Friday, April 26, 2024

युद्ध से ज्यादा धर्म ने ली है लोगों की जान

मनुष्य को इस धरती पर सुखपूर्वक रहने के लिए उसकी न्यूनतम् आवश्यकता सर्वप्रथम भोजन और पानी है, इसीलिए लगभग सभी प्राचीनतम् मानव सभ्यताओं का विकास प्रायः किसी न किसी नदी के किनारे ही हुआ है। उसके बाद की आवश्यकताओं में उसे कठोर प्राकृतिक मौसम से बचने तथा सामाजिक मर्यादा बनाए रखने के लिए तथा अपने शरीर को ढकने के लिए कुछ वस्त्र तथा घनघोर वर्षा,कड़ाके की ठंड और भीषण गर्मी तथा हिंसक पशुओं से स्वयं,अपने बच्चों और संपूर्ण परिवार की सुरक्षा के लिए एक अदद घर की आवश्यकता होती है। उक्तवर्णित तीनों मूलभूत आवश्यकताओं के अतिरिक्त मानव के जीवन में संस्कार, परस्पर सहयोग, भातृत्व भावना, सहिष्णुता, दया, परोपकार, इंसानियत, कला, संगीत, गायन, वादन, नृत्य, नाटक, कविता, कहानी, वैज्ञानिक तथ्यों को जानने, समझने और लिखने के लिए पुस्तक संग्रह, भवन निर्माण और व्यापार करने के लिए जलीय परिवहन की सबसे प्राचीनतम् ,सबसे आसान व सबसे सस्ता जलीय परिवहन के साधन नाव बनाने आदि मानवीय तथा दस्तकारी गुणों के विकास के लिए तथा देश और समाज के आर्थिक विकास करने के लिए शिक्षा की पूर्ति के लिए शिक्षालयों की परम् आवश्यकता होती है। उक्त सभी कुछ होने के लिए समाज और देश में शांति की सबसे बड़ी जरूरत होती है।

प्राचीनकाल की जितनी भी मानव सभ्यताएं अपने उत्कर्ष पर पहुंची यथा मिश्र की सभ्यता, सिंधुघाटी सभ्यता, माया सभ्यता और रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, मेसोपोटामियन सभ्यता आदि सभी अपना सर्वोच्च विकास अपने शांतिपूर्ण काल में ही कर सकने में सक्षम हुईं, जिन सभ्यताओं ने अपना मुख्य लक्ष्य युद्ध और लड़ाई-झगड़े को रखा,उनके अधिकांश आर्थिक संसाधन युद्धों और लड़ाइयों में खर्च होने से वे मानवीय संवेदनाओं आधारित सांस्कृतिक विकास नहीं कर पाईं और कुछ समयावधि बाद स्वतः नष्ट भी हो गईं, इसे उदाहरण के तौर पर बिल्कुल शांत एथेंस और युद्ध को उतावला स्पार्टा दोनों राज्यों के इतिहास से बखूबी समझा जा सकता है।

