागू रही।
उसके बाद नव उदारवाद का दौर आ गया। यानी सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा आदि क्षेत्रों से अपने हाथ खींचने शुरू किए और सब्सिडी में कटौती उनका मूलमंत्र बन गया। तब योजना आयोग की समितियों ने भोजन, कपड़ा, आवास (किराया), परिवहन, और मनोरंजन पर न्यूनतम खर्च के अनुमान के साथ गरीबी के पैमाने तय करने शुरू किए। तेंदुलकर और रंगराजन कमेटियों ने इसी सोच को अपनाया था।

जबकि इस नजरिए की व्यापक आलोचना पहले सामने आ चुकी थी। अर्थशास्त्री उत्स पटनायक ने साल 2004 में अपने बहुचर्चित आलेख- रिपब्लिक ऑफ हंगर- में ठोस आंकड़ों के आधार पर बताया था कि आम लोगों से पोषक भोजन दूर हो रहा है। इस कारण उन्हें मिलने वाली कैलोरी में कमी आ रही है। इसकी वजह यह थी कि सरकार की अर्थव्यवस्था में भूमिका कम होने के साथ सारा खर्च लोगों के अपने माथे पर आने लगा था, जिससे वे अपना पूरा भरण-पोषण करने में अक्षम थे। पोषक भोजन में ह्रास के पीछे खास भूमिका पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के कमजोर होने की थी।

ये कहानी तब से लगातार आगे बढ़ी है। मोदी सरकार के आने के बाद नव उदारवाद ने बेपर्द क्रोनी कैपिटलिज्म का रूप भी ले लिया है। इसमें लोगों की बची-खुची सामाजिक सुरक्षाएं भी खत्म हो रही हैं। नतीजा वही है, जिसे पांचवें परिवार स्वास्थ्य सर्वे या ताजा वर्ल्ड हंगर रिपोर्ट ने बताया है।
जबकि आज दुनिया के सामने गरीबी को समझने और उससे लड़ने का समृद्ध अनुभव मौजूद है। ठोस (absolute) गरीबी और सापेक्ष (relative) गरीबी का फर्क क्या होता है, इसकी विस्तृत समझ भी हमारे सामने है। दुनिया के कई हिस्से ठोस गरीबी पर काबू पा चुके हैं। उनके सामने समस्या सापेक्ष गरीबी की है।

सापेक्ष गरीबी एक तरह से गैर-बराबरी का परिणाम है। इसलिए उसे एक अलग विमर्श में शामिल किया जा सकता है। लेकिन ठोस गरीबी आज के दौर में बिल्कुल ही अस्वीकार्य है। किसी देश में इसका मौजूद होना न सिर्फ उसके लिए, बल्कि सारी दुनिया के लिए शर्म की बात है। इसीलिए पहले संयुक्त राष्ट्र मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य) और फिर सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (टिकाऊ विकास लक्ष्य) के तहत इसे घटाने के कार्यक्रम तय हुए, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय संधि के रूप में दुनिया के सभी देशों ने स्वीकार किया। लेकिन दुखद यह है कि उन संधियों का हिस्सा होने के बावजूद यह समस्या भारत में गहराती जा रही है। जबकि न सिर्फ विकसित देशों, बल्कि बहुत से विकासशील देशों में इस बारे में बेहतर नीतियां अपनाई गईं और उनका परिणाम भी वहां देखने को मिला है।

इनमें हाल में सबसे बहुचर्चित प्रयास चीन का रहा है। चीन ने पिछले साल घोषणा की कि उसके यहां चरम (extreme) गरीबी समाप्त कर दी गई है। हाल के महीनों में अंतरराष्ट्रीय मीडिया की तमाम रिपोर्टों ने इस दावे की पुष्टि की है। यहां गौरतलब यह है कि चीन ने जिस परिभाषा के मुताबिक गरीबी खत्म की है, वह विश्व बैंक का बेयर मिनिमम पैमाना नहीं है। बल्कि उसने दुनिया भर में हुए तमाम अनुसंधानों और हासिल अनुभवों के आधार पर अपनी परिभाषा अपनाई। यह परिभाषा एमपीआई से भी अधिक विस्तृत है।