अब तक हुए वैज्ञानिक शोधों से दुनिया इस बात को जानती थी कि सिंधुघाटी सभ्यता आज से लगभग 5500 वर्ष पहले विकसित हुई थी,लेकिन हाल ही में आईआईटी खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने संयुक्त रूप से शोध कर एक चौंकाने वाला शोधपत्र जारी किया है, इस शोधपत्र के अनुसार सिंधुघाटी सभ्यता 5500 वर्ष ही पुरानी नहीं है, अपितु 8000 वर्ष पहले से इस दुनिया में अस्तित्व में आकर फल-फूल रही थी और विकसित हो चुकी थी। इस प्रकार सिंधुघाटी सभ्यता मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से भी प्राचीनतम् है। आईआईटी खड़गपुर के जियोलॉजी और जियोफिजिक्स विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक के अनुसार उन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता की एक प्राचीन पॉटरी को खोजा है, जिसे ऑफ्टकेली स्टिम्यूलेटेड लूमनेसन्स तरीके से उसकी उम्र का पता लगाने पर हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वह 6000 साल पुरानी पॉटरी है। इसके अलावा हड़प्पा सभ्यता की शुरूआत भी 8000 साल पुराने होने के अन्य कई प्रमाण मिले हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने वर्तमान हरियाणा के भिर्राना और राखीगढ़ी में एकदम नई जगह खुदाई की, वहाँ से उन्हें बकरियों, हिरणों चिंकारों और गायों की हड्डियों के अवशेष मिले, इन सभी अवशेषों का कार्बन-14 परीक्षण के माध्यम से इनकी उम्र का सटीक और सही जानकारी प्राप्त किया,शोधकर्ताओं के अनुसार लगभग 7000 वर्ष पूर्व उस समय वहाँ मानसून बिल्कुल कमजोर हो गया था, भीषण सूखा पड़ना शुरू हो गया था, लेकिन सिंधुघाटी सभ्यता के लोग इस भीषण संकट में भी हार न मानकर अपने घरों में वर्षा के एक-एक बूँद को वैज्ञानिक तरीके से सहेजकर वर्षा के जल को संचयन करना शुरू कर दिया था। शोधकर्ताओं के अनुसार सिंधुघाटी सभ्यता का विस्तार भारत के बहुत बड़े भूभाग पर फैला हुआ था, लेकिन इस संबंध में भारतीय पुरातत्व वैज्ञानिकों द्वारा अभी तक बहुत ज्यादा शोध नहीं किया गया है, अपितु अभी तक सिंधुघाटी संबन्धित जानकारियां अंग्रेज पुरातत्वविदों, खननकर्ताओं और वैज्ञानिकों द्वारा की गई खनन और शोधों पर पूर्णतया आधारित हैं। ज्ञातव्य है कि मिस्री सभ्यता का विकास 7000 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व तक और मेसोपोटामियन सभ्यता का विकास 6500 ईसा पूर्व से 3100 ईसा पूर्व तक रहने के वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं। यह वैज्ञानिक रूप से अतिमहत्वपूर्ण व क्रांतिकारी शोधपत्र सुप्रतिष्ठित तथा लब्धप्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर में अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है ।   

सन् 1957-68 में भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा लगभग 8000 वर्ष पुराने एक अत्यंत विकसित भारतीय बंदरगाह नगर धोलावीरा की खोज की गई थी,यह एक प्रोटो-ऐतिहासिक कांस्य युग का एक असाधारण, अद्भुत और बेमिसाल शहर भारत के गुजरात राज्य के कच्छ जिले के लगभग मध्य में खटीर नामक स्थान में स्थित है, इसे स्थानीय लोग कोटा दा टिब्बा कहते हैं, भचाउ तालुका में लगभग 8000 वर्ष पुराने इस धोलावीरा नामक हड़प्पा कालीन पुरातात्विक स्थल को अब यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता मिल गई है। धोलावीरा का नगर नियोजन की किलेबंदी नुमा बनावट और इसके जलसंकट से मुक्ति पाने के लिए जलसंरक्षण की योजनाएं बहुत सुव्यवस्थित, सुनियोजित व वैज्ञानिक पाई गईं हैं, जो आज से 8000 वर्ष पूर्व एक दुर्लभतम् चीज थी, धोलावीरा में जिस उच्च कोटि का जल प्रबंधन है, जिसमें वाटर चैनल्स व रिजर्वायर्स हैं, वे मोहनजोदड़ो के स्नानघरों के समतुल्य व वैज्ञानिक हैं। यह संपूर्ण नगर ग्रिड आधारित योजनानुसार बसाया गया नगर था,जो क्रमशः ऊपरी, निचली बसावट तथा नगरकोट व प्रांगणों में बंटा हुआ था, यहाँ मिले पत्थर स्तंभों पर जिस प्रकार उच्चगुणवत्ता की पॉलिश की गई है, उसमें प्रयुक्त शिल्पकारी, इंजीनियरिंग व ज्यामितीय कौशल तथा उच्च स्तरीय दक्षता वर्तमान समय के आधुनिक पुरातत्वविदों और वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य चकित और हतप्रभ कर रही हैं।

पुरातात्विक वैज्ञानिकों के अनुसार सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि धोलावीरा नगर उस समय का व्यस्ततम् बंदरगाह नगर था, उस समय के अन्य भारतीय नगर भारतीय उपमहाद्वीप के अन्दर पठारी या मैदानी क्षेत्रों में अवस्थित थे,जबकि इस समुद्रतटीय नगर से तत्कालीन मेसापोटामिया नगर से व्यापारिक संबंध थे, इस नगर से समुद्री मार्ग से दजला-फरात नदियों के मुहाने तक व्यापारिक नावों के बेड़े चलते थे। इस नगर के उत्तरी द्वार पर एक सूचनापट्ट मिला है, जिसमें दस चित्रात्मक अक्षर एक क्रम में लिखे हुए मिले हैं, सिंधुघाटी सभ्यता में मिले तमाम नगरों यथा हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा,लोथल राखीगढ़ी आदि किसी में भी और कहीं भी इतना लंबा अभिलेख अभी तक नहीं मिला है, जिसमें इतने अक्षर एक क्रम में हों।

सिंधुघाटी सभ्यता की मुद्राओं में प्रायः 5 से अधिक अक्षर अभी तक कहीं से भी प्राप्त नहीं हुए हैं। धोलावीरा में मिला यह सूचनापट्ट 15 इंच ×15 इंच के आकार के एक लकड़ी के पट्टिका पर सजाया गया है,पुरातत्व शास्त्रियों के अनुसार दुनिया का यह प्राचीनतम् साइनबोर्ड है, लेकिन दुर्भाग्य से इस पर लिखी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। इसी प्रकार मिस्री सभ्यता के आधार स्तंभ गीजा के पिरामिडों से प्राप्त लिपि को तब तक नहीं पढ़ा जा सका था, जब तक 1799 में रोसेत्ता शिला की बड़ी और लंबी-चौड़ी शिलालेख नहीं मिल गई, क्योंकि कोई बड़ा शिलालेख मिलने पर ही लिपिकार अन्वेषकों और वैज्ञानिकों को अक्षर पहचानने में सुविधा होती है। सम्राट अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि को भी सम्राट अशोक द्वारा लिखवाए गये बड़े-बड़े शिलालेखों की मदद से ही पढ़ा जा सका है,लेकिन दुर्भाग्यवश सिंधुघाटी सभ्यता से कोई बड़ा शिलालेख अभी तक प्राप्त नहीं हो पाया है। सिंधुघाटी सभ्यता को पूर्णरूपेण समझने के लिए एक छूटी हुई बड़ी शिलालेख मिलने की अभी भी उम्मीद बनी हुई है ।

सिंधुघाटी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उन्नतशील लोग अद्भुत नगर नियोजन, अपने दुश्मनों से सुरक्षा के लिहाज से पूरे शहर की पूर्ण किलेबंदी, परिष्कृत तालाब, उत्तम जलनिकासी व्यवस्था, भवन निर्माण में पत्थरों की प्रचुरता से प्रयोग करने में अत्यधिक दक्ष व कार्यकुशल तथा निपुण थे। उस समय भी वहाँ पानी की कमी रही होगी, इस समस्या के समाधान के लिए, वे लोग वैज्ञानिक ढंग से पानी संग्रहीत करने की तकनीक का बखूबी इस्तेमाल करते थे। वे लोग रॉक-कट कुएं बनाने में अतिदक्ष थे, मनसर व मनहर नामक दोनों स्थानीय नदियों के जल का प्रयोग अपने पूरे शहर में सुचारूरूप से जल आपूर्ति करने की सुव्यवस्थित व्यवस्था भी वे कर लिए थे। वे लोग बरसात में इन नदियों के जलप्रवाह को रोककर, पहले से बनाए गए बड़े-बड़े तालाबों और अनेकानेक कुँओं में पानी को संग्रहीत कर लिया करते थे, यहाँ के लोग भूगर्भ में पत्थर के स्लेटों से पानी की बहुत बड़ी-बड़ी टंकियों को बनाने में बहुत ही कार्यकुशल व प्रवीण थे, ये लोग आधुनिक इजरायल के लोगों की तरह पानी की एक-एक बूँद को सहेजकर, रेगिस्तानी मरूभूमि में प्रकृति की क्रूरतम् परिस्थिति में भी जीना सीख लिए थे। उस समय भी अंतिम संस्कार में मृतकों को दफ़नाया जाता था, नगर की चाहरदीवारी के बाहर एक विशाल कब्रिस्तान का भग्नावशेष मिला है।

धोलावीरा के निवासियों का मुख्य व्यवसाय आयात-निर्यात का था,धोलावीरा में कुछ सेरामिक या चीनी-मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जिन्हें ब्लैक स्लिण्ड जार कहते हैं। इन 1.5 मीटर ऊँचे जारों का बेस नुकीला है, जो पानी की जहाजों में यातायात के लिए एकदम उपयुक्त है, इन्हें सफेद पट्टी से सजाया गया है,इन पर एक सर्कुलर इंडस सील लगी हुई है। धोलावीरा में उस समय वास्तव में गुजरात के खानों से निकलने वाले अयस्कों यथा तांबा, चूना पत्थर, ऐमेजोनाइट और कच्छ के समुद्री किनारे मिलने वाले सेल और सीपियों तथा अर्धकीमती पत्थरों आदि से तथा राजस्थान, यूनाइटेड अरब अमीरात और ओमान से तांबे का अयस्क लाकर उस समय के व्यापारी आभूषण बनाकर इन आभूषणों का बड़े पैमाने पर निर्यात करने का कारोबार करते थे।