चीन ने इसके लिए जो तरीका अपनाया उसे One Income, Two Assurances, and Three Guarantees (एक निश्चित आय, दो आश्वस्तियां और तीन सुनिश्चितताएं) कहा गया है। एक के तहत सबके लिए एक निश्चित न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के तौर पर जो रकम तय हुई, वह विश्व बैंक के 1.9 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति दिन से अधिक 2.30 डॉलर (परचेजिंग पॉवर पैरिटी आधारित) थी। ऐसा चीन की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखते हुए तय किया गया। इसके अतिरिक्त चीन सरकार ने इन तीन आवश्यकताओं की अपनी तरफ से गारंटी कीः सुरक्षित आवास, स्वास्थ्य देखभाल, और शिक्षा। उनके अलावा पर्याप्त भोजन और कपड़े की उपलब्धता के आश्वासन भी सरकार ने दिए हैं। यानी बेहद गरीब लोगों को इन्हें भी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकार ने ली है। संभवतः दुनिया में कहीं भी गरीबी से संघर्ष में अपनाई गई यह सबसे विस्तृत परिभाषा है।
और चीन में न सिर्फ गरीबी को समझने की ऐसी व्यापक परिभाषा अपनाई गई, बल्कि इसी आधार पर उसने गरीबी दूर करने में सफलता भी पा ली है। संभव है कि यह सफलता उतनी दोषमुक्त ना हो, जितनी बताई गई है। लेकिन असल बात समस्या को स्वीकार और उसे समझने के लिए अपनाया गया नजरिया है। वैसे जो जानकारियां चीन से सामने आई हैं, वो गरीबी मिटाने के लिए एक अभूतपूर्व संघर्ष की कहानी को बयां करती हैं।

चीन और भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियां काफी कुछ एक जैसी रही हैं। विशाल आबादी वाले दोनों देशों की समस्याएं भी एक समय काफी कुछ मिलती-जुलती थीं। (अर्ध और पूर्ण) उपनिवेशवाद (और सामंतवाद) के दौर से निकल कर दोनों ने लगभग एक साथ अपनी यात्रा शुरू की थी। अब गंभीर विचार-विमर्श का विषय है कि आखिर क्यों चीन ने अपने यहां चरम गरीबी को समाप्त कर लिया, जबकि उसी समय भारत में न सिर्फ गरीबी की समस्या विकराल बनी हुई है, बल्कि अब इसमें वृद्धि भी होने लगी है। इस चर्चा में दुनिया के दूसरे देशों के ऐतिहासिक अनुभवों को भी अवश्य शामिल करना होगा। ऐसा तुरंत करने की जरूरत है। इसलिए अब जो रूझान सामने है, उसे नहीं नियंत्रित किया गया, तो भारत उस दुर्दशा में पहुंच जाएगा, जहां उसे एक समय ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने पहुंचा दिया था।

मगर पहली शर्त यह है कि गरीबी को राष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में लाया जाए। तभी गरीबी से लड़ाई में भारत के अपने अनुभव और दूसरे देशों के अनुभवों का जायजा लेते हुए ऐसी नीतियां और योजनाएं बनाई जा सकती हैं, जिनसे देश की इस सर्व प्रमुख समस्या के समाधान का रास्ता निकल पाए। इस सिलसिले में जो सबसे अहम बात ध्यान खींचती है, वह है- पब्लिक पॉलिसी। यानी देश में अपनाई जाने सरकारी नीतियां। अगर इन नीतियों के केंद्र में आम लोग और उनकी समस्याएं सर्व प्रमुख रहें, तो रास्ता और दिशा की तलाश कठिन नहीं है। जैसाकि कहा जाता है कि हर बार नए सिरे से चक्के का आविष्कार करने की जरूरत नहीं पड़ती, उसी तरह चुनौती गरीबी की परिभाषा तय करने या उसके बारे में समझ बनाने की नहीं है। चुनौती यह है कि गरीबी दूर करने की चुनौती को स्वीकार किया जाए, उसके अनुरूप लक्ष्य तय किए जाएं, और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का अभियान शुरू किया जाए। लेकिन ये तमाम बातें आज भारत में दूर की कौड़ी नजर आती हैं, तो इसीलिए कि देश (यानी सरकार, शासक वर्ग और उसके विशाल समर्थक वर्ग) की सोच सही दिशा में नहीं है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

जारी…

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