सिंधुघाटी की अति विकसित, वैज्ञानिक, उत्कृष्ट व उन्नत सभ्यता के मामले में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा है कि भारत में इसे लगभग विस्मृत ही कर दिया गया था। यहाँ कौन लोग रहते थे? उनकी भाषा और लिपि क्या थी? उनका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, जीवनशैली, उनका साहित्य, उनका नृत्य-संगीत व ललित कलाएं, उनका पर्यावरण संरक्षण आदि में क्या योगदान था? उनके द्वारा विकसित भवन निर्माण, परकोटे, नगर नियोजन, वास्तुकला, पूर्ण वैज्ञानिक सोच आधारित जल संचयन के लिए बनाए गए बड़े-बड़े जलसंचयन भूमिगत जल कक्ष आदि-आदि सब-कुछ, कुछ अज्ञात कारणों से चुपचाप इतिहास के अति स्याह अंधेरे में गुम हो गया, जिसका आज-तक कोई पुरातत्वशास्त्री, वैज्ञानिक, अन्वेषणकर्ता पता ही नहीं लगा पाया। सच्चाई यह है कि सिंधुघाटी सभ्यता के सार्वभौमिक सत्यानाश के बाद शेष भारत फिर से हजारों वर्ष पीछे चला गया।

सिंधुघाटी की परिष्कृत और उन्नत सभ्यता भारतीय इतिहास का एक अत्यंत दुःखद अध्याय है, क्योंकि यह उन्नतशील सभ्यता बिल्कुल विस्मृति के गर्भ में गहरे में दफ़न होकर रह गई, जैसे यह कभी अस्तित्व में रही ही न हो। आश्चर्यजनक और हतप्रभ कर देने वाली घटना तब हुई, जब 1911 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर इस विस्मृत परन्तु इतनी विकसित सभ्यता के अवशेषों और खंडहरों की खुदाई करवा रहे थे, जिसमें उत्कृष्ट ईंटों से सजी एक-दूसरे को बिल्कुल समकोण पर काटने वाली बेहतरीन सड़कों, खूबसूरत पॉलिश किए पत्थरों से सुसज्जित भवनों, आधुनिकतम्, बिल्कुल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बनाए गए स्नानघरों और वर्षा जल संचयन के तरीकों को देखें तो एकबारगी उन्हें लगा कि यह खंडहर स्थल संभवतः अधिक से अधिक कोई 200 साल पुराने किसी भारतीय कस्बे का भग्नावशेष ही होगा। लेकिन बाद में जब इसका कॉर्बन डेटिंग परीक्षण हुआ,तब वे और सारी दुनिया आश्चर्यचकित रह गई कि यह लगभग 8000 वर्ष पुराने उस उन्नत सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष हैं।

वैसे तो विश्व भर में वहां का इतिहास टूटी हुई कड़ियों से भरा पड़ा है, जैसे मिस्र के विशाल पिरामिड, वहाँ की मृत ममियां, पेरू के माया सभ्यता के भग्नावशेष, लेबनान के हजारों टन भारी पत्थरों के चबूतरे, जिन्हें कुछ वैज्ञानिक प्राचीन काल में एलियंस के बड़े विमानों का उड़ान स्थल मानते हैं, जो इतने वजनदार और इतने बड़े हैं कि उन्हें आधुनिकतम् और बड़े से बड़े क्रेन से आज भी उठाया ही नहीं जा सकता। लेकिन भारतीय इतिहास में टूटी कड़ियों वाले प्रसंग में सिंधुघाटी सभ्यता एक ज्वलंत उदाहरण है, जिस दिन सिंधुघाटी सभ्यता के धुंध में लिपटे रहस्यों से पर्दा उठेगा, उसी दिन से भारतीय इतिहास का फिर से पुनर्लेखन करना ही पड़ेगा। ऋग्वेद में सदानीरा, चौड़े पाटवाली सरस्वती नदी का जिक्र बारम्बार आता है, लेकिन भौगोलिक उथल-पुथल से इस अभिशापित नदी का उद्गम स्रोत इससे छिन गया और यह नदी इतिहास के गुमनामी के अंधेरे कोने में और विलुप्ति तथा विस्मृति के स्याह कोने में सदा के लिए समा जाने को अभिशापित हो गई। इसी सरस्वती नदी के किनारे सिंधुघाटी जैसी उन्नत सभ्यता विकसित हुई थी।

अब यक्ष प्रश्न है कि सरस्वती नदी के विलोपन के बाद वहाँ के अतिविकसित लोग अगर भारत के अन्य भूभागों पर विस्थापन को बाध्य हुए तो उनकी सिंधुघाटी के विभिन्न नगरों यथा मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, राखीगढ़ी और धोलावीरा आदि नगरों में उच्च दक्षता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बनाए गये भवन निर्माण, नगर नियोजन और वास्तुकला की दक्षता, हुनर और कला आदि भी विलुप्त कैसे हो गई? क्या उनका सामूहिक नरसंहार किया गया? या उनका पूरा नगर भयंकर भूकंप या आगजनी या किसी बड़ी महामारी का शिकार हो गया या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा में वे सामूहिकरूप से सदा के लिए अचानक दफ़्न होकर इतिहास के काल में सदा के लिए समा गए? कोई नहीं जानता, न बताता। इतना जरूर हुआ कि उनकी सभ्यता और उन लोगों के भारतीय ऐतिहासिक पटल से गायब होते ही भारत के शेष बचे लोग और यहां का समाज हजारों वर्षों के लिए इतने पिछड़ गए कि आश्चर्य और बहुत दुःख है कि हम इस इक्कीसवीं सदी में भी नगर नियोजन के मामले में भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद आज के तथाकथित आधुनिकतम् नगर भी गंदगी, बदबू और स्लम बने रहने को अभिशापित हैं, भारत का एक भी शहर अभी तक सही मायने में स्मार्ट सिटी नहीं बन पाया है, जबकि कितने आश्चर्य और विस्मय की बात है कि इसी देश की धरती पर आज से लगभग 8000 वर्ष पूर्व हमारे ही अतिबुद्धिमान पूर्वज लोग अतिसुविधा-संपन्न समार्ट सिटी को बनाने में अतिनिपुण थे और वे आज से लगभग 8000 वर्षों पूर्व स्मार्ट सिटी सफलतापूर्वक बनाकर उसमें रहने और उसका सुख भोगने का लुत्फ उठा रहे थे। 

सिंधुघाटी सभ्यता की तरह ही एक और अति उन्नत सभ्यता हरियाणा की एक नदी दृष्द्वती के किनारे राखीगढ़ी नामक स्थान में उसी के समानांतर एक और उन्नत सभ्यता पनपी थी, वर्तमान समय में गंगा-यमुना नदियाँ जो हिमालय से उतरकर पूर्व दिशा की ओर जातीं हैं, उनकी बेसिन में आज सबसे उन्नत सभ्यता विकसित है, परन्तु प्रागैतिहासिक काल में ठीक इसके उलट सरस्वती-सिंधु का दोआब सबसे उन्नत सभ्यता का परचम लहरा रहा था, यह भी एक उल्लेखनीय बात है कि जिस काल में गंगा-यमुना में बसी सभ्यता उन्नति के अपने शैशवावस्था में थी, उस समय सिंधु और सरस्वती के बीच बसी सिंधुघाटी की सभ्यता अपने उत्कर्ष के चरम् पर थी।

भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा किए जा रहे खुदाई में पूरब में सिंधुघाटी काल के नगरों के अवशेषों के लगातार मिलते जाने से अब धीरे-धीरे यह सिद्ध होता जा रहा है कि सिंधुघाटी सभ्यता केवल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो तक सीमित नहीं थी, अपितु उसका विस्तार गुजरात के लोथल और धोलावीरा, राजस्थान के कालीबंगा, हरियाणा के घग्गर-हकहा नदी घाटी सभ्यता, राखीगढ़ी के भग्नावशेष आदि बहुत से परिष्कृत नगर, कस्बे आदि बहुत बड़े विस्तृत परिक्षेत्र में फैले हुए थे। सरस्वती नदी घाटी में और उसके किनारे पता नहीं अन्य कितने उन्नतशील नगर बसे हुए थे, जो आज भी धरती के गर्भ में हजारों वर्षों से हमारे पूर्वजों के बसाए ये नगर अभी भी दबे हुए हैं और अपनी कहानी सुनाने के लिए इंतजार में हैं। प्राचीनकाल के हमारे पूर्वजों द्वारा बनवाए गये धरती में दफ़्न इन परिष्कृत और उन्नत तकनीक से बने नगरों के हमारे देश, हमारे समाज, हमारी बोली, हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे रस्मों-रिवाजों का गहरा संबंध और नाता है। 

भारतीय उपमहाद्वीप का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि इस देश के लोगों को अपने देश, अपने समाज का इतिहास लिखने में कभी विश्वास ही नहीं रहा है, आज वर्तमान समय में भारत के पास कोई प्रामाणिक और विश्वसनीय तथा ढंग का इतिहास ही नहीं है। भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय ईसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व मेगस्थनीज ने इंडिका नामक एक ऐतिहासिक पुस्तक लिखा था। भारत के पास वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि बहुत से पौराणिक ग्रंथ हैं, बहुत सी किस्सों, कहानियों, नाटकों गप्पों की किताबें हैं, लेकिन ईमानदारी से लिखा हुआ विश्वसनीय, वैज्ञानिक संजीदा, गंभीर, सहेजा हुआ इतिहास ही नहीं है। 

सिकंदर के एक मित्र नियार्खस ने अपनी डायरी में लिखा है कि सिकंदर अपनी हार से थका-हारा और क्षुब्ध जब अपने वतन को लौट रहा था, तब वह धोलावीरा नगर आया था, तब वह यहां के लोगों की मदद से 800 नावों का एक बेड़ा भी बनवाया था, ताकि वह समुद्री रास्ते से अपने वतन को लौट सके, लेकिन वह इस कार्यक्रम में असफल रहा और मजबूर होकर उसे स्थलीय रास्ते से ही अपने वतन को लौटना पड़ा, वैसे ज्ञातव्य है कि उसकी मौत रास्ते में ही पीलिया रोग से ग्रसित होने के कारण हो गई थी। इसलिए यह प्रामाणिक है कि कच्छ के लोग पिछले 8000 सालों से कुशल नाविक हैं। अंग्रेज लेखकों यथा रश ब्रुक, मिसेज पोस्टन और राबर्ट सिवराइट आदि ने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि मुगल सम्राट जहांगीर ने कच्छ के लोगों का लगान इसलिए माफ कर दिया था कि वे लोग उसके राज्य के गरीब लोगों को अपनी बड़ी-बड़ी नौकाओं से निःशुल्क मक्का और मदीना की हज यात्रा करवा देंगे। आश्चर्य की बात है कि कच्छ के उन प्राचीन नाविकों के बनाए नक्शों के सहारे प्राचीनकाल में उस समय यात्रियों से भरी बड़ी-बड़ी नौकाएं सूदूर दक्षिणी और पश्चिमी देशों यथा अफ्रीका और इंग्लैंड तक चली जातीं थीं, जबकि उस समय न वास्कोडिगामा का जन्म हुआ था, न कोलम्बस इस दुनिया में पैदा हुआ था।

सिंधुघाटी सभ्यता के लगभग 8000 वर्ष पुराने पुरातात्विक शहरों में 8000 वर्ष पुराने उस उन्नत सभ्यता के अवशेष हैं, जब संस्कृत भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था, वेदों, पुराणों, उपनिषदों का कहीं नामोनिशान नहीं था, हिंदू, इस्लाम, यहूदी, ईसाई आदि धर्मों का इस दुनिया में कहीं आगमन ही नहीं हुआ था। धोलावीरा की सभ्यता उस समय की है, जब वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, कुरआन और बाइबिल आदि भी लिखे ही नहीं गए थे, वे लोग महात्मा गौतमबुद्ध, स्वामी महावीर और सिकंदर महान के जीवनकाल से भी हजारों वर्ष पहले इस दुनिया में आ चुके थे। उनके समय में पाली, ब्राह्मी या संस्कृत, उर्दू, अरबी और अंग्रेजी, फ्रांसीसी व जर्मन आदि भाषाओं का भी पदार्पण इस दुनिया में नहीं हुआ था। आश्चर्य है सिंधुघाटी सभ्यता के अब तक हो चुके इतने विस्तृत उत्खनन में निकले नगरावशेषों में कहीं भी किसी मंदिर, मस्जिद या चर्च का कोई भग्नावशेष नहीं मिला है, कोई देवता या देवी की मूर्ति का कोई अवशेष नहीं मिला है। जाहिर है उस समय किसी धर्म का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था।

उस समय न कोई सनातन धर्म था, न ईसाई धर्म था, न यहूदी धर्म था, न इस्लाम धर्म था, न कोई कल्पित ईश्वर था, न गॉड था, न खुदा ताला थे, न कोई पंडा-पुजारी था, न फादर-पादरी था, न मुल्ला-मौलवी था। लेकिन उनके नगरों के उत्कृष्ट और वैज्ञानिक बनावट से यह पता चलता है कि वे लोग बिना किसी धर्म, मजहब और संप्रदाय के भी बहुत सुखी, संतुष्ट व एक अत्यंत उच्च स्तर का जीवन जी रहे थे। इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है और इसे दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि उक्तवर्णित इन सभी धर्मों का उदय सिंधु घाटी काल के बहुत बाद में हुआ है। अब उक्तवर्णित इन धर्मों, मजहबों, संप्रदायों और मत-मतांतरों के उदय के बाद कथित ईश्वर, खुदा ताला और गॉड के इस दुनिया में अवतरण के बाद इन धर्मों के ठेकेदारों पंडों, पुरोहितों, मुल्लों, मौलवियों, फादरों और पादरियों ने इस समस्त दुनिया के इंसानों को सार्वभौमिक और सबसे बड़े धर्म आदमियत और इंसानियत को ही अपने निजी स्वार्थ के लिए बनाए गए धर्मों के नकली व कृत्रिम खांचों और गुटों में बाँट दिया। इससे भी संतोष नहीं हुआ तो पूरे के पूरे देशों के करोड़ों-अरबों लोगों को ऊँच-नीच और बड़े-छोटे तथा गोरे-काले के भेदभावपूर्ण विषमताओं को आधार बनाकर हजारों जातियों,उपजातियों आदि में बाँटकर,इस दुनिया के सभी मानवों में धर्म के आधार पर धार्मिक संकीर्णता,वैमनस्यता,घृणा और शत्रुता का ऐसा विषबीज बो दिया कि मानव का विगत दो-ढाई-हजार साल का रक्तरंजित इतिहास उठाकर देख लीजिए, धर्म के नाम पर एक आदमी, दूसरे निरपराध आदमी का अनायास ही खून किए जा रहा है, उसका कत्ल किए जा रहा है,एक तरह से पूरी दुनिया धर्म के नाम पर जमकर मानव रक्त की होली खेले जा रही है।

मध्य-पूर्व में अवस्थित येरूशलम में जहाँ यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों का जन्मस्थल है, वहाँ का रक्तरंजित इतिहास पढ़कर और उनके भयावहतम् चित्रों को देखकर एक अहिंसक, सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति का हृदय कराह उठेगा, वहाँ धर्म के नाम पर हजारों साल तक सैकड़ों बार धार्मिक कूपमंडूक, जाहिल, नरपिशाच दरिंदों द्वारा इंसानियत की खून की नदियाँ बहाई गईं हैं, ईसाई मुसलमानों को मार रहा है। मुसलमान ईसाइयों का कत्ल कर रहा है। यहूदी ईसाइयों के सीने में कटार घोंप रहा है, तो कभी ईसाई यहूदियों को काट रहे हैं, कैथोलिक ईसाई अपने ही धर्मानुयायी प्रोटेस्टेंट को मारते हैं, कभी सुन्नी मुसलमान अपने ही धर्म के शियाओं का सामूहिक तौर पर वध कर रहा है। मौका पड़ने पर शिया सुन्नियों को बम से उड़ा रहे हैं। नरपिशाच हिटलर अपनी जातीय श्रेष्ठता और धार्मिक वैमनष्यता के चलते ही अपने फॉसिस्ट और अमानवीय शासनकाल में 15 लाख यहूदी बच्चों सहित 60 लाख यहूदियों को नृशंसता पूर्वक मौत की नींद सुला दिया।

भारत में कथित अहिंसक सनातनी धर्म के हिन्दू अनुयायी भारत में मौर्यकाल के अंतिम मौर्य सम्राट की पुष्यमित्र शुंग द्वारा छल से हत्या करने के बाद पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बाद हजारों सालों बाद तक अहिंसक व मानवीय बौद्ध अनुयायियों का बाकायदा तत्कालीन राजाओं और कथित विश्वगुरु शंकराचार्य के संरक्षण में राज्याश्रित सेनाओं द्वारा सरेआम जो हत्याएं होनी शुरू हुईं वह राक्षसी कुकृत्य अनवरत हजारों सालों तक चलती रहीं, जब तक समूचे भारत से बौद्ध मत के अनुयाइयों और भिक्षुओं का सामूहिक तौर पर नरसंहार करके उनका संपूर्ण विलोपन नहीं कर दिया गया। इसीलिए भारत के बाहर लगभग आधी दुनिया में बौद्ध धर्म के अनुयायी अरबों की संख्या में हैं, लेकिन भारत में इनकी संख्या लगभग नगण्य सी है। यह नारियल फोड़ने की कुप्रथा उसी बौद्ध भिक्षुओं के सिर को फोड़कर पूर्णतः विनष्टीकरण का ही एक विकृत रूप है।

आज भी इक्कीसवीं सदी में अभी भी धर्म के शातिर और धूर्त ठेकेदार सारी दुनिया भर में धर्म के नाम पर सर्वत्र खून की नदियां बहाए जा रहे हैं, कहीं मस्जिद में ईसाई उग्रवादी बंदूक से इस्लाम धर्मावलंबियों को भूनकर रख देता है, उसके विरोध में मुस्लिम धर्मांध उग्रवादी चर्च में ईसाईयों को बम लगाकर उनके चिथड़े उड़ा देने में जरा भी संकोच नहीं करता। आज तालिबान, आईएसआईएस, अलकायदा, बजरंग दल, श्रीराम सेने, बब्बर खालसा, ईसाइयों के भी धार्मिक उग्रवादी संगठन, इस्लाम, हिन्दू, ईसाई व सिख धर्म के धार्मिक उग्रवादियों द्वारा सरेआम निरपराध महिलाओं, बच्चों, बड़ों आदि सभी लोगों की खून की निःसंकोच, बेशर्मी से नरसंहार किए जा रहे हैं। अधिकतर धर्मांध मुस्लिम देशों में शरीयत के नाम पर, इस्लाम के नाम पर तो भारत जैसे देश में अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासी युवक-युवतियों को धार्मिक और जातिगत घृणा व वैमनस्यता के वशीभूत होकर कथित उच्च जातियों के गुँडों के समूहों द्वारा सरेआम मारपीट, बलात्कार व हत्या तक की जा रही है, जिसे अंग्रेजी में मॉब लिंचिग कह दिया जा रहा है। ये सब राक्षसी व पैशाचिक कुकर्म धर्म के नाम पर ही तो हो रहा है। मंदिरों में, मस्जिदों में और चर्चों में ‘मजहब नहीं सिखाता…आपस में वैर करना…’ अक्सर भ्रामक और एकदम झूठ बात भी साथ-साथ बड़ी ऊँची आवाज़ में जनता को बेवकूफ बनाने के लिए सदा सुनाई जाती रहती है।

लेकिन यह ऐतिहासिक और कटु सच्चाई है कि इन विभिन्न धर्मों के शातिर ठेकेदारों ने इंसानियत और मनुष्यता की जितनी अब तक क्षति पहुँचाई है, उतनी मानवता और इंसानियत की क्षति और मनुष्यता का खून वास्तविक युद्धों ने भी नहीं पहुँचाया है। इसलिए अब इस दुनिया भर के प्रबुद्ध लोग इन हिंसक धर्मों के इंसानियत व मनुष्यता की हत्या करने जैसे कुकृत्यों और रक्तपात को रोकने के लिए सुसंगठित हों। समस्त दुनिया में सभी इंसानों का बस एक ही धर्म इंसानियत है, जिसमें समस्त मानव प्रजाति व समस्त जैवमण्डल के लिए दया, करूणा, सहयोग, पारस्परिक सहयोग, अहिंसा, परोपकार, उपकार आदि मानवीय संवेदनाओं आधारित गुण समाहित हों,वर्तमान समय के इन क्रूरतम् व अमानवीय तथा हिंसक धर्मों व उनके धर्मावलंबियों द्वारा इंसानियत की लगातार हत्या से ये प्रकृति, ये पर्यावरण, ये सांसों के स्पंदन से युक्त धरती आदि सभी कारूणिक आर्तनाद व क्रंदन कर रहे हैं। कथित धर्मों के नाम पर मनुष्यता की अकथनीय हत्या हो चुकी है। अब ये अमानवीय, क्रूरतम् हत्याएं हर हाल में रूकनी ही चाहिए।

(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद है लेखक हैं। आप आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)

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